Thursday, May 29, 2014
भागवत से - 11
Sunday, May 18, 2014
भागवत से - 10
1- भागवत : 11.3 > दुःख निबृत्ति और अहंकार की तृप्ति केलिए हम कर्म करते हैं पर होता क्या है ? दुःख और। बढ़ता जाता है और अहंकार और सघन होता जाता है ।
2- भागवत : 11.21 > वेद कर्म ,उपासना और ज्ञान माध्यम से ब्रह्म -आत्मा की एकता की अनुभूति कराते हैं ।
3- भागवत : 11.21.> कामना दुःख का बीज है । 4- भागवत :11.21 > निर्वाण के तीन मार्ग हैं -कर्म योग , भक्ति योग और ज्ञान योग ।
5- भागवत : 11.21 > वेदों में तीन काण्ड हैं जो अपनें - अपनें ढंग से ब्रह्म -आत्मा की एकता को स्पष्ट करते हैं ,ये काण्ड हैं - कर्म , उपासना और ज्ञान।
6- भागवत : 11.25 > गुण का प्रभाव स्वभावका निर्माण करता है ,स्वभावतः लोग अलग -अलग प्रकार के होते हैं ।
7- भागवत : 11.25 > मनुष्य शरीर दुर्लभ है जिससे तत्त्व ज्ञान एवं विज्ञान की प्राप्ति संभव है । 8- भागवत : 11.25 > इन्द्रियों की दौड़ से परे मन यात्रा नहीं करता ।
9- भागवत : 11.28 > परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप में जो है वह आत्मा ही है ।
10- भागवत : 3.26 > प्रकृति के कार्य : 10 इन्द्रियाँ , 5 भूत , 5 तन्मात्र , मन ,बुद्धि ,अहंकार और चित्त ।
~~~ ॐ ~~~
Saturday, May 17, 2014
भागवत से - 09
1- भागवत : 7.1 > प्रभुसे बैर -भाव रखनें वाला प्रभु से जितना तन्मय हो जाता है उतनी तन्मयता भक्ति से प्राप्त करना अति कठिन है ।
2- भागवत : 1.2 > जीवन का सार है तत्त्व - जिज्ञासा ।
3 - भागवत : 7.11 > मन बिषयों का संग्रहालय है ,बिषयों का उचित ढंग से प्रयोग करनें से वैराग्य मिलता है ।
4- भागवत : 6.1 > वेद आधारित कर्म धर्म है ।
5- भागवत : 7.15 > वैदिक कर्म दो प्रकार के हैं - निबृत्ति परक और प्रबृत्ति परक ; पहला वैरागी बनाता है और दूसरा भोग में आसक्त रखता है ।
6- गीता 18.48- 18.50 + 3.5+ 3.19-3.20 4 23, + 4.18 > कर्मकरनें से नैष्कर्म्य की सिद्धि मिलती है ,बिना कर्म यह संभव नहीं । सभी कर्म दोष युक्त हैं पर सहज कर्म तो करना ही चाहिए । आसक्ति रहित कर्म नैष्कर्म्य की सिद्धि में पहुँचाता है । नैष्कर्म्य की सिद्धि ज्ञान योग की परानिष्ठा है ।
7- भागवत : 8.5 > माया मोहित अपनें मूल स्वभाव से दूर रहता है ।
8- गीता :7.15 > माया मोहित असुर होता है ।
9- माया को भागवतके निम्न सूत्रों नें देखें :--- 9.1- भागवत : 1.7 > माया मोहित प्रभु को भी गुण अधीन समझता है ।
9.2 - भागवत : 2.9 > माया बिना आत्मा का दृश्य पदार्थों से सम्बन्ध संभव नहीं ।
9.3- भागवत : 3.5 > दृश्य - द्रष्टाका अनुसंधान करता माया है ।
9.4 - गीता :14.5 > तीन गुण ( माया ) आत्मा को देह में रोक कर रखते हैं ।
9 .5 - भागवत : 11.3 > भक्त माया का द्रष्टा होता है ।
9.6- भागवत : 6.5 > माया वह दरिया है जो सृष्टि -प्रलय के मध्य दोनों तरफ बहती है ।
9.7- भागवत : 11.3 > सभीं ब्यक्त का अब्यक्त में जाना और अब्यक्त से ब्यक्त होना माया आधारित है । 9.8- भागवत : 11.3 > तत्त्वों की प्रलय में वायु पृथ्वी के गुण गंध को खीच लेता है और गंध हीन पृथ्वी जल में बदल जाती है । जल से उसका गुण रस को वायु लेलेता है और जल अग्नि में बदल जाता है - यह सब माया से संभव है ।
9.9 - भागवत : 9.24 > जीव के जन्म ,जीवन और मृत्यु का कारण प्रभु के मायाका बिलास है ।
10 - भागवत : 9.9 > गंगा पृथ्वी पर उतरनेसे पूर्व बोली , " मैं पृथ्वी पर नहीं उतर सकती क्योंकि लोग अपनें पाप मुझ में धोयेंगे और मैं उन पापों से कैसे निर्मल रह पाउंगी ? भगीरथ बोले ," आप चिंता न
करें ,आपके तट पर ऐसे सिद्ध योगी बसेंगे जिनके स्पर्श मात्र से आप निर्मल हो उठेंगी " ।
11- भागवत : 10.16 > 5 महाभूत , 5 तन्मात्र ,इन्द्रियाँ ,प्राण , मन ,बुद्धि इन सबका केंद्र है चित्त । 12- भगवत : 10.87 > श्रुतियाँ सगुण का ही निरूपण करती हैं और उनके द्वारा ब्यक्त भाव की गहरी सोच निर्गुण में पहुंचाती है ।
13- भागवत : 11.13 > आसन - प्राण वायु पर साधक का नियंत्रण होता है ।
14- भागवत : 11.7 > कल्पके प्रारम्भ में पहले सतयुग में एक वर्ण था -हंस ।
15- भागवत : 11.13 > बिषय बिपत्तियों के घर हैं।
~~ ॐ ~~
Wednesday, May 14, 2014
तत्त्व -प्रलय का विज्ञान
Monday, May 12, 2014
भागवत से - 8
Tuesday, May 6, 2014
भागवत से - 7
1- भागवत : 1.2 > धर्म वह जो प्रभु से जोड़ कर रखे , जिसका सम्बन्ध कामना से न हो । धर्मसे भक्ति ,भक्ति से अनन्य प्रेम , अनन्य प्रेम से वैराग्य , वैराग्य से ज्ञान तथा ज्ञान से प्रभु को तत्त्व को समझनें की उर्जा मिलती है ।
2- भागवत : 11.19 > 28 तत्त्वों ( 11 इन्द्रियाँ , 5 महाभूत ,5 तन्मात्र , 3 गुण ,महतत्त्व ,अहंकार , प्रकृति ,पुरुषका बोध ज्ञान है ।
3- भागवत : 2.1 > भोगी का दिन धन संग्रह में और रात स्त्री प्रसंग में कटती है ।
4- भागवत : 2.1 > आसन नियंत्रण , श्वास नियंत्रण , इन्द्रिय नियंत्रण , आसक्ति का न होना ,क्रोध रहित रहना और मनका प्रभु पर केन्द्रित रहना स्थिर प्रज्ञताके लक्षण हैं ।
5- भागवत : 2.1 > 5 महाभूत , महतत्त्व और प्रकृति इन 7 आवरणों से घिरे ब्रह्मांड शरीर में विराट पुरुष है ।
6- भागवत : 4.8 > मोह असंतोषका बीज है ।
7- भागवत : 4.8 > रेचक , कुम्भज और पूरक से प्राण , इन्द्रियाँ और मन को निर्मल रखा जाता है ।
8- भागवत : 2.2 > अंत समय से पूर्व मन को देश -काल के सम्मोहन से दूर रखनें का अभ्यास होना चाहिए ।
9- भागवत : 2.2 > अनन्य प्रेम परम पदका द्वार है।
10- भागवत : 2.4+3.5 > शब्द से द्रष्टा -दृश्य का बोध होता है ।
11- भागवत : 2.9 > बिना माया दृश्य पदार्थों से आत्माका सम्बन्ध होना संभव नहीं ।
12- भागवत : 2.4 +3.5 > द्रष्टा -दृश्यका अनुसंधान करता माया है ।
13-भागवत : 3.27 > प्रकृति -पुरुषको अलग करना संभव नहीं ।
14- भागवत : 3.28 > प्राण वायु पर जिसका नियंत्रण है वह शुद्ध मन वाला होता है ।
15- भागवत : 3.29 > गुण परिवर्तन मनुष्यके अन्दर भाव परिवर्तनका कारण है ।
~~ ॐ ~~
Saturday, May 3, 2014
भागवतसे - 6
1- भागवत : 1.2 > धर्म वह जो प्रभु से जोड़ कर रखे , जिसका सम्बन्ध कामना से न हो । धतं से भक्ति ,भक्ति से अनन्य प्रेम और अनन्य प्रेम से वैराग्य एवं वैराग्य से ज्ञान तथा ज्ञान से प्रभु को तत्त्व को समझनें की उर्जा मिलती है ।
2- भागवत : 11.19 > 28 तत्त्वों ( 11 इन्द्रियाँ , 5 महाभूत ,5 तन्मात्र , 3 गुण ,महतत्त्व ,अहंकार , प्रकृति ,पुरुष )का बोध ज्ञान है ।
3- भागवत : 2.1 > भोगी का दिन धन संग्रह में और रात स्त्री प्रसंग में कटती है ।
4- भागवत : 2.1 > आसन नियंत्रण , श्वास नियंत्रण , इन्द्रिय नियंत्रण , आसक्ति का न होना ,क्रोध रहित रहना और मनका प्रभु पर केन्द्रित रहना स्थिर प्रज्ञताके लक्षण हैं ।
5- भागवत : 2.1 > 5 महाभूत , महातत्त्व और प्रकृति इन 7 आवरणों से घिरे ब्रह्मांड शरीर में विराट पुरुष है ।
6- भागवत : 4.8 > मोह असंतोषका बीज है ।
7- भागवत : 4.8 > रेचक , कुम्भज और पूरक से प्राण , इन्द्रियाँ और मन को निर्मल रखा जाता है ।
8- भागवत : 2.2 > अंत समय से पूर्व मन को देश -काल के सम्मोहन से दूर रखनें का अभ्यास होना चाहिए ।
9- भागवत : 2.2 > अनन्य प्रेम परम पदका द्वार है। 10- भागवत : 2.4+3.5 > शब्द से द्रष्टा -दृश्य का बोध होता है ।
11- भागवत : 2.9 > बिना माया दृश्य पदार्थों से आत्माका सम्बन्ध होना संभव नहीं ।
12- भागवत : 2.4 +3.5 > द्रष्टा -दृश्यका अनुसंधान करता माया है ।
13-भागवत : 3.27 > प्रकृति -पुरुषको अलग करना संभव नहीं ।
14- भागवत : 3.28 > प्राण वायु पर जिसका नियंत्रण है वह शुद्ध मन वाला होता है ।
15- भागवत : 3.29 > गुण परिवर्तन मनुष्यके अन्दर भाव परिवर्तनका कारण है ।
~~ ॐ ~~