Thursday, December 1, 2011

उत्तर प्रदेश का सोनभद्र जिला

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल का यह भाग जिसे सोनभद्र नाम से आज जाना जाता है , यहाँ के कोगों की मानसिकता को देखते हुए ऐसा नहीं लगता की अभी हम 21 वीं शताब्दी में हैं / यहाँ जो कुछ भी खराब होता है उसका कारण भगवान होता हा और जो भी अच्छा होता है वह यहाँ के लोगों की अपनी देंन होता है / वाराणसी से लगभग सौ किलो मीटर दूर सों नदी से लगा हुआ सोनभद्र जिले में वे लोग आमंत्रित हैं जो इस देश के भाग्य का ब्लू प्रिंट दिल्ली एवं लखनऊ में बैठ कर बनाते रहते हैं और ऐसे मनोवैज्ञानिक जो हार्वर्ड एवं MIT जैसे संस्थानों में बैठे हुए है एवं ऐसे चिकित्सक जो बड़े - बड़े शहरों में अपना दामन फैलानें एन जुटे हुए हैं / यहाँ के चाहे यूनिवर्सिटी स्तर के शिक्षा प्राप्त लोग हों या गाँव के अनपढ़ लोग , मनोविज्ञान की नज़र में सभीं एक से ही दिखते हैं / यहाँ सभीं चाहे कोई अमीर हो या गरीब सभीं के दिमाक ई सोच एक जैसी होती है / यहाँ ब्रह्म , देवी - देवता , भूत – प्रेतों की ऎसी चर्चा होती रहती है जैसे ये सभीं यहाँ के लोगों के परिवार के संग – संग रहते हों / आज भी इस वैज्ञानिक युग में यहाँ का एक मुख्य शहर Roberts ganj जो जिला मुख्यालय है वहाँ सीवरेज नहीं है , पानी नहीं है , सड़कें न के बराबर हैं और अगर कुछ है तो बिगड़ती हुयी नयी पीढ़ी और तम्बाकू - पान जैसे पदार्थों का बढ़ता हुआ सेवन / यहाँ की स्थिति को देखते हुए यह कहना की भारत चाँद पर पहुँच चुका है ऐसा लगता है जैसे अपनें ही गाल पर तमाचा मारना /

आप यदि राज नेता हैं

आप यदि पत्रकार हैं

आप यदि देश की स्थिति को समझना चाहते हैं

आप यदि परमात्मा को देखना चाहते हों दरिद्र अवतार में

तो

आप यहाँ सादर आमंत्रित हैं


=====ओम्======


Thursday, November 17, 2011

वैशाली की याद

वैशाली

वैशाली , आज का वैशाली पटना से लगभग 50 Km की ऊरी पर स्थित है , वैशाली से बोध गया 160 Km के आस – पास पड़ता है , वैशाली से नालंदा [ मगध की राजधानी ] लगभग 145 Km है और कुशीनगर से पटना कि दूरी लगभग 253 km है / यहाँ यह सब इस लिए दिया जा रहा है क्योंकि उनके लिए जो बुद्ध – महावीर के मार ्ग को अपना मार्ग समझ कर अपनी साधना की यात्रा बनाना चाहते हैं उनके लिए राजागहा [ नालंदा ] , वैशाली , बोध गया , झारखण्ड में हजारीबाग के पास पारसनाथ की पहाडियां जहां 22 तीर्थंकरों नें देह छोडा था , श्रावस्ती जहांतीसरे तीर्थंकर संभवनाथ जीपैदा हुए थे औरबुद्ध यहाँ 24 सालों तक चातुर्मास बिताया था , कूशी नगर , सारनाथ , अयोध्या आदि नगर अति महत्व रखते हैं / वैशाली ही वह प्राचीनतम राज्य है जहां बुद्ध कि छाया सेआम्रपालीअरहंत बनी थी / आम्रपाली एक नगर बधू थी ; नगर बधू का सीधा अर्थ है वेश्या / वैशाली ही वह जगह है जहां बुद्ध का आखिरी उपदेश लोगों को मिला था / चीन के खोजी Faxian [ 4CBCE] एवं Zuanzang [ 7CCE ] यहाँ आये थे / सोलह महाजनपदों में vijji रक प्रमुख महाजनपद होता था जिसका Lacchhavis एक प्रमुख अंग था जिसकी राजधानी थी वैशाली और महाबीर की माँभी lacchhavis थी / वैशाली राज्य को अजातशत्रु [ 491 – 461 BCE ] मगध में मिला लिया था /





Ananda Stupa built by Ashoka at vaishali




Tuesday, November 15, 2011

बुद्ध की आखिरी यात्रा

बुद्ध और महाबीर भाग –02

पटना [ बिहार ] सेवैशाली [ बिहार ] होगा लगभग 50 km जहां बुद्ध अपना आखिरी सरमन दिया और यह वह स्थान भी है जहां महावीर गर्भ से जब बाहर संसार में कदम रखा तब संसार के लोगों को परम शांति का मूक सन्देश दिया था / आप के मन में अनेक सोचें उठ रही होंगी लेकिन जो कुछ ऊपर कहा गया वही सत्य है / वैशाली से कुशीनगर [ उत्तर प्रदेश ] की पैदल यात्रा उस पथ से जिस पगडंडी पथ से बुद्ध किये थे , यदि कोई करनें में सफल हो सके तो उसे बिना खोजे निर्वाण मिलेगा , इस बात की गारंटी मैं देता हूँ / यह पथ समय के चक्र में खो गया कहीं और ताज्जुब होता है यह देख कर की दक्षिण पथ , उत्तर पथ , सिल्क – रूट एवं अन्य अनेक पथों का जिक्र बुद्ध शात्रों में मिलता हा लेकिन वैशाली से कुशीनगर का पथ कहीं भी नहीं दिया गया / बुद्ध 27 साल की उम्र में वैराग्य धारण किया और लगभग 80 वर्ष की उम्र में अपना देह त्यागा और इस बीच संसार में प्यार के माध्यम से ज्ञान – विज्ञान की हवा चलाते रहे और जिस शांति से उनका यह यात्रा हुयी होगी वह परम शांति रही होगी / यदि कोई साधक किसी तरह ध्यान के माध्यम से इस पथ पर चल सके तो वह बुद्ध की ऊर्जा से दूर नहीं रह सकता / लुम्बिनी से राजगहा [ नालंदा ] , नालंदा से बोध गया , बोड गया से सारनाथ , सारनाथ से श्रावस्ती , श्रावस्ती से चितवन और आखिर में वैशाली से कुशीनगर की यात्रा , पैदल यात्रा करनें वाला ध्यानी को बुद्ध की ऊर्जा को पी सकता है / बुद्ध – महाबीर की ऊर्जा को कोई क्या खोजेगा , वह ऊर्जा आज भी है लेकिन किसके पास इतनी सोच है कि वह उस ऊर्जा - क्षेत्र में ध्यान में उतरे /


======ओम्======


Monday, November 14, 2011

बुद्ध महाबीर


बुद्ध और महाबीर


ऋग्वेद से बुद्ध तक के भारत के दर्शन की दिशा को यदि देखा जाए तो ग्रीक के दर्शन कि दिशा एवं भारत के ऋषियों के दर्शन की दिशा एक ही थी ऐसा कहना गलत न होगा / भारत में सांख्य – योग के माध्यम से ऋषियों नें प्रकृति के विज्ञान को देखना प्रारम्भ किया , प्रकृति की क्रिया की गहराई में अनंत की खोज में जुटे रहेऔरपश्चिम में थेल्सऔर उनसे कुछ पूर्व के दार्शनिकों की वैगानिक बातें वहाँ के बिचारकों की बुद्धि की दिशा कुछ ऎसी बदली कि वहाँ सेविज्ञान का जन्म हुआ / इसापूर्व सभ्यता के प्रारम्भ से बुद्ध तक भारात के ऋषियों की सोच विज्ञान का मार्गबना रही थी लेकिन इसके बाद क्या हुआ कि यह मार्ग खंडित हो गया , भारत गुलाम होनें लगा , यहाँ के दार्शनिक गुलामी को भुलानें के लिए भक्ति भाव का सहारा लेनें लगे और वैज्ञानिक सोच की जड ही कट गयी लेकिन पश्चिम में थेल्स , अनाक्सिमंदर , सुकरात , अरिस्तोतिल आदि की सोच एक दिशा में चलती रही जिसके फल स्वरुप विज्ञान की पकड़ वहाँ गहरी होती चली गयी / बुद्ध क्या कहे ? महाबीर क्या कहे ? और सुकरात क्या कहे ? अरिस्तोतिल क्या कहे ? इन सब के बचनों को एक साथ देखें तो यही लगता हा कि ये बचन कई लोगों के नहीं हैं एक के ही हैंलेकिन यहाँ महाबीर – बुद्ध की जड को काट फेका गया और उनको भगवान का दर्जा तो मिला लेकिन भगवान बना कर उनको मार दिया गया / गरुण पुराणमें लिखा है , भगवान जब स्वर्ग – नर्क की रचना की तब नर्क में कई शादियों तक कोई न था और वहाँ का सम्राट यमराज भगवन के पास पहुंचे और बोले , प्रभु ! मझे आप क्यों वहाँ अकेले छोड़ दिया है , मैं क्या गुनाह किया था , मुझे आप अपनें से दूर क्यों किया और क्यों ऎसी अकेले रहनें की सजा दी है ? प्रभु बोले , तुम चिंता न करो , आगे कलियुग आ रहा है , जब मैं बुद्ध के रूप में पैदा होउंगाऔरमुझे माननें वाले सभीं नर्क जायेंगेऔर तेरा नर्क भर जाएगा / अब आप सोचिये , यह क्या है ? भारत में किसी को आरा नहीं जाता , उसे पूज कर लोग मार देते हैं कुछ ऎसी बारीकी से उसे भी पता नहीं चल पाता / बीस – पच्चीस रुपरों में शिव पुराण , गरुण पुराण , विष्णु पुराण जैसी किताबे बाजार में मिलती हैं , आप उन किताबों को पढ़ें , रोना आता है , ऐसे लोग भी होते हैं जो शात्रों में गंध बरनें का काम करते हैं /




============ओम्============


Saturday, November 12, 2011

सरयू का किनारा और अयोध्या

सरयू नदी का यह स्थान क्या-क्या नहीं देखा?

अयोध्या

दिल्ली से 556 Km दूर स्थित प्राचीन कोसल की राजधानी जो कभी साकेत के नाम से जानी जाती थी , सरयू नदी के तट पर बैठे क्या क्या - क्या नहीं देखा , लोग करते रहे और यह देखती रही और जो देखा उनमें से कुछ बातें अप को यहाँ मिलनें वाली हैं / साकेत का अर्थ है वह जो स्वर्ग सा हो ; किसनें स्वर्ग देखा है ? लेकिन अति खूबशूरत अनुभव को स्वर्ग के नाम से ब्यक्त करना ब्यक्त करनें कीआखिरी सीमा को दिखता है / जैन परम्परा में 24 तीर्थंकरों में से 05 की यह जन्म भूमि रही है और प्रथम तीर्थंकर श्री रिषभ नाथ का भी जन्म स्थान अयोध्या ही है अर्थात जैन परम्परा का प्रारम्भ अयोध्या से जुड़ा हुआ है / इतिहास के झरोखे से देखनें पर श्री हरिश्चंद्र [ सत् युग में ] यहाँ के 31 वें सम्राट रहे हैं और चक्रवर्ती सम्राट दशरथ [ त्रेता - युग में ] 63 वें सम्राट थे / भगवान स्वामीनारायण भी यहीं पैदा हुए थे और वे भी सुर्यबंशी क्षत्रिय थे / 6 CBCE से 6 CCE तक यह ब्यापार एवं दर्शन रहस्य का केंद्र रहा है / ईसापूर्व में मौर्य राजाओं से सम्मान प्राप्त हुआ इस नगर को फिर कुषाण [ 126 CE ] सम्राट इसे अपनाया , फिर आया गुप्त राजाओं का समय और उनके समय में भी इसे सर्वोच्च स्थान मिला रहा / गुप बंश के बाद आये हर्षवर्धन जिनका साम्राज्य गुजरात से उडीसा तक एवं कश्मीर से नर्मदा नदी की घाटी तक फैला और ये महायान बुद्ध – परम्परा को माननें वाले थे / धीरे - धीरे समय गुजरा लोग बदले और 1528 में बाबर के राज्य के यहाँ का प्रमुख मंदिर को तोड दिया गया और उस स्थान पर एक मस्जिद को खडा कर दिया गया जिसको लोग बाबरी मस्जिद के नाम से जानते हैं / 1528 से 1991 तक यह मस्जिद आकाश को निहारता रहा लेकिन 464 साल बाद इसे समाप्त कर दिया गया , अब वहाँ न मस्जिद है और न ही कोई मंदिर / अब आगे ------- जब यह मस्जिद बना उस से थीं चार साल बाद श्रो तुलसीदास जी पैदा हुए और 43 साल की उम्र में श्री रामचरितमानस का बालकाण्ड यहीं अयोध्या में लिखा / श्री राम जन्म का रामचरित मानस में बहुत ही आकर्षित वर्णन किया गया है / कहते हैं मुग़ल सम्राट आकाबर से तुलसीदास को सम्मान भी मिला था / क्या तुलसी दस रामलला के जन्म भूमि के स्थान पर मस्जिद बननें की कहानी को नहीं सुना था ? तुलसी दास श्री राम प्रेमी थे उनको गर्भ से रामलला का धरती पर अवतरित होना तो दिखा पर वह स्था न दिखा जहां कौशल्या मां प्रसव - पीड़ा में थी ? क्या कारण रहा होगा कि तुलसी दस रामलला के जन्म स्थान के बारे में रामचरितमानस में कुछ नहीं लिखा ? इन बातों पर आप सोचना लेकिन सकारात्मक रूप में / इसापूर्व सातवीं शताब्दी तक यह नगर बुद्ध मान्यता वालों के अधिकार में रहा क्या वे लोग यहाँ बुद्ध मंदिर नहीं बनवाए होंगे / पांचवीं शताब्दी में चीनी यात्री Faxian लिखते हैं कि यहाँ बहुत सारे बुद्ध मोंस्तेरी थी और फिर Zuangzang 636 AD में जब यहाँ आये तो हिंदू मंदिरों के होने की बात को लिखा है / अब आगे आप देखो और सोचो , मैं अब आप से विदा लेता हूँ //


=====ओम्======


Thursday, November 10, 2011

कंदहार नगर को समझो

कंदहार

आज का अफगानिस्तान का कंदहार द्वापर में एक प्रमुख स्थान तो था ही अशोका तक यह इस विश्व में अपना अलग स्थान रखता रहा है / गंधारी कौरवों की मां गंधार की राजकुमारी थी और सकुनी यहाँ का प्रिंस होता था / दुनियाँ की शायद अति प्राचीन सभ्यता - मेहरगढ़ की सभ्यता जो लगभग 7000 – 5500 BCE की समझी जाती है उसका सीधा सम्बन्ध कंदहार से है / इस सभ्यता की खोजें इस बात के प्रमाण हैं कि यहाँ के लोग दांतों में सुराख़ करके उसमें धातु की कीलें लगते थे , दाँतों को और अधिक खूबशूरत बनानें के लिए और तारकोल [ Bitumen ] का प्रयोग भी यहाँ देखा गया है , यहाँ के लोग तोक्ररियों पर तारकोल लगाया करते थे / गंधहार [ कंदहार ] लगभग 600 BCE से 2CCE तक एक महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है / यह क्षेत्र महाजनपदों में एक महत्वपूर्ण महाजनपद रहा है / मौर्यों के शाशन काल में यह राजधानी रहा है और चंद्रगुप्त मौर्या से अशोका तक यह क्षेत्र अपनी चरम सीमा तक फैला हुआ था / कंदहार बाद में कनिष्क राजाओं की राजधानी रही लगभग 2CCE तक इसके बाद कनिष्क पेशावर को इस क्षेत्र की राजधानी बना दिया , उस समय पेशावर का नाम पुरुषपुर हुआ करता था / कंदहार राज्य के दो शहर पुरुषपुर [ पेशावर ] एवं पुष्कलावती इसापूर्व में विश्व में अपना स्थान रखते थे / इस क्षेत्र का सम्बन्ध संस्कृति के मूर्धन्य विद्वान पाणिनी एवं आर्थिक – राजनितिक महान वैज्ञानिक चाणक्य से रहा है / स्वात एवं दीर [ Dir ] नदियों के संगम पर बसा कंदहार प्राचीनता इतिहास का केंद्र रहा है जहां आज तालिबान का प्रभाव है / पुष्कलावती स्वात एवं काबुल नदियों के संगम पर बसा है जहां काबुल नदी की तीन धाराएं स्पष्ट नज़र आती हैं / कंदहार में एक रहस्य मयी झील का भी नाम आता है जिसका नाम था धनकोष जहां तिब्बत के काग्यू सम्प्रदाय के आदि गुर श्री पद्मसंभव जी अवतरित हुए थे लेकिन यह झील एक रहस्य ही है /

इतिहास की खीडकी से झांकना उत्तम है

लेकिन

झांकते ही रहना उत्तम नहीं

वहाँ से कुछ ज्ञान बटोरो और उस ज्ञान को आनें वाली पीढ़ी को बाटनें का काम करो

क्या पता इन भूले - बिसरे दिनों की यादों में नयी पीढ़ी को कुछ ऎसी चीज मिले जिसकी

इस मनुष्य सभ्यता को आज बहुत जरूरत है //

कुछ और बातें अगले अंक में


========ओम्========


Friday, November 4, 2011

जयद्रत कौन था

भूले-बिसरे दिन

भाग –01

ओम् शांति ओम् में आज से भूले - बिसरे दिन नाम से एक श्रृंखला प्रारम्भ हो रही है जिसके अंतर्गत हम भारत के प्राचीनतम इतिहास में झांकने का प्रयाश करेंगे / आज इस श्रृखला के अंतर्गत महाभारत युद्ध के एक प्रमुख सम्राट जयद्रत को ले रहे हैं //

क्यों जयद्रत महाभारत युद्ध में कौरव का साथ दिया?

इस प्रश्न को समझनें के लिए आप को वर्तमान के उस मानचित्र पर जाना होगा जिसमें पूर्वी इरान , अफगानिस्तान और पाकिस्तान का वह भाग जिसका सम्बन्ध सिंघ नदी की सभ्यता से है /

कौरवों की माँ थी गंधारी जो गंधार की राजपुत्री थी / गंधार वह इलाका है जहां आज तालिबान की गोलियाँ बरस रही / जयद्रतसिंध , सब्बिरा एवं सीवि का सम्राट था / आज का कराची एवं उसके आस पास का क्षेत्र एवं बलोचिस्तान का क्षेत्र , सिंध नदी के पूर्व में एवं पश्चिम में जो क्षेत्र आता है वह जयद्रत का राज्य था / कराची से पेशावर तक का क्षेत्र सिंध नदी की सभ्यता का क्षेत्र है / जयद्रत का इस क्षेत्र में मेहरगढ़ सभ्यता मिली है जो तकरीबन 7000 – 5500 BCE की मानी जाती है / इस सभ्यता में दो बाते प्रमुख हैं ; एक तारकोल [ Butimen ] का प्रयोग एवं दूसरा है स्त्री के दाँतों को और अधिक सुंदर बनानें के लिए दाँतों में सुराख करके उनमें धातु की कीलें लगायी जाती थी / शायद दन्त चिकित्सा का इससे और अधिक पुराना कोई और उदाहरण अभी उपलब्ध न हो /

जयद्रत कोई और न था यह गंधार के राज कुमार सकुनी का ही रिश्तेदार था / अगले अंक में कुछ और बातें देखेंगे //

कभीं - कभीं पीठ पीछे घूम कर देखना गलत नहीं यदि उस से आगे की यात्रा सकुशल रहनें की गुंजाइश बनती हो लेकिन बार – बार पीछे देखते रहनें वाला हमेशा पीछे ही रह जाता है //


== ======= ओम् ===========


Monday, October 31, 2011

कर्म योग में अगला कदम

गीता सूत्र –2.59

बिषया : विनिवर्तन्ते

निराहारस्य देहिन :

रसवर्जम् रसः अपि

अस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तते


इस सूत्र को ठीक से समझना जरुरी है क्योंकि ध्यान की बुनियाद यह सूत्र है / इस सूत्र को कुछ इस प्रकार से देखें तो उत्तम होगा -------

निहारास्य बिषया : बिनिवर्तन्ते

रस वर्जम् रसः अपि

अस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तन्ते

शाब्दिक अर्थ

दूर रख कर बिषयों से,हठात

इंद्रिय भोग – रस का त्याग तो संभव है लेकिन भोग-इच्छा तो बनी ही रहेगी पर परम् की अनुभूति

[परम् दृष्ट्वा]से मन के अन्द्दर भोग – रस का होना भी समाप्त हो जाता है//

कबीर जी कहते हैं ------

मन न रंगाए

रंगाए योगी कपड़ा

और गीता इस बात को सांख्य – योग के बिषय , इंद्रिय और मन समीकरण के रूप में सूत्र – 2.59 के रूप में ब्यक्त करता है /

GITA says …....

Objects , wisdom – senses , mind , action – senses and attachement – attraction energy all these are interconnected . There are five wisdom senses and each one has its oject .

All objects have an energy of attraction and aversion [ see here Gita – 3.34 ] . An object attracts its wisdom sense through this energy and process of passion [ Bhoga ] starts . Gita says , it is very easy to be away from passion by keeping senses way fron their objects but what about the mind ? , mind will always be thinking about that particular object . Gita further says , physically and mentally it is possible to be interest free from passion and delusion – elements only when one is fully merged in the Supreme One .

बिषयों के स्वभाव का ज्ञान होना ----

ज्ञान इंद्रियों के स्वभाव को पहचानना -----

मन से स्वभाव को समझना ------

ही

ध्यान का लक्ष्य है


=========ओम्=========



Thursday, October 27, 2011

कौन है प्रज्ञावान

गीता सूत्र –258

यदा संहरते च अयम्

कूर्मः अंगानि एव सर्वशः

इन्द्रियाणि इंद्रिय – अर्थेभ्य:

तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता


शाब्दिक अर्थ … .

जब समेत लेता है और यह---

कछुवा अंगों को सदृश एक साथ----

इन् द्रियाँ बिषयों से----

उसकी प्रज्ञ स्थिर होती है//


अब भावार्थ को देखें------

प्रज्ञावान योगी का अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण ऐसे होता है जैसे एक कछुवे का नियंत्रण अपने अंगों पर होता है //

The Yogin established in wisdom has control over his senses similar to a Tortoise – control over its organs .

गीता का श्लोक देखा और बुद्धि स्तर पर उसका अर्थ भी देखा अब आप इस सूत्र को ह्रदय से देखो /

कौन है प्रज्ञावान?

वह जिसके तन,मन एवं बुद्धि में निर्विकार ऊर्जा बह रही होती है तब वह उस काल में प्रज्ञावान होता है/प्रज्ञावान की ऊर्जा सीधे परम आयाम में पहुंचा सकती है यदि वह योगी उस स्थिति को सम्हाल सके तो//


=====ओम्====


Sunday, October 23, 2011

कर्म योग की बुनियादी बात

गीता सूत्र –3.7

: तु इन्द्रियाणि मनसा

नियम्य आरभते अर्जुन

कर्म – इंद्रियै : कर्मयोगम्

असक्त : सः विशिष्यते //

कर्म में कर्म – इंद्रियों को मन से नियोजित करके कर्म की पकड़ से बचे रहना उत्तम होता है,कर्म योग के लिए//

इस सूत्र के पहले सूत्र में गीता कहता है , कर्म – इंद्रियों को भौतिक रूप से बिषयों से दूर रखना मनुष्य को मिथ्याचारी बना सकता है क्योंकि इंद्रियों को बिषयों से दूर रखनें से क्या होगा ? मन तो उन – उन बिषयों पर मनन करता ही रहेगा //

कर्म योग में निम्न बातों पर ध्यान रहना चाहिए :-------

  • बिषयों को समझना चाहिए

  • बिषय – इंद्रिय से सम्बन्ध को समझना चाहिए

  • बिषय – इंद्रिय मिलन से जो प्राप्ति होती है उसे समझना चाहिए

    और

  • यह समझना चाहिए कि अभी जो इंद्रिय सुख मिलनें वाला दिख रहा है

    वह कौन सा सुख होगा?


=====ओम्======


Tuesday, October 18, 2011

मन की गति

गीता सूत्र –2.67

इन्द्रियाणाम् हि चरतां

यत् मनः अनुविधीयते

तदस्य हरन्ति प्रज्ञाम्

वायु:नावं इव अम्भसि//

इंद्रियों में चरता हुआ मन---

प्रज्ञ को भी ऐसे हार लेता है जैसे----

नाव को वायु हार लेता है//

When the mind runs after the roving senses , it carries away the understanding [ Pragya ] .

यहाँ एक तरफ आप एक नदी चल रही उस नाव को देखो जिसको आया तूफान बहा ले जा रहा हो और फिर नदी के रूप में अपनें मन को देखो और यः भी देखो कि जब कोई आप की इंद्रिय अपनें बिषय से सम्मोहित होती है तब वह आप की सोच को किस तरफ से भगाती है ?

मन, बुद्धि, प्रज्ञा एवं चेतना को समझना चाहिए------

चेतना प्रभु की परा प्रकृति है जो जीव धारण करती है और जो प्रभु का आइना है / प्रज्ञा विशुद्ध बुद्धि है जो चेतना के बहुत निकट होती है और जो ऐसा आइना है जिस पर धुधली प्रभु की तस्बीर उभड़ती

है / बुद्धि एक तरफ मन से और दूसरी ओर प्रज्ञा से जुडी होती है / निर्विकार बुद्धि चेतना है और विकारों से परिपूर्ण बुद्धि लगभग मन जैसा ही होती है / प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं , बुद्धिमानों की बुद्धि मैं हूँ और यह भी कहते हैं , इन्द्रियाणाम् मनः अहम्अर्थात इंद्रियों में मन मैं हूँ / मन वह जोड़ है जहां पांच ज्ञान – इन्द्रियाँ एवं पांच कर्म – इन्द्रियाँ मिलाती हैं / इस जोड़ का केन्द्र बुद्धि है , बुद्धि का केंद्र प्रज्ञा है और प्रज्ञा का नाभिकेंद्र चेतना है / चेतना को आत्मा से ऊर्जा मिलती है और आत्मा प्रभु का अंश है /





=========ओम्==========


Friday, October 14, 2011

कुछ गीता के सूत्र

गीता सूत्र –14.7

रजो राग – आत्मकम् विद्धि

तृष्णा संग समुद्भवं /

तत् निबंध्नाति कौन्तेय

कर्म संगेन देहिनम् /

तृष्णा[लोभ]एवं राग प्रकृति के राजस गुण से उत्पन्न होते हैं//

Craving and lust they spring from the passionate natural mode .


गीता सूत्र –2.60

यतत : हि अपि कौन्तेय

पुरुषस्य विपश्चितः /

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि

हरन्ति प्रसभं मन : //

बिषयों से सम्मोहित इन् द्रियाँ मं को भी प्रभावित कर लेती हैं /

Impetuous senses carry off the mind of the person who is controlling his senses physically .


अप के लिए गीता के दो सूत्र यहाँ दिए गए , आप इनको देखें और इनका आप अपना अर्थ लगाएं मैं जो अर्थ समझ सका हूँ वह अप के सामनें है //


गीता के इन दो सूत्रों से आप अपनें में कर्म – योग की बुनियाद डाल सकते हैं//


======ओम्==============




Tuesday, October 11, 2011

मनुष्य को कौन भगा रहा है


मनुष्य में वह कौन सी ऊर्जा है जो उसे चैन से कहीं रुकनें नहीं देती?


गीता कहता है -----


खान , पान , रहन – सहन एवं विचार मनुष्य के अंदर तीन प्रकार की ऊर्जा पैदा कर्ता है ; सात्त्विक , राजसएवंतामस / इन तीन प्रकार की ऊर्जा आपस में मिल कर मनुष्य के अंदर एककर्म ऊर्जाका निर्माण करती हैं जोस्वभावबनाता है , मनुष्य अपनें स्वभाव के आधार पर सोचता है , सोच के आधार पर वह वैसा कर्म करता है और कर्म के फल के रूप में जो उसे मिलता है वह यातो सुख होता है या दुःख / जब मनुष्य सुख का अनुभव करता है तब स्वयं को कर्ता दिखाता है , सीना तान के बाहर बैठता है जिस से आते जाते लोग उसे सलाम कर सकें और जब दुखके अनुभव से जुजर रहा होता है तब छिप के रहना ज्यादा पसंद करता है लेकिन लोग उसे छिपनें कहाँ देते हैं ? वह जो दुखी है वह दुःख का कारण स्वयं को नहीं मानता , वह यही कहता फिरता है कि भाई क्या करें किया तो सब ठीक ही था लेकिन नसीब धोखा दे गयी , प्रभु को मंजूर न था और सुननें वाले सभी उसके हाँ में हाँ मिला कर अपनें - अपनें घर को चले जाते हैं / अभी तक आप जो देखा वह था अँधेरे में बसे हुए ब्यक्ति के जीवन के बारे में और वह जो गीता में बसा हुआ है वह क्या कहता है ? गीता - संन्यासी अपनें खान – पान , रहन – सहन एवं ब्यवहार को देखता रहता है और उनसे उसके अंदर जो ऊर्जा उठती है उसको एवं उसकी चाल पर अपनी दृष्टि रखता है / वह यह समझता है कि वह जो कर रहाहै वह करनें वाला वह नहीं प्रकृति के तीन गुण हैं और ये तीन गुण हमारे रहन – सहन , खान – पान एवं सोच पर निर्भर करते हैं / गीता संन्यासी गुणों की गति पर अपनी दृष्टि जमाये हुए एक दिन स्वयं गुणों का द्रष्टा बन बैठता है और गुणों का द्रष्टा हीब्रह्मकहलाता है //


आप अपनें खान – पान, रहन – सहन, ब्यवहार एवं मन की गति पर अपनें ध्यान को केंद्रित करें और केंद्रित रखनें का अभ्यास करते रहे/ यह अभ्यास – योग आप को गीता के श्री कृष्ण से मिला देगा//




======ओम्===============


Friday, October 7, 2011

जीवन मार्ग एक फकीर का

काशी से कर्बला तक


आदि गुर ु नानक जी साहिबकाशी से कर्बला तककी यात्रा किया औरकर्बला से काबापहुंचे/क्या कारण रहा होगा उनके इस यात्रा का?नानकजी साहिब अब सिख धर्म से जुड़े हुए हैं लेकिन वे सत् गुरु थे जो गर्भ से सत् गुरु थे और सत् गुरुओं का सम्बन्ध सब से होता है न की एक विशेष वर्ग

से/नानकजी साहिब जिस क्षेत्र में अवतरित हुए वह क्षेत्र था सूफियों काऔर उनके अंदर शूफी-ऊर्जा भरी हुयी थी/काशी है शिव नगरी और कर्बला है शूफियों का ऊर्जा क्षेत्रऔर काबा अति प्राचीनं परम ऊर्जा क्षेत्र है जिसका सम्बन्ध मनुष्य के सभ्यता से जुड़ा हुआ है न की एक विशेष पंथ से/जैसे काबा है वैसे जेरूसलम भी है और नानकजी साहिब वहाँ भी गए थे/कर्बला,काबा एवं जेरूसलम का संभंध विश्व की अति प्राचीनतम सभ्यताबेबीलोन – सुमेर से है/

सिद्ध गुरु कहीं जाते नहीं उनको वे ऊर्जा क्षेत्र अपनी तरफ खीचते हैं जिनके लिए वे आये होते हैं/ऐसे स्थान या क्षेत्र जहां प्राचीन काल में सिद्ध योगी रहे हुए होते हैं वहाँ की ऊर्जा वर्तमान में जो उस उर्जा के अनुकूल योगी होते हैं उनको बुलाते हैं क्योंकि वह समयांतर में प्यासे हो चुके होते हैं,उन्हें ऊर्जा चाहिए होती है जिससे वे आगे आनें वाले योगियों की मदद कर सके/

कर्बला से काबा जानें के मार्ग में आता हैअलकूफाजो एक रहस्यात्मकशूफी तीर्थ है/अलकूफा को पश्चिमी खोजी हजारों सालों से खोज रहे हैं लेकिन आज तक कुछ प्राप्ति न हो सकी जबकी उस स्थान का नक्शा भी मिल चूक है/कहते हैं,अल्कूफा में सिद्ध सूफियों की आत्माएं रहती हैंऔर जब कोई फकीर साधना में पक जाता है,आखीरी छोर पर खडा होता है तब उसको वहाँ की आत्माएं अपनी तरफ खीच लेती हैं और उसके इस संसार से सभीं बंधन टूट जाते हैं/वहाँ पहुंचा फकीर तन से तो होता है लेकिन यहाँ के लोग उसे पागल कहते हैं/नानकजी साहिब एक सिद्ध शूफी फकीर थे और आनाही कर्बला से काबा की यात्रा के दौरान अल्कूफा भी गए थे जिसका किसी के पास कोई प्रमाण नहीं है लेकिन जो नानकजी की आत्मा के करीब हैं उनको पता है//


=====ओम्======


Monday, October 3, 2011

गीता जीवन मार्ग अगला चरण

गीता सूत्र2.62 , 2,63

यहाँ गीता कहता है------

मन में चल रहा मनन आसक्ति पैदा करता है , आसक्ति से कामना उठती है और कामना टूटने पर क्रोध की ज्वाला फैलती है जो क्रोधी को भष्म कर देती है //

गीता के इस सत्य बचन में क्या समझना है चाहे आप हिंदी में समझें या अंग्रेजी में कोई फर्क नहीं पड़ता / गीता के इस बचन में क्या कोई संदेह की गुंजाइश दिख रही है ? ज्ञानेन्द्रियों का स्वभाव है अपने - अपने बिषयों को तलाशना और उनमें रमना / बिषयों में छिपे राग – द्वेष इंद्रियों को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं और ज्योही कोई ज्ञानेन्द्रिय अपने बिषय पर रुकती है , मन में उस बिषय के रती मनन प्रारम्भ हो जाता है , मन किसी न किसी तरह उस बिषय के भोग की ब्यवस्था के बारे में सोचनें लगता है / मन में उठी सोच ही कामना है / कामना और क्रोध दोनों राजस गुण के तत्त्व हैं / कामना जब टूटती सी दिखाती है तब कामना की ऊर्जा क्रोध में बदल जाती है और इस बदलाव में अहंकार का पूरा समर्थन होता है // जब आप को क्रोध उठे तो देखना किसी और को नहीं स्वयं को / क्रोध की साधना सीधे ह्रदय परिवर्तन करती है लेकिन है कठिन क्योंकि क्रोध की अवाधि बहुत ही छोटी होती है /


====ओम=============


Wednesday, September 28, 2011

अहंकार के अनेक रंग

क्रोध का रंग कैसा होता होगा,क्या कभीं आप इस बिषय पर सोचा है,यदि नहीं तो चलो अब सोचते हैं?गीता कहता है,मनुष्य वह है जिसकी रचना अपरा,परा प्र कृतियों एवं आत्मा के फ्यूजन से होती है/अपरा प्रकृति के आठ तत्त्वों में एक तत्त्व हैअहंकारजो अज है,जो कभीं समाप्त नहीं होता और जो सात्विक,राजस एवं तामस गुणों के तत्त्वों के साथ चिपका रहता है/आप यदि हिंदू हैं तो अपनें शास्त्रों को देखना,ध्यान से देखना जहां आप को अहंकार के एक नहीं अनेक रंग दिखेंगे/आप महाभारत एवं कृष्णा सिरिअल देखा होगा जहां अहंकार के तरह – तरह के रंगों में नमूनें आप को देखनें को मिले होंगे;कोई पहाड़ बना है तो किसी ऋषि के श्राप से,कोई सर्प बना है तो किसी ऋषि के श्राप से,कोई चट्टान बन कर जंगल में किसी पहाड़ के साथ बैठा है तो वह भी किसी ऋषि के श्राप का फल भोग रहा है और कोई पेड़ बना है तो वह भी किसी ऋषि के शाप का फल है/हमारे ऋषि क्यों श्राप देते थे?उनके अंदर इतना क्रोध क्यों था?वे क्यों अपनें नाक पर मक्खी नहीं बैठनें देते थे?आखिर कोई कारण तो होगा ही?

गीता कहता है,काम का रूपांतरण क्रोध है,क्रोध में अहंकार की ऊर्जा बहुत शक्तिशाली हो जाती है और काम राजस गुण का प्रमुख तत्त्व है औरगीता यह भी कहता है,जब कामना टूटती है तब कामना की ऊर्जा क्रोध की ऊर्जा में बदल जाती है और क्रोध की ऊर्जा एक अग्नि है/क्या हमारे ऋषियों में दबी हुई काम ऊर्जा थी जो सघन तप के बाद भी पूर्ण रूप से निर्विकार ऊर्जा में रुपानात्रित न हो सकी और समय-समय पर वह दबी हुयी ऊर्जा अपना क्रोध के रूप में रंग दिखा दिया करती थी/महाभारत में एक प्रसंग आता है,अष्टाबक्रजी के श्राप से कोई ब्यक्ति एक भयानक सर्प के रूप में अवतरित हुआ था जो कंश का मित्र भी था तथा श्री कृष्ण के साथ जब कंस का युद्ध हुआ तो उस युद्ध में वह सर्प कंश का साथ दिया था/अब आप सोचना जरा,क्या अष्टाबक्र जैसा ऋषि कभी श्राप दे सकता है?अष्टा बक्र जी बिदेह जनक को चंद पलों में स्थिर प्रज्ञ योगी बना दिया था और अष्टाबक्र जी कोई साधारण योगी न थे वे निराकार प्रभु के साकार रूप थे/गीता कहता है,ऋषि वह है जो हर पल समभाव में रहता हो,जो तीन गुणों के तत्त्वों के प्रभाव में न आता हो और जो सम्पूर्ण ब्रहमांड की सभीं सूचनाओं में प्रभु को हर पल देखत हो/क्या इस प्रकार का कोई ऋषि किसी को श्राप दे सकता है?और देगा भी क्यों?श्राप देना प्रभु के प्रसाद रूप में मिली ऊर्जा का गलत प्रयोग है और प्रभु अपनी ऊर्जा के गलत प्रयोग का मूक द्रष्टा क्यों बना रहता है?

-----अगले अंक में हम देखेंगे राजस एवं तामस गुणों के अहंकारों को-----


=====ओम=======


Sunday, September 25, 2011

गीता जीव मार्ग भाग छः

गीता सूत्र –2.62

ध्यायतः विषयान् पुंसः

संग तेषु उपजायते /

संगात् सज्जायते कामः

कामत् क्रोधः अभिजायते //

गीता में प्रभु अर्जुन को बता रहे हैं ---------

मन में इन्द्रिय बिषय की सोच का उठना यह बताता है कि मन – बुद्धि में काम – ऊर्जा का संचार शुरू हो चुका है/काम ऊर्जा राजस गुण की ऊर्जा होती है जो समय एवं परिस्थिति के अनुकूल कामना क्रोध एवं लोभ के रूप में बाहर से दिखती है/


The man dwelling on sense – objects develops attachment for them ; attachment springs up desire , and from the failure of desires anger appears .


गीता यहाँकाम , कामना , क्रोध , लोभ एवं राजस गुणके सम्बन्ध को बता रहा है / गीता सूत्र 3.37 में प्रभु कहते हैं ------

कामः एषः क्रोधः एषः रजोगुण समुद्भवः/

अर्थात

काम – क्रोध राजस गुण के तत्त्व हैं//

मनुष्य के पास मन एक ऐसा माध्यम है जो काम – राम दोनों में प्रवेश दिलाता है और मन का ध्यान काम की समझ से राम में पहुंचा कर स्वयं लुप्त हो जाता है /

गीता सूत्र –8.8 में प्रभु कहते हैं---

मन में जो मुझे बसाता है वह मुझे प्राप्त करता है/मन जबतक भोग तत्त्वों की बस्ती बना रहता है तबतक मनुष्य की यात्रा नर्क की ओर जाती रहती है और जिस घडी मन भोग तत्त्वों से खाली हो जाता है उस मन में प्रभु की धुन गूजनें लगती है//




=============ओम=============


Wednesday, September 21, 2011

गीत जीवन मार्ग भाग पांच


गीता जीवन मार्ग [भाग – 05 ]


गीता सूत्र –2.56


दुखेषु अनुद्विग्र – मना:


सुखेषु विगत स्पृहा:


वीत राग भय क्रोध:


स्थिति धी: मुनि: उच्यते//


वह जिसका मन सुख – दुःख से प्रभावित न होता हो


वह जो राग,भय एवं क्रोध से अछूता रहता हो


वह मुनि स्थिर – प्रज्ञ होता है//


Whose mind remins unperturbed midst of sorrow and pleasure


Who remains untouched by passion , fear , and rage


Such man is called a sage settled in intelligence .




आप – हम कल्पना तो कर ही सकते हैं कि-----


वह ब्यक्ति इस संसार में कैसा दिखता होगा


जो ----


तन – मन से-----


राग,भय एवं क्रोध रहित रहता हो----


और


जो सुख – दुःख के अनु भव से परे रहता हो//


// समभाव – योगी स्थिर – प्रज्ञ योगी होता है //




=====ओम======




Saturday, September 17, 2011

गीता जीवन मार्ग भाग चार

गीता सूत्र –4.10

वीत राग भय क्रोधा:

मत मया माम् उपाश्रिता:

वहव: ज्ञान तपसा

पूता: मत् भावं आगता: //

राग,भय एवं क्रोध विमुक्त ब्यक्ति ज्ञान तप से मेरे भाव को प्राप्त करता है//

My state of being is possible through austerity of wisdom . This ultimate state of purity is possible only when one is out of the attachment of passion , fear and anger .


बोलना आसान , सुनना और आसान लेकिन ----

अपनें अनुभव को बोलना कठिन , और उसे सुनना और भी कठिन //

प्रभु कह रहे हैं-----

राग , भय एवं क्रोध रहित ब्यक्ति ज्ञानी है और मेरे भाव को समझता है //

राग,भय एवं क्रोध रहित कौन हो सकत है?

प्रभु तो भावातीत हैं फिर उनके भाव को समझना क्या है ?

राग एवं क्रोध तो राजस गुण के तत्त्व हैं और भय है तामस गुण का तत्त्व अर्थात …..

प्रभु कह रहे हैं,वह जो राजस एवं तामस गुण से अप्रभावित है वह मेरे भाव को समझता है और साथ यह भी इशारा कर रहे हैं किवह ज्ञानी भी होता है/

प्रभु एवं उनका भाव अब्यक्तातीत है अतः इसे मैं ब्यक्त नहीं कर सकता लेकिन इतना जरुर कहूँगा,वह जो गुणों के सम्मोहन के बाहर हो जाता है,प्रभु एवं उनके भाव को समझता है और उस भाव में वह बस जाता है,उसे और कहीं चैन ही नहीं मिलता//


====ओम=====


Wednesday, September 14, 2011

गीता जीवन मार्ग भाग तीन

गीता सूत्र –15.10


उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुज्जानम् वा गुण – अन्वितम्/

विमूढा: न अनुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञान चक्षुष: //


गीता सूत्र –15.11


यतन्त: योगिनः च एनं पश्यन्ति आत्मनि अवस्थितम्/

यतन्त: अपि अकृत – आत्मानः न एनं पश्यन्ति अचेतसः//


ज्ञानी भोग – भगवान दोनों में होश मय रहता है;उस से जो हो रहा होता है वह उसका द्रष्टा होता है और मृत्यु के समय अपनी मृत्यु का भी द्रष्टा रहता है//अज्ञानी का जीवन – मरण सब कुछ बेहोशी से भरा हुआ होता है//


A man full of awareness understands what is lust and what is the Supreme One whereas a man of ignonance passes a deluded life .


गीता कहता है[गीत7.3 ] …....


हजारों लोग साधना में उतरते हैं , उनमें से कुछ सिद्धि को प्राप्त भी करते हैं लेकिन सिद्धि प्राप्त योगियों में कभी - कभीं कोई एकाध प्रभु को तत्त्व से जान पाता है / वह जो प्रभु को तत्त्वसे जानता है , ज्ञानी होता है / ज्ञान वह है जिस को क्षेत्रज्ञ एवं क्षेत्रका बोध होता है [ गीता 13.3 ] /

क्या है क्षेत्र ? और क्या है क्षेत्रज्ञ ? इसबात को हम आगे चल कर देखेंगे , यहाँ आप को यह सोचना है कीहोश क्या है ? और होश को पाना क्या है ?

इन्द्रियों से बुद्धि तक जो ऊर्जा बह रही होती है जब वह ऊर्जा गुण तत्त्वों के प्रभाव में नहीं आती तब वह ब्यक्ति होश मय कहलाता है और वह योगी होता है जिसके मन – दर्पण पर प्रभु प्रतिबिंबित होता है / होश ध्यान का फल है और ध्यान का अंत होश में होता है /


=====ओम======