Wednesday, November 26, 2014

Thursday, November 13, 2014

सम्राट कुरु और उनका क्षेत्र कुरुक्षेत्र

" स तां वीक्ष्य कुरुक्षेत्रे सरस्वत्यां च तत्सखी : । 
पञ्च प्रहृष्ट वदना : प्राह सूक्तं पुरुरवा ।। " 
 ** भावार्थ ** 
" एक दिन सम्राट पुरुरवा कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी - तट पर पांच सखियों के संग विहार कर रही इंद्र के दरबार की अप्सरा उर्बशी से मिले । " 
# अब इस श्लोक को समझिये :---- 
** ब्रह्मा पुत्र अत्रि ,अत्रि पुत्र चन्द्रमा ,चन्द्रमा पुत्र बुध और बुध के पुत्र थे ,पुरुरवा ।
 ** पुरुरवा से इस कल्प का त्रेतायुग प्रारम्भ हुआ था । 
 ** पुरुरवा के कुल में पुरुरवा से आगे 28 वे बंशज थे कुरु । 
<> अब आप भगवत के श्लोक : 9.14.33 को एक बार पुनः देखें और इसे समझनें की कोशिश करें :--- 
1- श्लोक में कुरुक्षेत्र शब्द आया है । 
2- सम्राट कुरु अभीं पैदा भी नहीं हुए हैं पर कुरुक्षेत्र है जबकि सम्राट कुरु कुरुक्षेत्र के स्वामी माने जाते हैं । 
 3- क्या कुरुक्षेत्र सम्राट कुरु से पहले का नाम है ? 
 4- या फिर वर्त्तमान में जो भागवत उपलब्ध है ,उसकी रचना बाद में की गयी है और रचनाकार कुरुक्षेत्र नाम का प्रयोग किया है । 
## कुरुक्षेत्र नाम एक बस्ती को दे कर लोगों नें इतिहास के साथ बेइंसाफी की है । हरियाणा राज्य जब बनाया गया तब इस राज्य का नाम कुरुक्षेत्र रखना चाहिए था और थानेश्वर नाम जो ऐतिहासिक नाम है ,वह तो उस समय भी था जब उस जगह का नाम कुरुक्षेत्र रखा जा रहा था । 
 ## आज थानेश्वर कुरुक्षेत्र नाम के नीचे दब गया और अपना अस्तित्व सिकोड़ ली है और कुरुक्षेत्र जो एक विशाल क्षेत्र था ,जहां से सरस्वती एवं इक्षुमती नदियाँ बहती थी ,वह सिकुड़ कर एक बस्ती में बदल गया । 
~~~ ॐ ~~~

कौन थे राजा कुरु ?

<> कौन थे राजा कुरु  जिनके नाम से कुरुक्षेत्र है ? 
# भगवत : 9.1+ 9.14 - 9.24 तक 497 श्लोक #
 ** सम्राट पुरुरवा के समय त्रेता - युग प्रारम्भ हो गया था । # पुरुरवा कौन थे ?
 * ब्रह्मा पुत्र ऋषि अत्रि और अत्रि के आँखों से चन्द्रमा का जन्म हुआ । चन्द्रमा अंगिरा ऋषि जो ब्रह्मा के पुत्र थे , उनके पुत् र बृहस्पति की पत्नी तारा को चुरा लिया और तारासे बुध का जन्म हुआ । 
* बुध और सातवें मनु श्राद्ध देव जी की पुत्री इला से पुरुरवा का जन्म हुआ । श्राद्धदेव मनु को पहले कोई औलाद न थी । ऋषि वसिष्ठ मित्रावरुण का यज्ञ करायाऔर फलस्वरूप पुत्र न पैदा हो कर पुत्री पैदा हुयी जिसका नाम रखा गया इला । बसिष्ठ जी इला पुत्री को पुत्र में बदल दिया और पुत्रका नाम हुआ सुद्युम्न । सुद्युम्न पुनः शिव श्राप के कारण स्त्री बन गए । वसिष्ठ पुनः शिव आराधना किया और तब से सुद्युम्न कुछ समय पुरुष और कुछ समय स्त्री रूप में रहनें लगे । स्त्री रूप में सुद्युम्न को इला नाम से पुकारते थे । इआ और बुध का प्यार हुआ और पुरुरवा का जन्म हुआ । 
 * इस कल्प के मनु सातवें मनु श्राद्ध देव जी हैं जो पीछले कल्प में द्रविण देश के राजर्षि सत्यब्रत हैं । पुरुरवा इस कल्प के त्रेता युग के प्रारम्भ में थे ।
 <> पुरुरवा बंश में पुरुरवा के बाद कुरु 44 वें बंशज थे । 
## कुरु की बंसावली ## 
<> ब्रह्मा से अत्रि । 
<> अत्रि से चन्द्रमा । 
<> चन्द्रमा से बुध । 
<> बुध से पुरुरवा  ।
# पुरुरवा और उर्बशिसे 6 पुत्र हुए # पुरुरवा पुत्र आयु ,आयु पुत्र नहुष और नहुष के 6 पुत्रों में दुसरे पुत्र थे ययाति । <> ययातिकी दो पत्नियाँ - शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्यराज बृष पर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा थी ।
 <>देवयानिसे यदु हुए जिनके कुलमें कृष्ण काअवतार हुआ । 
## शर्मिष्ठा से पुरु हुए । 
## पुरु कुल ## 
* पूरु के बाद 14 वें हुए दुष्यंत । 
** दुष्यंत और विश्वामित्र कन्या शकुन्तला से भरत हुए । 
** भरत पूरुके बाद15 वें बंसज थे । ** पुरु के बाद 20 वें हुए हस्ति जिन्होनें हस्तिनापुर बसाया । 
** पुरुके बाद 24 वें हुए कुरु जिनके नाम से कुरुक्षेत्र है । 
## कुछ और बातें अगले अंक में ## 
~~ ॐ ~~

विश्वामित्र और परशुराम में क्या सम्बन्ध था ?

<> विश्वामित्र और परशुराम में क्या सम्बन्ध था ? 
# भागवत : 9.14 + 9.15> 90 श्लोक # 
** परशुराम विश्वमित्र की बहन सत्यवती के पौत्र थे ** 
**सत्यवती बादमें कौशिकी नदिबन गयी थी । 
**शमीक मुनि केपुत्र श्रृंगी ऋषि कौशकी नदी में आचमन करके परीक्षित को श्राप दिया था ।
 ## अब आगे :---- 
**ब्रह्मा के पुत्र ऋषि अत्रि थे जिनके आँखों से चन्द्रमा का जन्म हुआ । चन्द्रमा के पुत्र थे बुध । बुध के पुत्र हुए पुरुरवा । 
* पुरुरवा - उर्बशी से 06 पुत्र हुए। पुरुरवा के पांचवें पुत्र विजय के कुल में पुरुरवा से आगे 10 वें हुए गाधि । गाधि के पुत्र थे विश्वामित्र । 
** गाधि की कन्या सत्यवती के पुत्र जमदाग्नि के छोटे पुत्र थे परशुराम । 
** सत्यवती बादमें कौशकी नदी बन गयी थी । 
** कौशकी नदी में शमीक मुनि के पुत्र श्रृंगी ऋषि आचमन करके सम्राट परीक्षित को श्राप दिया था । 
# पुरुरवा के पहले पुत्र आयु के 05 पुत्रोंमें बड़े पुत्र नहुष के बंश में :---
 1- ययाति दूसरे पुत्र थे । 
2- ययाति की दूसरी पत्नी शर्मिष्ठा के पुत्र पुरु के बंश में :-- 
2.1> पुरु के बाद हस्ति 20 वें थे । 
2.2 > पूरुके बाद 24 वाँ थे कुरु ।
 2.3 > पुरु के बाद 25 वाँ थे जय्द्रत । 
2.4 > पुरु के बाद 28 वाँ थे पांचाल ।
 2.5 > पुरु के बाद 32 वाँ थे द्रुपद । 
3- ययाति की पहली पत्नी थी शुक्राचार्य की पुत्री ,  देवयानी , जिससे यदु का जन्म हुआ और इस कुल में कृष्ण - बलराम का अवातार हुआ। 
~~ ॐ ~~

Wednesday, November 12, 2014

बुद्धत्व क्या है

<> प्रकृति जैसी है ठीक वैसे उसका मन -बुद्धि दर्पण पर उतर जाना ,बुद्धत्व है । 
 2- वैज्ञानिक सोच टाइम -स्पेस में सीमित है जहाँ टाइम -स्पेस को एक दूसरे से अलग करना सम्भव नहीं पर सोच की एक ऐसी स्थिति भी आती है जहाँ पल भर के लिय ही सही दोनों (टाइम -स्पेस ) अस्तित्व हीन हो आते हैं और मन -बुद्धि का यह आयाम चेतना कहलाता है जहाँ ध्यान में उतरनें वाला साधक समाधि में सरक जाता है । समाधि का फल है - बुद्धत्व । 
3- समाधि में उतरा ब्यक्ति देश -काल ( स्पेस -टाइम ) से अप्रभावित रहता हुआ उनका द्रष्टा होता है । 
4- समाधि  मन - बुद्धि की उस परम शून्यता का नाम है जहाँ दृष्य तो उस परम के फैलाव स्वरुप होता है पर इस बातका कोई गवाह नहीं होता अर्थात समाधि में उतरा ब्यक्ति उस कालमें ब्रह्म हो गया होता है । 
5- ध्यान जब समाधि में रूपांतरित हो जाता है तब:--- 
<> उस ब्यक्ति का जीवात्मा और ब्रह्म में एकत्व स्थापित हो जाता है  जहाँ वह ब्यक्ति स्वयं out of body होनें की अनुभूति से गुजर रहा होता है । 
## समाधि सोच का बिषय नहीं , इसकी प्राप्ति कई जन्मो की तपस्याओं का फल है ## 
~~~ ॐ ~~~

कुरु और कुरुक्षेत्र भाग - 1

# भागवत के आधार पर # 
** भागवत : 6.16 ** 
1- भागवत :5.16 : जम्बू द्वीप का भूगोल > 
1.1 : जम्बू द्वीप का केंद्र है - इलाबृत वर्ष जिसके उत्तर में क्रमशः रम्यक , हिरण्य वर्ष और उसके उत्तर में कुरु को दिखाया गया है । 
1.2 : इलाबृत वर्ष के दक्षिण में क्रमशः हरिवर्ष , किम्पुरुष और भारत वर्ष हैं । 
1.3 : किम्पुरुष और भारतवर्ष के मध्य है , हिमालय पर्वत । 
1.4 : इलाबृत के मध्यमें है मेरु पर्वत जिसके ऊपर ब्रह्मा की सुवर्ण पुरी है और गंगा वहीँ उतरती हैं । गंगा उतरते ही चार धाराओं में विभक्त हो जाती हैं । उत्तर भद्रा नामसे गंगा कुरु वर्ष से होती हुयी सीधे उत्तरी सागर से मिलती है। गंगा की दक्षिणी धारा को मंदाकिनी कहते हैं जो हरी वर्ष किम्पुरुष वर्ष और हिमायल से होती हुयी भारत वर्ष से सागर में जा मिलती है । इसी प्रकार गंगा की पूर्वी धारा को सीता और पश्चिमी धारा को चक्षु कहते हैं । 
1.5 <> इस प्रकार उत्तर कुरु साइबेरिया का उत्तरी भाग होना चाहिए । 
~~~ ॐ ~~~

Tuesday, November 11, 2014

भागवत से - 29

<> परीक्षितका प्रश्न - 02 <> 
# भागवत : 2.4.5-10 प्रश्न - 2 > प्रभु अपनीं माया से सृष्टि रचना कैसे करते हैं ? [प्रश्न - 15 भी इसी तरह है ; भागवत : 6.4.1-2 में परिक्षित पूछते  हैं ," परमात्मा अपनीं किस शक्तिसे सृष्टि विस्तार करते हैं ?] 
* प्रश्न - 2 का उत्तर :--- > भागवत : 2.4.11-25+2.5+2.6+2.7 , कुल श्लोक = 154 ।
 * यहाँ शुकदेव जी वह सृष्टि रचना बता रहे हैं जिसे ब्रह्मा नारद को बताये थे । 
1- मायासे कालके प्रभाव में महतत्त्व उत्पन्न हुआ। 
2- महतत्त्व से कालके प्रभाव में तीन अहंकार उपजे ।
 2.1: सात्विक अहंकार और काल से मन और इन्द्रियों के अधिष्ठाता 10 देवता उपजे ।
 2.2 > राजस अहंकार और काल से 10 इन्द्रियाँ ,बुद्धि और प्राण उपजे ।
 2.3 > तामस अहंकार और काल से :--- 
# आकाश उपजा , आकाश का तन्मात्र है , शब्द , जिससे दृश्य -द्रष्टाका बोध होता है।
 # आकाश से वायु ,वायुका तन्मात्र है स्पर्श। # वायु से तेज ,तेजका तन्मात्र है रूप । 
# तेज से जल ,जलका तन्मात्र है स्वाद । 
# जल से पृथ्वी , पृथ्वीका तन्मात्र है गंध ।
 <> एक बात स्मृति में रखें <> 
● ब्रह्मा -सृष्टि ज्ञान में महाभूत , आकाश से प्राकृत सृष्टि प्रारम्भ होती है ।प्राकृत सृष्टि अर्थात मूल तत्त्वों की रचना जिन्हें सर्ग कहते हैं ।सर्गों से ब्रह्मा की साकार सृष्टियाँ होती हैं। प्राकृत सृष्टि महा कल्प के प्रारम्भ में होती है और वैकृत सृष्टि पुनः -पुनः हर कल्प में होती रहती है  
 ● महाभूतों से उनके तन्मात्र उपजते हैं ।
 ** ऊपर के सभीं तत्त्वों से एक विराट अंडा बना जो विराट पुरुषका निवास था । 
** विराट पुरुष अर्थात निराकार प्रभुका पहला साकार स्वरुप। 
# परीक्षितका तीसरा प्रश्न अगले अंक में #
 ~~ ॐ ~~

Monday, November 10, 2014

भागवत से - 28 [ परीक्षित का प्रश्न - 1 ]

# भागवत में परीक्षित के प्रश्न भाग - 1 में बताया गया कि परीक्षित श्री शुकदेव जी से 58 प्रश्न पूछते हैं । प्रश्न -3 23 प्रश्नों की माला जैसा है । आज यहाँ हम परीक्षितका पहला प्रश्न देख रहे हैं  । 
<> प्रश्न - 1 : भागवत : 1.19.37 :
 " जिस ब्यक्तिके सर पर मौत मडरा रही हो ,उसे क्या करना चाहिए ? " > उत्तर < भागवत : 2.1- 2.4 तक : 101श्लोक ।परीक्षित के प्रश्न -1के सन्दर्भमें भागवत की पाँच बातोंको हम यहाँ समझनेंका प्रयाश करेंगे ।
 * शुकदेव जी कह रहे हैं :---- 
1- भोगीका दिन धन संग्रहकी हाय - हाय में गुजरता है और रात स्त्री प्रसंग में गुजरती है । 
2- परीक्षित ! अभीं आपके पास 7 दिन हैं ,आप जो चाहें कर सकते हैं । मनुष्यका घडी भरका होश भरा जीवन बेहोशी भरे हजार वर्ष के जीवन से अधिक आनंदमय होता है । 
3- आसन ,श्वास और इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण करना चाहिए । 4- देश - काल के प्रति वैराज्ञ होना चाहिए ।
 5- ॐ का गुंजन आवाज रहित ऐसे करें कि ॐ देहके पोर -पोर नें भरे तथा हृदय में पहुँचता रहे ।
 ** शुकदेव जी परीक्षित को ध्यान का सार देते हैं जिनका सम्बन्ध बिषय ,इन्द्रिय और मन नियन्त्रण से है । शांत मनकी स्थिति में परम ध्वनि रहित ध्वनि एक ओंकारके माध्यम से शरीर के कण -कण को चार्ज करते रहनें से  तन और मन विकारों से प्रभावित नहीं हो पाते और इस विचार शून्यता लकी स्थिति में देह त्याग कर जाते हुए अपनें प्राण का द्रष्टा बन कर परम गति को प्राप्त किया जा सकता है। 
# परीक्षितका दूसरा प्रश्न अगले अंक में # 
~~ ॐ ~~

Friday, November 7, 2014

भागवत से -27


<> भागवत से एक कथा <>
भागवत सन्दर्भ : 7.15 + 11.21
1- भागवत : 7.15 > " नारद - युधिष्ठिर वार्ता : नारद कह रहे हैं ," वैदिक कर्म दो प्रकार के होते हैं - प्रवित्ति परक और निबृत्ति परक ।"
2- भागवत :11.21>" कृष्ण - उद्धव वार्ता : कृष्ण कहरहे हैं ,":वेदों में तीन कांड हैं - कर्म , उपासना और ज्ञान । वेदों के तीन काण्ड अपनें - अपनें ढंगसे ब्रह्म -आत्मा के एकत्व के रहस्य को स्पष्ट करते हैं । "
# ऊपर बतायी गयी भागवत की दो बातों को समझाना ही कर्मयोग और ज्ञान योग के रहस्य से पर्दा उठाना है ,तो आइये ! चलते हैं इस रहस्य -यात्रा में दो -चार कदम ।
# प्रबृत्ति और निबृत्ति परक -दो प्रकार के कर्म हैं ; प्रबृत्ति परक भोग से जोड़कर रखता है और निबृत्ति परक कर्म वह कर्म हैं जनके होनें के पीछे भोग - बंधन तत्त्वों का प्रभाव नहीं रहता ।
# भोग - बंधन तत्त्व क्या हैं ?
* प्रकृति की उर्जा तीन गुणों की उर्जा है और तीन गुण हैं - सात्विक ,राजस और तामस। इन तीन गुणों की बृत्तियाँ भोग उर्जका निर्मान करती हैं । गुण तत्त्वों के सम्मोहन में जो कर्म होता है उसेभोग कर्म या प्रबृत्ति परक कर्म कहते हैं और जिन कर्मों के होनें में गुणों की ऊर्जा नहीं होती ,उन कर्मों को निबृत्ति परक कर्म कहते हैं । निबृत्ति अर्थात प्रभु केन्द्रित गुणातीत और प्रबृत्ति परक अर्थात पूर्ण तूप से भोग केन्द्रित ।
* भोग में भोग - तत्त्वों के प्रति होश बनाना , कर्म योग -साधना है । भोग कर्म जब बिना आसक्ति होते हैं तब उस कर्म से नैष्कर्म्य की सिद्धि मीलती है । नैष्कर्म्य की स्थिति ज्ञान - योगका द्वार है ।
* भोग में आसक्ति ,कामना ,क्रोध , लोभ , मोह ,भय आलस्य और अहंकार को समझना ही कर्म योग की साधना है । भोग कर्म जब योग बन जाता है तब ज्ञान की प्राप्ति होती है ।
* क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध ही ज्ञान है ।
* ज्ञान विज्ञान में पहुँचाता है ।
* जिस सोच से सबको प्रभु के फैलाव रूप में समझा जाता है, उसे विज्ञान कहते हैं ।
~~ ॐ ~~