Friday, February 20, 2015

भागवत : 31

* सुलझनके बाद उलझन और उलझनके बाद सुलझन भरा यह संसारका मार्ग , आदि - अंत रहित है।
* जब जीवनका एक अहम समय गुजर जाता है तब किसी -किसीको ऐसा लगनें लगता है कि उसकी यह संसारकी यात्रा सीधी नहीं है ; हम वस्तुतः एक केंद्रकी परिधि पर चक्कर काट रहे हैं । वह केंद ऐसा है जो अपना रूप - रंग बदलता रहता है और उसके इस स्वभावके कारण हम उसे ठीक से पहचाननेंमें चूकते रहते हैं । संसारके इस बृत्तिय मार्गका केंद्र है भोग ।
* यह सांसारिक मार्ग जब उलझन - सुलझन मुक्त होजाती है तब इसका केंद भोग नहीं रहता , इसका केंद्र योग हो जाता है ।
♀ भोग - योग कर्मों में भौतिक अंतर नहीं होता पर अंतःकरण स्तर पर दोनों एक दूसरेके विपरीत होते हैं । * आसक्ति - अहंकार मुक्त कर्म , योग कर्म होते हैं और आसक्ति -अहंकार युक्त कर्म भोग कर्म हैं ।
# आसक्ति - अहंकार मुक्त कर्मको ही निबृत्ति परक कर्म कहते हैं जो ब्रह्म से एकत्व स्थापित कराता है और आसक्ति -अहंकारसे युक्त कर्म को प्रबृत्ति परक कर्म कहते हैं जो नर्कके द्वार तक ले जाता है।
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