Monday, February 13, 2012

वैराज्ञ एवं संसार

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्ब्यातितरिष्यति /

तदा गन्तासि निर्वेदम् श्रोतब्यस्य श्रुतस्य च // गीता - 2.52

मोह एवं वैराज्ञ एक साथ एक समय में एक बुद्धि में नहीं रहते //

delusion and dispassion do not exist together

गीता समीकरण कहता है -----

मोह के साथ वैराज्ञ में कदम रखना असंभव है

वैराज्ञ बिना संसार को समझना असंभव है

वैरागी ही ज्ञानी हो सकता है

ज्ञानी कामना रहित एवं संकल्प रहित होता है

और

ज्ञानी समभाव योगी होता है

संसार का द्रष्टा भोग – आसक्ति से अछूता रहता है

संसार का द्रष्टा ही प्रभु की अनुभूति में होता है

गीता के समीकरण में क्या कहीं किसी प्रकार का संदेह है ? यदि नहीं तो फिर हम – आप क्यों गीता की ओर पीठ करके संसार के सम्मोहन की ऊर्जा के प्रभाव में आ कर भटक रहे हैं ?


====ओम्======


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