Monday, October 31, 2011

कर्म योग में अगला कदम

गीता सूत्र –2.59

बिषया : विनिवर्तन्ते

निराहारस्य देहिन :

रसवर्जम् रसः अपि

अस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तते


इस सूत्र को ठीक से समझना जरुरी है क्योंकि ध्यान की बुनियाद यह सूत्र है / इस सूत्र को कुछ इस प्रकार से देखें तो उत्तम होगा -------

निहारास्य बिषया : बिनिवर्तन्ते

रस वर्जम् रसः अपि

अस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तन्ते

शाब्दिक अर्थ

दूर रख कर बिषयों से,हठात

इंद्रिय भोग – रस का त्याग तो संभव है लेकिन भोग-इच्छा तो बनी ही रहेगी पर परम् की अनुभूति

[परम् दृष्ट्वा]से मन के अन्द्दर भोग – रस का होना भी समाप्त हो जाता है//

कबीर जी कहते हैं ------

मन न रंगाए

रंगाए योगी कपड़ा

और गीता इस बात को सांख्य – योग के बिषय , इंद्रिय और मन समीकरण के रूप में सूत्र – 2.59 के रूप में ब्यक्त करता है /

GITA says …....

Objects , wisdom – senses , mind , action – senses and attachement – attraction energy all these are interconnected . There are five wisdom senses and each one has its oject .

All objects have an energy of attraction and aversion [ see here Gita – 3.34 ] . An object attracts its wisdom sense through this energy and process of passion [ Bhoga ] starts . Gita says , it is very easy to be away from passion by keeping senses way fron their objects but what about the mind ? , mind will always be thinking about that particular object . Gita further says , physically and mentally it is possible to be interest free from passion and delusion – elements only when one is fully merged in the Supreme One .

बिषयों के स्वभाव का ज्ञान होना ----

ज्ञान इंद्रियों के स्वभाव को पहचानना -----

मन से स्वभाव को समझना ------

ही

ध्यान का लक्ष्य है


=========ओम्=========



Thursday, October 27, 2011

कौन है प्रज्ञावान

गीता सूत्र –258

यदा संहरते च अयम्

कूर्मः अंगानि एव सर्वशः

इन्द्रियाणि इंद्रिय – अर्थेभ्य:

तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता


शाब्दिक अर्थ … .

जब समेत लेता है और यह---

कछुवा अंगों को सदृश एक साथ----

इन् द्रियाँ बिषयों से----

उसकी प्रज्ञ स्थिर होती है//


अब भावार्थ को देखें------

प्रज्ञावान योगी का अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण ऐसे होता है जैसे एक कछुवे का नियंत्रण अपने अंगों पर होता है //

The Yogin established in wisdom has control over his senses similar to a Tortoise – control over its organs .

गीता का श्लोक देखा और बुद्धि स्तर पर उसका अर्थ भी देखा अब आप इस सूत्र को ह्रदय से देखो /

कौन है प्रज्ञावान?

वह जिसके तन,मन एवं बुद्धि में निर्विकार ऊर्जा बह रही होती है तब वह उस काल में प्रज्ञावान होता है/प्रज्ञावान की ऊर्जा सीधे परम आयाम में पहुंचा सकती है यदि वह योगी उस स्थिति को सम्हाल सके तो//


=====ओम्====


Sunday, October 23, 2011

कर्म योग की बुनियादी बात

गीता सूत्र –3.7

: तु इन्द्रियाणि मनसा

नियम्य आरभते अर्जुन

कर्म – इंद्रियै : कर्मयोगम्

असक्त : सः विशिष्यते //

कर्म में कर्म – इंद्रियों को मन से नियोजित करके कर्म की पकड़ से बचे रहना उत्तम होता है,कर्म योग के लिए//

इस सूत्र के पहले सूत्र में गीता कहता है , कर्म – इंद्रियों को भौतिक रूप से बिषयों से दूर रखना मनुष्य को मिथ्याचारी बना सकता है क्योंकि इंद्रियों को बिषयों से दूर रखनें से क्या होगा ? मन तो उन – उन बिषयों पर मनन करता ही रहेगा //

कर्म योग में निम्न बातों पर ध्यान रहना चाहिए :-------

  • बिषयों को समझना चाहिए

  • बिषय – इंद्रिय से सम्बन्ध को समझना चाहिए

  • बिषय – इंद्रिय मिलन से जो प्राप्ति होती है उसे समझना चाहिए

    और

  • यह समझना चाहिए कि अभी जो इंद्रिय सुख मिलनें वाला दिख रहा है

    वह कौन सा सुख होगा?


=====ओम्======


Tuesday, October 18, 2011

मन की गति

गीता सूत्र –2.67

इन्द्रियाणाम् हि चरतां

यत् मनः अनुविधीयते

तदस्य हरन्ति प्रज्ञाम्

वायु:नावं इव अम्भसि//

इंद्रियों में चरता हुआ मन---

प्रज्ञ को भी ऐसे हार लेता है जैसे----

नाव को वायु हार लेता है//

When the mind runs after the roving senses , it carries away the understanding [ Pragya ] .

यहाँ एक तरफ आप एक नदी चल रही उस नाव को देखो जिसको आया तूफान बहा ले जा रहा हो और फिर नदी के रूप में अपनें मन को देखो और यः भी देखो कि जब कोई आप की इंद्रिय अपनें बिषय से सम्मोहित होती है तब वह आप की सोच को किस तरफ से भगाती है ?

मन, बुद्धि, प्रज्ञा एवं चेतना को समझना चाहिए------

चेतना प्रभु की परा प्रकृति है जो जीव धारण करती है और जो प्रभु का आइना है / प्रज्ञा विशुद्ध बुद्धि है जो चेतना के बहुत निकट होती है और जो ऐसा आइना है जिस पर धुधली प्रभु की तस्बीर उभड़ती

है / बुद्धि एक तरफ मन से और दूसरी ओर प्रज्ञा से जुडी होती है / निर्विकार बुद्धि चेतना है और विकारों से परिपूर्ण बुद्धि लगभग मन जैसा ही होती है / प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं , बुद्धिमानों की बुद्धि मैं हूँ और यह भी कहते हैं , इन्द्रियाणाम् मनः अहम्अर्थात इंद्रियों में मन मैं हूँ / मन वह जोड़ है जहां पांच ज्ञान – इन्द्रियाँ एवं पांच कर्म – इन्द्रियाँ मिलाती हैं / इस जोड़ का केन्द्र बुद्धि है , बुद्धि का केंद्र प्रज्ञा है और प्रज्ञा का नाभिकेंद्र चेतना है / चेतना को आत्मा से ऊर्जा मिलती है और आत्मा प्रभु का अंश है /





=========ओम्==========


Friday, October 14, 2011

कुछ गीता के सूत्र

गीता सूत्र –14.7

रजो राग – आत्मकम् विद्धि

तृष्णा संग समुद्भवं /

तत् निबंध्नाति कौन्तेय

कर्म संगेन देहिनम् /

तृष्णा[लोभ]एवं राग प्रकृति के राजस गुण से उत्पन्न होते हैं//

Craving and lust they spring from the passionate natural mode .


गीता सूत्र –2.60

यतत : हि अपि कौन्तेय

पुरुषस्य विपश्चितः /

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि

हरन्ति प्रसभं मन : //

बिषयों से सम्मोहित इन् द्रियाँ मं को भी प्रभावित कर लेती हैं /

Impetuous senses carry off the mind of the person who is controlling his senses physically .


अप के लिए गीता के दो सूत्र यहाँ दिए गए , आप इनको देखें और इनका आप अपना अर्थ लगाएं मैं जो अर्थ समझ सका हूँ वह अप के सामनें है //


गीता के इन दो सूत्रों से आप अपनें में कर्म – योग की बुनियाद डाल सकते हैं//


======ओम्==============




Tuesday, October 11, 2011

मनुष्य को कौन भगा रहा है


मनुष्य में वह कौन सी ऊर्जा है जो उसे चैन से कहीं रुकनें नहीं देती?


गीता कहता है -----


खान , पान , रहन – सहन एवं विचार मनुष्य के अंदर तीन प्रकार की ऊर्जा पैदा कर्ता है ; सात्त्विक , राजसएवंतामस / इन तीन प्रकार की ऊर्जा आपस में मिल कर मनुष्य के अंदर एककर्म ऊर्जाका निर्माण करती हैं जोस्वभावबनाता है , मनुष्य अपनें स्वभाव के आधार पर सोचता है , सोच के आधार पर वह वैसा कर्म करता है और कर्म के फल के रूप में जो उसे मिलता है वह यातो सुख होता है या दुःख / जब मनुष्य सुख का अनुभव करता है तब स्वयं को कर्ता दिखाता है , सीना तान के बाहर बैठता है जिस से आते जाते लोग उसे सलाम कर सकें और जब दुखके अनुभव से जुजर रहा होता है तब छिप के रहना ज्यादा पसंद करता है लेकिन लोग उसे छिपनें कहाँ देते हैं ? वह जो दुखी है वह दुःख का कारण स्वयं को नहीं मानता , वह यही कहता फिरता है कि भाई क्या करें किया तो सब ठीक ही था लेकिन नसीब धोखा दे गयी , प्रभु को मंजूर न था और सुननें वाले सभी उसके हाँ में हाँ मिला कर अपनें - अपनें घर को चले जाते हैं / अभी तक आप जो देखा वह था अँधेरे में बसे हुए ब्यक्ति के जीवन के बारे में और वह जो गीता में बसा हुआ है वह क्या कहता है ? गीता - संन्यासी अपनें खान – पान , रहन – सहन एवं ब्यवहार को देखता रहता है और उनसे उसके अंदर जो ऊर्जा उठती है उसको एवं उसकी चाल पर अपनी दृष्टि रखता है / वह यह समझता है कि वह जो कर रहाहै वह करनें वाला वह नहीं प्रकृति के तीन गुण हैं और ये तीन गुण हमारे रहन – सहन , खान – पान एवं सोच पर निर्भर करते हैं / गीता संन्यासी गुणों की गति पर अपनी दृष्टि जमाये हुए एक दिन स्वयं गुणों का द्रष्टा बन बैठता है और गुणों का द्रष्टा हीब्रह्मकहलाता है //


आप अपनें खान – पान, रहन – सहन, ब्यवहार एवं मन की गति पर अपनें ध्यान को केंद्रित करें और केंद्रित रखनें का अभ्यास करते रहे/ यह अभ्यास – योग आप को गीता के श्री कृष्ण से मिला देगा//




======ओम्===============


Friday, October 7, 2011

जीवन मार्ग एक फकीर का

काशी से कर्बला तक


आदि गुर ु नानक जी साहिबकाशी से कर्बला तककी यात्रा किया औरकर्बला से काबापहुंचे/क्या कारण रहा होगा उनके इस यात्रा का?नानकजी साहिब अब सिख धर्म से जुड़े हुए हैं लेकिन वे सत् गुरु थे जो गर्भ से सत् गुरु थे और सत् गुरुओं का सम्बन्ध सब से होता है न की एक विशेष वर्ग

से/नानकजी साहिब जिस क्षेत्र में अवतरित हुए वह क्षेत्र था सूफियों काऔर उनके अंदर शूफी-ऊर्जा भरी हुयी थी/काशी है शिव नगरी और कर्बला है शूफियों का ऊर्जा क्षेत्रऔर काबा अति प्राचीनं परम ऊर्जा क्षेत्र है जिसका सम्बन्ध मनुष्य के सभ्यता से जुड़ा हुआ है न की एक विशेष पंथ से/जैसे काबा है वैसे जेरूसलम भी है और नानकजी साहिब वहाँ भी गए थे/कर्बला,काबा एवं जेरूसलम का संभंध विश्व की अति प्राचीनतम सभ्यताबेबीलोन – सुमेर से है/

सिद्ध गुरु कहीं जाते नहीं उनको वे ऊर्जा क्षेत्र अपनी तरफ खीचते हैं जिनके लिए वे आये होते हैं/ऐसे स्थान या क्षेत्र जहां प्राचीन काल में सिद्ध योगी रहे हुए होते हैं वहाँ की ऊर्जा वर्तमान में जो उस उर्जा के अनुकूल योगी होते हैं उनको बुलाते हैं क्योंकि वह समयांतर में प्यासे हो चुके होते हैं,उन्हें ऊर्जा चाहिए होती है जिससे वे आगे आनें वाले योगियों की मदद कर सके/

कर्बला से काबा जानें के मार्ग में आता हैअलकूफाजो एक रहस्यात्मकशूफी तीर्थ है/अलकूफा को पश्चिमी खोजी हजारों सालों से खोज रहे हैं लेकिन आज तक कुछ प्राप्ति न हो सकी जबकी उस स्थान का नक्शा भी मिल चूक है/कहते हैं,अल्कूफा में सिद्ध सूफियों की आत्माएं रहती हैंऔर जब कोई फकीर साधना में पक जाता है,आखीरी छोर पर खडा होता है तब उसको वहाँ की आत्माएं अपनी तरफ खीच लेती हैं और उसके इस संसार से सभीं बंधन टूट जाते हैं/वहाँ पहुंचा फकीर तन से तो होता है लेकिन यहाँ के लोग उसे पागल कहते हैं/नानकजी साहिब एक सिद्ध शूफी फकीर थे और आनाही कर्बला से काबा की यात्रा के दौरान अल्कूफा भी गए थे जिसका किसी के पास कोई प्रमाण नहीं है लेकिन जो नानकजी की आत्मा के करीब हैं उनको पता है//


=====ओम्======


Monday, October 3, 2011

गीता जीवन मार्ग अगला चरण

गीता सूत्र2.62 , 2,63

यहाँ गीता कहता है------

मन में चल रहा मनन आसक्ति पैदा करता है , आसक्ति से कामना उठती है और कामना टूटने पर क्रोध की ज्वाला फैलती है जो क्रोधी को भष्म कर देती है //

गीता के इस सत्य बचन में क्या समझना है चाहे आप हिंदी में समझें या अंग्रेजी में कोई फर्क नहीं पड़ता / गीता के इस बचन में क्या कोई संदेह की गुंजाइश दिख रही है ? ज्ञानेन्द्रियों का स्वभाव है अपने - अपने बिषयों को तलाशना और उनमें रमना / बिषयों में छिपे राग – द्वेष इंद्रियों को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं और ज्योही कोई ज्ञानेन्द्रिय अपने बिषय पर रुकती है , मन में उस बिषय के रती मनन प्रारम्भ हो जाता है , मन किसी न किसी तरह उस बिषय के भोग की ब्यवस्था के बारे में सोचनें लगता है / मन में उठी सोच ही कामना है / कामना और क्रोध दोनों राजस गुण के तत्त्व हैं / कामना जब टूटती सी दिखाती है तब कामना की ऊर्जा क्रोध में बदल जाती है और इस बदलाव में अहंकार का पूरा समर्थन होता है // जब आप को क्रोध उठे तो देखना किसी और को नहीं स्वयं को / क्रोध की साधना सीधे ह्रदय परिवर्तन करती है लेकिन है कठिन क्योंकि क्रोध की अवाधि बहुत ही छोटी होती है /


====ओम=============