Friday, December 12, 2014

मन रहस्य

https://www.dropbox.com/s/gz0okfbniw2im3s/Presentation%20%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%BE%20%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A3%20%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%20%2812%29.pptx?dl=0

Wednesday, November 26, 2014

Thursday, November 13, 2014

सम्राट कुरु और उनका क्षेत्र कुरुक्षेत्र

" स तां वीक्ष्य कुरुक्षेत्रे सरस्वत्यां च तत्सखी : । 
पञ्च प्रहृष्ट वदना : प्राह सूक्तं पुरुरवा ।। " 
 ** भावार्थ ** 
" एक दिन सम्राट पुरुरवा कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी - तट पर पांच सखियों के संग विहार कर रही इंद्र के दरबार की अप्सरा उर्बशी से मिले । " 
# अब इस श्लोक को समझिये :---- 
** ब्रह्मा पुत्र अत्रि ,अत्रि पुत्र चन्द्रमा ,चन्द्रमा पुत्र बुध और बुध के पुत्र थे ,पुरुरवा ।
 ** पुरुरवा से इस कल्प का त्रेतायुग प्रारम्भ हुआ था । 
 ** पुरुरवा के कुल में पुरुरवा से आगे 28 वे बंशज थे कुरु । 
<> अब आप भगवत के श्लोक : 9.14.33 को एक बार पुनः देखें और इसे समझनें की कोशिश करें :--- 
1- श्लोक में कुरुक्षेत्र शब्द आया है । 
2- सम्राट कुरु अभीं पैदा भी नहीं हुए हैं पर कुरुक्षेत्र है जबकि सम्राट कुरु कुरुक्षेत्र के स्वामी माने जाते हैं । 
 3- क्या कुरुक्षेत्र सम्राट कुरु से पहले का नाम है ? 
 4- या फिर वर्त्तमान में जो भागवत उपलब्ध है ,उसकी रचना बाद में की गयी है और रचनाकार कुरुक्षेत्र नाम का प्रयोग किया है । 
## कुरुक्षेत्र नाम एक बस्ती को दे कर लोगों नें इतिहास के साथ बेइंसाफी की है । हरियाणा राज्य जब बनाया गया तब इस राज्य का नाम कुरुक्षेत्र रखना चाहिए था और थानेश्वर नाम जो ऐतिहासिक नाम है ,वह तो उस समय भी था जब उस जगह का नाम कुरुक्षेत्र रखा जा रहा था । 
 ## आज थानेश्वर कुरुक्षेत्र नाम के नीचे दब गया और अपना अस्तित्व सिकोड़ ली है और कुरुक्षेत्र जो एक विशाल क्षेत्र था ,जहां से सरस्वती एवं इक्षुमती नदियाँ बहती थी ,वह सिकुड़ कर एक बस्ती में बदल गया । 
~~~ ॐ ~~~

कौन थे राजा कुरु ?

<> कौन थे राजा कुरु  जिनके नाम से कुरुक्षेत्र है ? 
# भगवत : 9.1+ 9.14 - 9.24 तक 497 श्लोक #
 ** सम्राट पुरुरवा के समय त्रेता - युग प्रारम्भ हो गया था । # पुरुरवा कौन थे ?
 * ब्रह्मा पुत्र ऋषि अत्रि और अत्रि के आँखों से चन्द्रमा का जन्म हुआ । चन्द्रमा अंगिरा ऋषि जो ब्रह्मा के पुत्र थे , उनके पुत् र बृहस्पति की पत्नी तारा को चुरा लिया और तारासे बुध का जन्म हुआ । 
* बुध और सातवें मनु श्राद्ध देव जी की पुत्री इला से पुरुरवा का जन्म हुआ । श्राद्धदेव मनु को पहले कोई औलाद न थी । ऋषि वसिष्ठ मित्रावरुण का यज्ञ करायाऔर फलस्वरूप पुत्र न पैदा हो कर पुत्री पैदा हुयी जिसका नाम रखा गया इला । बसिष्ठ जी इला पुत्री को पुत्र में बदल दिया और पुत्रका नाम हुआ सुद्युम्न । सुद्युम्न पुनः शिव श्राप के कारण स्त्री बन गए । वसिष्ठ पुनः शिव आराधना किया और तब से सुद्युम्न कुछ समय पुरुष और कुछ समय स्त्री रूप में रहनें लगे । स्त्री रूप में सुद्युम्न को इला नाम से पुकारते थे । इआ और बुध का प्यार हुआ और पुरुरवा का जन्म हुआ । 
 * इस कल्प के मनु सातवें मनु श्राद्ध देव जी हैं जो पीछले कल्प में द्रविण देश के राजर्षि सत्यब्रत हैं । पुरुरवा इस कल्प के त्रेता युग के प्रारम्भ में थे ।
 <> पुरुरवा बंश में पुरुरवा के बाद कुरु 44 वें बंशज थे । 
## कुरु की बंसावली ## 
<> ब्रह्मा से अत्रि । 
<> अत्रि से चन्द्रमा । 
<> चन्द्रमा से बुध । 
<> बुध से पुरुरवा  ।
# पुरुरवा और उर्बशिसे 6 पुत्र हुए # पुरुरवा पुत्र आयु ,आयु पुत्र नहुष और नहुष के 6 पुत्रों में दुसरे पुत्र थे ययाति । <> ययातिकी दो पत्नियाँ - शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्यराज बृष पर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा थी ।
 <>देवयानिसे यदु हुए जिनके कुलमें कृष्ण काअवतार हुआ । 
## शर्मिष्ठा से पुरु हुए । 
## पुरु कुल ## 
* पूरु के बाद 14 वें हुए दुष्यंत । 
** दुष्यंत और विश्वामित्र कन्या शकुन्तला से भरत हुए । 
** भरत पूरुके बाद15 वें बंसज थे । ** पुरु के बाद 20 वें हुए हस्ति जिन्होनें हस्तिनापुर बसाया । 
** पुरुके बाद 24 वें हुए कुरु जिनके नाम से कुरुक्षेत्र है । 
## कुछ और बातें अगले अंक में ## 
~~ ॐ ~~

विश्वामित्र और परशुराम में क्या सम्बन्ध था ?

<> विश्वामित्र और परशुराम में क्या सम्बन्ध था ? 
# भागवत : 9.14 + 9.15> 90 श्लोक # 
** परशुराम विश्वमित्र की बहन सत्यवती के पौत्र थे ** 
**सत्यवती बादमें कौशिकी नदिबन गयी थी । 
**शमीक मुनि केपुत्र श्रृंगी ऋषि कौशकी नदी में आचमन करके परीक्षित को श्राप दिया था ।
 ## अब आगे :---- 
**ब्रह्मा के पुत्र ऋषि अत्रि थे जिनके आँखों से चन्द्रमा का जन्म हुआ । चन्द्रमा के पुत्र थे बुध । बुध के पुत्र हुए पुरुरवा । 
* पुरुरवा - उर्बशी से 06 पुत्र हुए। पुरुरवा के पांचवें पुत्र विजय के कुल में पुरुरवा से आगे 10 वें हुए गाधि । गाधि के पुत्र थे विश्वामित्र । 
** गाधि की कन्या सत्यवती के पुत्र जमदाग्नि के छोटे पुत्र थे परशुराम । 
** सत्यवती बादमें कौशकी नदी बन गयी थी । 
** कौशकी नदी में शमीक मुनि के पुत्र श्रृंगी ऋषि आचमन करके सम्राट परीक्षित को श्राप दिया था । 
# पुरुरवा के पहले पुत्र आयु के 05 पुत्रोंमें बड़े पुत्र नहुष के बंश में :---
 1- ययाति दूसरे पुत्र थे । 
2- ययाति की दूसरी पत्नी शर्मिष्ठा के पुत्र पुरु के बंश में :-- 
2.1> पुरु के बाद हस्ति 20 वें थे । 
2.2 > पूरुके बाद 24 वाँ थे कुरु ।
 2.3 > पुरु के बाद 25 वाँ थे जय्द्रत । 
2.4 > पुरु के बाद 28 वाँ थे पांचाल ।
 2.5 > पुरु के बाद 32 वाँ थे द्रुपद । 
3- ययाति की पहली पत्नी थी शुक्राचार्य की पुत्री ,  देवयानी , जिससे यदु का जन्म हुआ और इस कुल में कृष्ण - बलराम का अवातार हुआ। 
~~ ॐ ~~

Wednesday, November 12, 2014

बुद्धत्व क्या है

<> प्रकृति जैसी है ठीक वैसे उसका मन -बुद्धि दर्पण पर उतर जाना ,बुद्धत्व है । 
 2- वैज्ञानिक सोच टाइम -स्पेस में सीमित है जहाँ टाइम -स्पेस को एक दूसरे से अलग करना सम्भव नहीं पर सोच की एक ऐसी स्थिति भी आती है जहाँ पल भर के लिय ही सही दोनों (टाइम -स्पेस ) अस्तित्व हीन हो आते हैं और मन -बुद्धि का यह आयाम चेतना कहलाता है जहाँ ध्यान में उतरनें वाला साधक समाधि में सरक जाता है । समाधि का फल है - बुद्धत्व । 
3- समाधि में उतरा ब्यक्ति देश -काल ( स्पेस -टाइम ) से अप्रभावित रहता हुआ उनका द्रष्टा होता है । 
4- समाधि  मन - बुद्धि की उस परम शून्यता का नाम है जहाँ दृष्य तो उस परम के फैलाव स्वरुप होता है पर इस बातका कोई गवाह नहीं होता अर्थात समाधि में उतरा ब्यक्ति उस कालमें ब्रह्म हो गया होता है । 
5- ध्यान जब समाधि में रूपांतरित हो जाता है तब:--- 
<> उस ब्यक्ति का जीवात्मा और ब्रह्म में एकत्व स्थापित हो जाता है  जहाँ वह ब्यक्ति स्वयं out of body होनें की अनुभूति से गुजर रहा होता है । 
## समाधि सोच का बिषय नहीं , इसकी प्राप्ति कई जन्मो की तपस्याओं का फल है ## 
~~~ ॐ ~~~

कुरु और कुरुक्षेत्र भाग - 1

# भागवत के आधार पर # 
** भागवत : 6.16 ** 
1- भागवत :5.16 : जम्बू द्वीप का भूगोल > 
1.1 : जम्बू द्वीप का केंद्र है - इलाबृत वर्ष जिसके उत्तर में क्रमशः रम्यक , हिरण्य वर्ष और उसके उत्तर में कुरु को दिखाया गया है । 
1.2 : इलाबृत वर्ष के दक्षिण में क्रमशः हरिवर्ष , किम्पुरुष और भारत वर्ष हैं । 
1.3 : किम्पुरुष और भारतवर्ष के मध्य है , हिमालय पर्वत । 
1.4 : इलाबृत के मध्यमें है मेरु पर्वत जिसके ऊपर ब्रह्मा की सुवर्ण पुरी है और गंगा वहीँ उतरती हैं । गंगा उतरते ही चार धाराओं में विभक्त हो जाती हैं । उत्तर भद्रा नामसे गंगा कुरु वर्ष से होती हुयी सीधे उत्तरी सागर से मिलती है। गंगा की दक्षिणी धारा को मंदाकिनी कहते हैं जो हरी वर्ष किम्पुरुष वर्ष और हिमायल से होती हुयी भारत वर्ष से सागर में जा मिलती है । इसी प्रकार गंगा की पूर्वी धारा को सीता और पश्चिमी धारा को चक्षु कहते हैं । 
1.5 <> इस प्रकार उत्तर कुरु साइबेरिया का उत्तरी भाग होना चाहिए । 
~~~ ॐ ~~~

Tuesday, November 11, 2014

भागवत से - 29

<> परीक्षितका प्रश्न - 02 <> 
# भागवत : 2.4.5-10 प्रश्न - 2 > प्रभु अपनीं माया से सृष्टि रचना कैसे करते हैं ? [प्रश्न - 15 भी इसी तरह है ; भागवत : 6.4.1-2 में परिक्षित पूछते  हैं ," परमात्मा अपनीं किस शक्तिसे सृष्टि विस्तार करते हैं ?] 
* प्रश्न - 2 का उत्तर :--- > भागवत : 2.4.11-25+2.5+2.6+2.7 , कुल श्लोक = 154 ।
 * यहाँ शुकदेव जी वह सृष्टि रचना बता रहे हैं जिसे ब्रह्मा नारद को बताये थे । 
1- मायासे कालके प्रभाव में महतत्त्व उत्पन्न हुआ। 
2- महतत्त्व से कालके प्रभाव में तीन अहंकार उपजे ।
 2.1: सात्विक अहंकार और काल से मन और इन्द्रियों के अधिष्ठाता 10 देवता उपजे ।
 2.2 > राजस अहंकार और काल से 10 इन्द्रियाँ ,बुद्धि और प्राण उपजे ।
 2.3 > तामस अहंकार और काल से :--- 
# आकाश उपजा , आकाश का तन्मात्र है , शब्द , जिससे दृश्य -द्रष्टाका बोध होता है।
 # आकाश से वायु ,वायुका तन्मात्र है स्पर्श। # वायु से तेज ,तेजका तन्मात्र है रूप । 
# तेज से जल ,जलका तन्मात्र है स्वाद । 
# जल से पृथ्वी , पृथ्वीका तन्मात्र है गंध ।
 <> एक बात स्मृति में रखें <> 
● ब्रह्मा -सृष्टि ज्ञान में महाभूत , आकाश से प्राकृत सृष्टि प्रारम्भ होती है ।प्राकृत सृष्टि अर्थात मूल तत्त्वों की रचना जिन्हें सर्ग कहते हैं ।सर्गों से ब्रह्मा की साकार सृष्टियाँ होती हैं। प्राकृत सृष्टि महा कल्प के प्रारम्भ में होती है और वैकृत सृष्टि पुनः -पुनः हर कल्प में होती रहती है  
 ● महाभूतों से उनके तन्मात्र उपजते हैं ।
 ** ऊपर के सभीं तत्त्वों से एक विराट अंडा बना जो विराट पुरुषका निवास था । 
** विराट पुरुष अर्थात निराकार प्रभुका पहला साकार स्वरुप। 
# परीक्षितका तीसरा प्रश्न अगले अंक में #
 ~~ ॐ ~~

Monday, November 10, 2014

भागवत से - 28 [ परीक्षित का प्रश्न - 1 ]

# भागवत में परीक्षित के प्रश्न भाग - 1 में बताया गया कि परीक्षित श्री शुकदेव जी से 58 प्रश्न पूछते हैं । प्रश्न -3 23 प्रश्नों की माला जैसा है । आज यहाँ हम परीक्षितका पहला प्रश्न देख रहे हैं  । 
<> प्रश्न - 1 : भागवत : 1.19.37 :
 " जिस ब्यक्तिके सर पर मौत मडरा रही हो ,उसे क्या करना चाहिए ? " > उत्तर < भागवत : 2.1- 2.4 तक : 101श्लोक ।परीक्षित के प्रश्न -1के सन्दर्भमें भागवत की पाँच बातोंको हम यहाँ समझनेंका प्रयाश करेंगे ।
 * शुकदेव जी कह रहे हैं :---- 
1- भोगीका दिन धन संग्रहकी हाय - हाय में गुजरता है और रात स्त्री प्रसंग में गुजरती है । 
2- परीक्षित ! अभीं आपके पास 7 दिन हैं ,आप जो चाहें कर सकते हैं । मनुष्यका घडी भरका होश भरा जीवन बेहोशी भरे हजार वर्ष के जीवन से अधिक आनंदमय होता है । 
3- आसन ,श्वास और इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण करना चाहिए । 4- देश - काल के प्रति वैराज्ञ होना चाहिए ।
 5- ॐ का गुंजन आवाज रहित ऐसे करें कि ॐ देहके पोर -पोर नें भरे तथा हृदय में पहुँचता रहे ।
 ** शुकदेव जी परीक्षित को ध्यान का सार देते हैं जिनका सम्बन्ध बिषय ,इन्द्रिय और मन नियन्त्रण से है । शांत मनकी स्थिति में परम ध्वनि रहित ध्वनि एक ओंकारके माध्यम से शरीर के कण -कण को चार्ज करते रहनें से  तन और मन विकारों से प्रभावित नहीं हो पाते और इस विचार शून्यता लकी स्थिति में देह त्याग कर जाते हुए अपनें प्राण का द्रष्टा बन कर परम गति को प्राप्त किया जा सकता है। 
# परीक्षितका दूसरा प्रश्न अगले अंक में # 
~~ ॐ ~~

Friday, November 7, 2014

भागवत से -27


<> भागवत से एक कथा <>
भागवत सन्दर्भ : 7.15 + 11.21
1- भागवत : 7.15 > " नारद - युधिष्ठिर वार्ता : नारद कह रहे हैं ," वैदिक कर्म दो प्रकार के होते हैं - प्रवित्ति परक और निबृत्ति परक ।"
2- भागवत :11.21>" कृष्ण - उद्धव वार्ता : कृष्ण कहरहे हैं ,":वेदों में तीन कांड हैं - कर्म , उपासना और ज्ञान । वेदों के तीन काण्ड अपनें - अपनें ढंगसे ब्रह्म -आत्मा के एकत्व के रहस्य को स्पष्ट करते हैं । "
# ऊपर बतायी गयी भागवत की दो बातों को समझाना ही कर्मयोग और ज्ञान योग के रहस्य से पर्दा उठाना है ,तो आइये ! चलते हैं इस रहस्य -यात्रा में दो -चार कदम ।
# प्रबृत्ति और निबृत्ति परक -दो प्रकार के कर्म हैं ; प्रबृत्ति परक भोग से जोड़कर रखता है और निबृत्ति परक कर्म वह कर्म हैं जनके होनें के पीछे भोग - बंधन तत्त्वों का प्रभाव नहीं रहता ।
# भोग - बंधन तत्त्व क्या हैं ?
* प्रकृति की उर्जा तीन गुणों की उर्जा है और तीन गुण हैं - सात्विक ,राजस और तामस। इन तीन गुणों की बृत्तियाँ भोग उर्जका निर्मान करती हैं । गुण तत्त्वों के सम्मोहन में जो कर्म होता है उसेभोग कर्म या प्रबृत्ति परक कर्म कहते हैं और जिन कर्मों के होनें में गुणों की ऊर्जा नहीं होती ,उन कर्मों को निबृत्ति परक कर्म कहते हैं । निबृत्ति अर्थात प्रभु केन्द्रित गुणातीत और प्रबृत्ति परक अर्थात पूर्ण तूप से भोग केन्द्रित ।
* भोग में भोग - तत्त्वों के प्रति होश बनाना , कर्म योग -साधना है । भोग कर्म जब बिना आसक्ति होते हैं तब उस कर्म से नैष्कर्म्य की सिद्धि मीलती है । नैष्कर्म्य की स्थिति ज्ञान - योगका द्वार है ।
* भोग में आसक्ति ,कामना ,क्रोध , लोभ , मोह ,भय आलस्य और अहंकार को समझना ही कर्म योग की साधना है । भोग कर्म जब योग बन जाता है तब ज्ञान की प्राप्ति होती है ।
* क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध ही ज्ञान है ।
* ज्ञान विज्ञान में पहुँचाता है ।
* जिस सोच से सबको प्रभु के फैलाव रूप में समझा जाता है, उसे विज्ञान कहते हैं ।
~~ ॐ ~~

Friday, October 31, 2014

भागवत से - 26

   ●● श्रीमद्भागवत पुराणकी झलक - 01●● 
°° कुछ मूल बातें °° 
 (क) भागवत को कौन - कौन किसको - किसको और कब - कब सुनाया ? 
 1> द्वापरके अंतमें व्यासजी अपनें आश्रम में भागवत की रचना करनें के ठीक बाद इसे अपने पुत्र शुकदेवजीको सुनाय । व्यास जीका आश्रम नदीके पश्चिमी तट पर साम्याप्राश आश्रमके साथ था । साम्याप्राश वह आश्रम था जहां बेरोंका जंगल हुआ करता था और इस आश्रममें हर समय यज्ञ हुआ करते थे । 
1.1 > 16 वर्ष के थे व्यास पुत्र शुकदेव जी जब परीक्षितको भागवत सुनाया था अर्थात शुकदेव जी रहे होंगे 5-6 सालके जब भागवतकी रचना व्यास जी द्वारा की गयी होगी । 
1.2 कलियुगके प्रारंभ होनें से लगभग 10 साल बाद भागवत की रचना हुयी होगी ।
 2- भागवत कथा प्रभु कृष्ण उद्धवको उस समय सुनाया जब द्वारकाका  अंत होनें वाला था और यदु कुल का लगभग अंत हो चूका था तथा स्वयं स्वधाम जानें ही वाले थे। यह घटना प्रभाष क्षेत्र में पीपल बृक्षके नीचे घटित गयी थी ।
 3- भागवत कथा ब्रह्मा नारदको सुनाये ।
 4-   भागवत कथा सनकादि नारदको आनंद आश्रम गंगा घाट पर भक्ति के ज्ञान - वैराग्य पुत्रों के उद्धारके लिए सुनाये थे । 
5- सूत जी नौमिष आरण्यमें सौनक ऋषि एवं अन्यको उस समय सुनाया जब सौनक आदि ऋषि कलियुगके प्रभाव से मुक्त रहनें केलिए एक हजार वर्ष चलनें वाले यज्ञका आयोजन किया
 था । 
6- भागवत कथा शुकदेवजी परीक्षितको सुनाया गंगा तट पर , उनके मौतके ठीक पहले । 2572 श्लोक प्रति दिन के हिसाब से 16 वर्षीय सुखदेव परीक्षित को इतना विशाल पुराण सुनाया था जिससे परीक्षित जो परम गति मिल सके ।
 6.1> भागवतमें 18000 श्लोक हैं जो 12 स्कंधों में विभक्त हैं। 
6.2 > भागवतकी रचना महाभारत के बाद की है । 
7- नारायण सरोवर परम पवित्र सरोवर हैं ।
 7.1-  नारायण सरोवर सिंध नदी और सागर के संगम पर स्थित है।
 8 - विन्दुसर सरोवर सरस्वती नदीके जल का सरोवर था और यह सरीवर तीन तरफ से सरस्वती से घिरा हुआ था ।
 8.1 - यहाँ कर्दम ऋषि 10000 वर्ष  तप किये थे स्वेक्षासे पत्नी प्राप्ति हेतु ।कर्मद ऋषि ब्रह्मा के पुत्र थे और देवहूति से उनका ब्याह हुआ था । देवहुति के पुत्र थे कपिल मुनि जिनको पांचवा अवतार रूप में देखते हैं और जो सांख्य योग के जन्मदाता माने जाते हैं । गीता में कृष्ण कहते हैं : सिद्धों में कपिल मुनि मैं हूँ ।
 :::: ॐ :::::

Monday, October 27, 2014

भागवत से - 25 [ श्रुतियाँ कहती हैं ... ]

● भागवत से - 25 
 <> भागवत : 10.22.29 - 10.22.38 तक + 10.23के 52 श्लोको में सिमटी यह भागवत कथा <>
# देखिये ! यह कितना प्यारा प्रश्न है ? " श्रुतियाँ कहती हैं , जो प्रभुको प्राप्त हो गया ,वह वापिस संसार में नहीं लौटता , आप अपनें इस देव वाणीको सत्य करें । " 
** ब्राह्मण पत्नियाँ प्रभु से मिलनें के बाद उस समय कही बात को कहती हैं जब प्रभु उनको वापिस जानें की बात कहते हैं । आइये ! चलते हैं भागवतके इस प्रसंग में :--- 
* यमुना उस पार वृन्दावन में ( आजके वृन्दावन बस्ती में नहीं उस समयके उस सघन विस्तृत वनमें जहाँ प्रभु गौओंको और बकरियोंको चराया करते थे ) प्रभु ,बलराम और अपनें अन्य साथियोंके संग गृष्म ऋतु में गौओं को चराते -चराते बन में बहुत दूर निकल गए । वहाँ उनके कुछ साथियोंको भूख सतानें लगी और वे बलराम जी को अपनें भूखके सम्बन्ध में बताया । बलराम जी तो चुप रहे पर प्रभु कहते है ," पास में अशोक बन है ।वहाँ मथुराके ब्राह्मण स्वर्ग प्राप्ति हेतु अंगिरस नामक यज्ञ कर रहे हैं । आप सब वहाँ जा कर मेरा और दाऊ जीका नाम लेकर कुछ भोजन ले आयें ।" प्रभुके ग्वाले साथी वहाँ गए पर वेद पाठी कोई सकारात्मक उत्तर नहीं दिए और सभीं ग्वाले वापिस आकर वहाँ की घटनाको प्रभुको सुनया । 
* प्रभु अपनें साथियों को पुनः कहा कि इस बार आप सब ब्राह्मण पत्नियोंके पास जायें और भोजन ले आयें ।
 * ग्वाले वहाँ गए और प्रभुका नाम ले कर भोजन माँगा । ब्राह्मण पत्नियाँ तो कृष्णरस में पहले से डूबी थी और चार प्रकारका भोजन बना कर स्वयं लेकर प्रभु की ओर ग्वालोंके संग चल पड़ी ।उनमें कुछको उनके पतियोंनें रोक भी पर कृष्ण प्यारकी भूखी ब्राह्मण पत्नियोंके ऊपर उनके पतियोंका अवरोध कामयाब न हो सका ।
 * ब्राह्मण पत्नियों को प्रभु धन्यबाद किये और बोले ," अब आप सब वापिस चले जाएँ ।" 
 * ब्राह्मण पत्नियाँ प्रभु के आदेश को सुन कर कहती हैं ," अन्तर्यामी श्यामसुंदर ! श्रुतियाँ कहती हैं कि जो प्रभुको एक बार प्राप्त कर लिया ,वह दुबारा संसार में कदम नहीं रखता ,आप अपनें इस देव वाणी को सत्य करें । " 
 * प्रभु कहते हैं ," आप सब अपना-अपना मन मुझ पर केन्द्रित रखें और तन से अपनें -अपनें परिवार में रहें । "
 ## यह भागवत की एक 62 श्लोकों ( 10.22.29-38 + 10.23 के 52 श्लोकों ) में सिमटी एक कथा ही नहीं है ,यह ध्यान का एक बिषय है । भागवत के वेद पाठी ब्राह्मणोंकी पत्नियों और प्रभुके मिलन सन्दर्भके माध्यमसे स्वयंको कृष्णमय बना सकते
हैं ।
 ** सगुण रूप में आप हैं और निर्गुण रूप में सर्वत्र ब्याप्त कृष्ण
 हैं ; इस सगुण को अपनें मूल निर्गुण से एकत्व स्थापित करनें में आप भागवत के ऊपर ब्यक्त 62 श्लोकोंकी मदद ले सकते हैं । 
# ब्राह्मण पत्नियों की बात बुद्धि आधारित ध्यान का माध्यम बन सकती है और प्रभु की बात भक्ति योग की बुनियाद है , प्रभु कहते हैं मन में मुझे बसाए हुए तन से तुम सब अपनें - अपनें परिवार में रहो यह अभ्यास जब मजबूत हो जाता है तब परा भक्ति की किरण निकलती है । 
~~ हरे कृष्ण ~~

Tuesday, October 14, 2014

भागवतसे - 24 : माया क्या है ?

<> माया क्या है  ?
# बुद्धि स्तर पर माया को समझना संभव तो नहीं लेकिन समझना तो है ही तो आइये चलते हैं उसे समझनें की कोशिश करते हैं जिसका द्रष्टा अनन्य भक्त होता है ।
 # मार्कंडेय ऋषि नारायण से माया देखनें का आग्रह किया था और नारायण उनको माया दिखानें का आश्वासन देकर बदरिकाश्रम चलेगये थे । मार्कडेय ऋषि का आश्रम उस क्षेत्र में हुआ करता था जहां आज मानस सरोवर है । <> गीता - 7.14 <>
 # कृष्ण कहते हैं ," दैवी गुणमयी मेरी माया दुस्तर है पर जो मुझ पर केन्द्रित रहते हैं , वह मायामुक्त होकर संसार से तर जाते हैं । " 
 <> गीता - 7.15 <>
 # माया आश्रित ब्यक्ति आसुरी स्वभाव वाला होता है । 
<> भागवत से <> 
* भागवत स्कन्ध - 11 . 3 * 
> विदेह - जनक राजा निमि और नौ योगिश्वारों के संबाद में तीसरे योगीश्वर अन्तरिक्ष जी माया के सम्बन्ध में जो बातें कहते हैं ,उन्हें हम यहाँ देखते हैं ।
 1- माया अनिर्वचनीय है । उसका निरूपण उसके कार्यों से हो सकता है । माया असीमित प्रभु से प्रभु में वह माध्यम है जिससे प्रभु की रचनाएँ हैं । 
2- पञ्च महाभूतों से निर्मित देह में प्रभु का सभीं के हृदय में बसना माया से संभव होता है । 
2.1 -यहाँ इस सम्वन्ध में गीता - 14.5 को देखना चाहिए जो कहता है ,"देह में जीवात्मा को तीन गुण बाध कर रखते हैं ।
 3- देह में मन आश्रित जीवात्मा को सुख - दुःख के मध्य रहना और संसार में भटकते रहना प्रभु की माया है ।
4- जन्म ,जीवन , मृत्यु का घटित होते रहना माया की ओर इशारा देता है ।
5- प्रलय कालमें ब्यक्तका अब्यक्त की ओर खीचे चले जाना ,प्रभु की माया है । 
6-प्रलय काल में पृथ्वी का जल में बदलना ,जल का अग्नि में बदलना ,माया है । और अग्नि के स्वरुप को अंधकार लेलेता है ,अग्नि वायु में बदल जाती है , आकाश वायु से स्पर्श छीन लेता है , वायु आकाश में लीन हो जाती है , काल आकाश से शब्द छीन लेता है , आकाश तामस अहंकार में बदल जाता है । तामस अहंकार काल में प्रभाव में महतत्त्व में लीन हो आता है , महतत्त्व माया में लीन हो जाता है और माया सनातन है - यह सब माया ही तो है । 
7- भागवत :6.5 . 16
 > माया दोनों तरफ बहनें वाली नदी जैसी है जो सृष्टि - प्रलय के मध्य बहती रहती है । 
8- भागवत : 2.9 
> माया बिना आत्मा का दृश्य पदार्थों से सम्बन्ध संभव नहीं । 
9 - भागवत : 3.5.25 > दृश्य- द्रष्टा का अनुसंधन करता माया है । 
10-भागवत : भक्त माया का द्रष्टा होता है ।
 ~~ ॐ ~~

Sunday, October 12, 2014

परीक्षित के प्रश्न भाग - 1

# परीक्षित के प्रश्न भाग - 1
 ** दो शब्द ** 
<> कौशिकी नदीके तट पर शमीक मुनिके पुत्र श्रृंगी ऋषि सम्राट परीक्षितको श्राप देते हैं कि जा सम्राट ! आज से ठीक सातवें दिन तक्षक सर्पके काटनें से तुम्हारी मौत हो जायेगी ।
 * हस्तिनापुरके पास जहाँ गंगा पूर्व वागिनी हुआ करती थी  वहाँ गंगा के दक्षिणी तट पर उत्तर दिशा में मुह करके कुशके बिछावन पर सम्राट परीक्षित ध्यान माध्यम दे मौत का इन्तजार कर रहे हैं । कुश -बिछावन इस तरह से बीछाया गया है कि कुशका अग्र नुकीला भाग पूर्व दिशा की ओर थे । 
## आज हस्तिनापुर के साथ गंगा पूर्व मुखी नहीं है । गंगा हस्तिनापुर को बहा ले गयी थी और उस समय परीक्षित बंश के नेमी चक्र ( परीक्षित के बाद पाँचवे बंशज ) हस्तिनापुर समाप्त होनें पर प्रयाग के पास कौशाम्बी में अपनी राजधानी बनायी थी । कौशाम्बी बुद्ध का प्रिय स्थान होता था जो एक व्यापारिक केंद्र हुआ करया  था । उस समय प्रयागका स्थान कौशाम्बी की तुलना में छोटा था ।
 * ब्यासके 16 वर्षीय पुत्र श्री शुकदेवजीका आगमन होता है ।शुक देव जी मौनी बाबा थे जो किसी स्थान पर उतनी देर रुकते थे जितनी देर में एक गाय दूही जा सकती है । मौनी बाबा जिस स्थान में जब रुकते थे तब उस घडी वह स्थान तीर्थ बन जाता था । 
* मौनी बाबा 12 स्कन्ध , 335 अध्याय और उनमें स्थित18000 श्लोकों वाले ब्यास जी द्वारा रचित श्रीमद्भागवत पुराण की कथा सुनाते हैं ।
 ## ज़रा सोचना - सात दिनों में 18000 श्लोकों की कथा करना एक। मौन रहनें वाले योगी के लिए कितना कठिन रहा होगा ?
 # जब शुकदेव जी रहे होगे 5-6 सालके या इससे भी कुछ कम उम्रके तब व्यास जी भागवत की रचना करके शुकदेव जी को सुनायास था ।सरस्वती नदी के तट पर शम्याप्रास नामक आश्रमके पास जहाँ बेरका सुन्दर बन हुआ करता था , वहाँ व्यास जीका आश्रम होता था।शम्याप्रास आश्रम सरस्वती के पश्चिमी तट पर होता था अर्थात व्यासजीके आश्रमके पास सरस्वती उत्तर से दक्षिण की दिशा में बहती रही होंगी ।
 ## भागवत में परीक्षित के 58प्रश्न हैं ; प्रश्न - 3 में कुल 23 प्रश्न हैं । 
-- शेष भाग अगले अंक में --- 
~~ ॐ ~~

Sunday, October 5, 2014

भागवत से -23

भागवत से - 23 
*  शन्तनु की पत्नी सत्यवती और पराशर ऋषि से वेदव्यासका जन्म हुआ । वेदव्यास आश्रम शम्याप्रास परम पवित्र आश्रम के पास था जहाँ सरस्वती नदी पश्चिम मुखी थी । आश्रमके पास सुन्दर बेर - बन होता था । शम्याप्रास आश्रम पर हर वक़्त यज्ञ हुआ करते थे ।
 <> यह जगह Haryana में Sirsa और Bhiwani बेल्ट में होना चाहए <> 
* एक समय सुबह -सुबह सरस्वती नदी में स्नान करके वेदव्यास जी कुछ असंतुष्ट मुद्रा में अकेले बैठे थे । उस घड़ी वहाँ नारद का आना हुआ । नारद वेदव्यास से उनकी असंतुष्ट होनें का कारण जानना चाहा ।
* वेदव्यास कहते हैं , नारद ! महाभारत की रचना से मैं वेदों के रहस्य को स्पष्ट कर दिया है पर अब भी मुझे कुछ ऐसा लगता है जैसे कुछ बाकी रह गया हो । मैं यहाँ बैठे इसी बात पर सोच रहा हूँ । 
* नारद कहते हैं , मैं समझता हूँ , आप प्रभु के परम यश का गान नहीं हुआ है और जिस शास्त्र या ज्ञान से प्रभु खुश नहीं होते वह शास्त्र या ज्ञान अधूरा होता है । वह ज्ञान जिसमें भक्ति रस की कमी हो ,मोक्ष का द्वार नहीं खोलता । हे व्यास जी ! अब आप सम्पूर्ण जीवों को बंधन मुक्त करनें के लिए समाधि माध्यम से प्रभु की लीलाओं का वर्णन 
करें । 
 * नारद कहते हैं , आप इस बात को समझें , आप प्रभु के कला अवतार हैं । आप अजन्मा हैं फिरभी जगत - कल्याण हेतु आप जन्म लिया है । 
 * नारद कहते हैं , मनुष्य संसार से वैरागी हो कर ही प्रभु से जुड़ सकता है । तीन गुणों वाली माया से सम्मोहित ब्यक्ति की पीठ प्रभु की ओर होती हैऔर आँखें भोग - वासना में गड़ी रहती हैं । प्रभु की लीलाओं में मन केन्द्रित करके मनुष्य माया मुक्त हो सकता है और मया मुक्त ब्यक्ति प्रभु तुल्य होता है अतः आप प्रभु श्री कृष्ण की लीलाओं का वर्णन करके लोगों के लिए भोग - बंधन मुक्ति का एक सरल मार्ग दिखाएँ । 
* वेद व्यास जी इस बात पर भागवत की रचना की और सबसे पहले अपनें पुत्र शुकदेवजी को सुनाया । उस समय शुकदेव जी की उम्र पांच सल से कम की रही होगी ।* 16 वर्षीय शुकदेव जी परीक्षित को भागवत सुनाया । 
~~~ ॐ ~~~

Tuesday, September 23, 2014

भागवत से - 22

<> भागवतकी बायो टेक्नोलोजी <>
# स्वयाम्भुव मनु से स्त्री - पुरुष संयोग से सृष्टि रचना प्राम्भ हुयी , इनसे पहले स्त्री - पुरुष योग के बिना संतान उत्पन्न होती थी।
# भागवत सन्दर्भ :4.13+9.6+9.13 #
# पहले स्वयंभुव मनुके छठवें बंशज बेन थे। बेनकी जब मृत्यु हुयी तब कोई सम्राट न था जो राज्य को चलाता । ब्राह्मण ( ऋषि ) लोग बेन की दाहिनी भुजका मंथन किया और फल स्वरुप पृथुका जन्म हुआ ।
# पृथु स्वायम्भुव मनुके सातवें बंशजका जन्म एक नर के देह से संभव हुआ ।
<> इक्ष्वाकु के 100 पुत्रों में दुसरे पुत्र थे राजा
निमि । निमिको ऋषि बसिष्ठके कारण देह त्यागना पडा था । निमिको ब्राह्मण लोग ( ऋषि समुदाय ) पुनः ज़िंदा करना चाहा लेकिन राजा निमि निबृत्ति परायण योगी थे जिनको देह से कोई लगाव न था ,वे पुनः देह में वापिस लौटनें से इनकार कर दिये ।
<> फिर राजा निमिके देह का मंथन किया गया और जो नर पैदा हुआ उसका नाम पड़ा मिथिल ,बिदेह और जनक । सीताजीके पिता जनक परम्पराके 21वें जनक थे । भागवत में जनक परम्पराके 51 बिदेहोंका वर्णन मिलता है ।
** आज बायो टेक्नोलोजी में जो हो रहा है , उसका तरीका हो सकता है अलग हो लेकिन ऐसा काम किसी न किसी रूप में पहले भी होता रहा है ।
~~ ॐ ~~

Wednesday, September 3, 2014

भागवत से - 21

<> ऋषभजी इक्ष्वाकु कुलके नहीं थे <> 
● ऋषभ देव को जैन मान्यता में पहले तीर्थंकर के रूप में देखा जाता है और इनको आदिनाथ नाम से भी जाना जाता है । 
 ● ऋषभदेवजको श्रीमद्भागवत -महापुराण में निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है :-- 
* भागवत : 1.3+3.21+3.22+4.8+ 4.12+5.1+5.2+5.3+5.4+5.5+5.6 +5.7+5.8+5.9+5.19 
 ● भागवत: 5.1-5 3 > यहाँ भागवत कहता है ," ब्रह्मा पुत्र स्वायम्भुव मनु (पहले मनु ) के पुत्र प्रियब्रतका ब्याह विश्वकर्माकी पुत्री बर्हिष्मती से हुआ था । प्रियब्रके पुत्र थे आग्निध्र और आग्निध्रके पुत्र थे नाभि इसप्रकार नाभि स्वायम्भुव मनु के प्रपौत्र थे । नाभि और मेरू की पुत्री मेरु देवी से जन्म हुआ , ऋषभ देव । ऋषभ देवको विष्णुका आठवाँअवतार माना जाता है ।
 ** अब देखते हैं इक्ष्वाकु कुल की रचना । 
# भागवत : 9.1-9.6 > ब्रह्मा पुत्र मरिचिसे कश्यप ऋषिका जन्म हुआ । कश्यपसे विवश्वान (सूर्य ) का जन्म हुआ ।विवश्वानसे सूर्य बंशी क्षत्रिय कुल आगे चला ।सूर्य से सातवें मनु श्राद्धदेव पैदा हुए । श्राद्धदेव पहले संतान हीन थे । ऋषि बसिष्ठ मित्र वरुण यज्ञ से पुत्र पैदा करना चाहा लेकिन इला नामकी पुत्री पैदा हुयी । बसिष्ठ पुत्रीको पुत्रमें बदल दिया जिसका नाम रखा गया सुद्युम्न। सुद्युम्न शिव श्रापसे पुनः स्त्री बन गए और उनसे एवं चन्द्रमा पुत्र बुधके योग से पुरुरवाका जन्म हुआ । पुरुरवासे त्रेता युग प्रारम्भ हुआ और चन्द्र बंशी क्षत्रियोंका कुल आगे चला ।बाद में , शिव आराधना से बसिष्ठ इला स्त्री को पुरुष में बदल तो दिया लेकिन वह कुछ समय स्त्री हुआ करते थे और कुछ समय पुरुष । सुद्युम्न अपनें इस जीवन से दुखी होकर पुरुरवा को राज्य देकर तप करनें हेतु बन में चले गए ।
 ** उधर सूर्य बंशी श्राद्धदेव मनु यमुना तट पर 100 वर्ष तक तप किया और 10 पुत्र प्राप्त किये । श्राद्धदेव मनुके दश पुत्रों में इक्ष्वाकु सबसे बड़े थे ।यहाँ से इक्ष्वाकु कुल प्रारम्भ होता है ।
 ** इक्ष्वाकु कुल (Ikshwaku dynasty ) में श्री राम का जन्म हुआ और पुरुरवा कुल या चन्द्र बंश में चंद्रबंशी क्षत्रिय रूप में कृष्ण का जन्म हुआ । 
<> ऋषभदेव न तो इक्ष्वाकु कुल में थे न चन्द्र कुल में ,इनका कुल इन दोनों कुलों से बहुत पहले प्रारम्भ हो चुका था । इक्ष्वाकु सातवें मनुके पुत्र थे और स्वायम्भुव मनु तो पहले मनु थे उनके प्रपौत्र के पुत्र थे ऋषभ देव जी (स्वायम्भुव मनु के बाद चौथे बंशज ) ।
 <> भागवत : 3.11> 
 1- एक कल्प में 14 मनु होते हैं । 
2- एक मनुका समय = 71.6/14 ( चार योगों का समय ) = (1000×4,320,000) ÷14 वर्ष होता है अर्थात 304,571,428.57142 वर्ष अर्थात लगभग 0.304 billion years. 
# अब आप समझें कि :---
 ऋषभ देव पहले मनुके प्रपौत्रके पुत्र थे और इक्ष्वाकु सातवें मनुके पुत्र थे ऐसी स्थिति में दोनों के समय में कितनी दूरी है ? लगभग 1.824 billion years .
 * ऋषभ देव इक्ष्वाकु से लगभग 1.8 billion वर्ष पहले थे । ** ॐ **

Thursday, August 28, 2014

भागवत से - 20

^^ हमारी श्रुतियाँ प्रभु के संबोधन में नारायण शब्द का प्रयोग करती हैं । नारायण ,ब्रह्म ,प्रभु ,परमात्मा जैसे अनेक नाम हैं जो प्रभु के संबोधन हैं ।प्रभु से प्रभु में ब्रह्माण्ड के दृश्य वर्ग हैं ,और जिसमें वे ब्यक्त से अब्यक्त होते रहते हैं ,यह तो एक परिचय है उस अप्रमेय ,अब्यक्त ,सनातन और निर्गुणका जिसको नारायण संबोधन से भी स्मरण करते हैं ।आइये ! चलते हैं कुछ और कदम श्रुतियों में और देखते हैं नारायण शब्द के भाव को । ● भागवत : 11.3 .34-40 > मिथिला नरेश निमि योगिश्वरों से पूछ रहे हैं ," जिस परब्रह्म परमात्माका नारायण नाम से वर्णन किया जाता है ,उसका स्वरुप क्या है ? इस सम्बन्ध में पांचवें योगीश्वर कहते हैं , °° जो स्वप्न , जाग्रत और सुषुप्ति -मन की तीन अवस्थाओं का द्रष्टा है , जो तुरीय और सामाधि में ज्यों का त्यों एक रस रहता हो , वह पेअभु का नारायण स्वरुप है । ● भागवत : 1.3 .1-5 > सूत जी शौनक ऋषि को बता रहे हैं ," 11 इन्द्रियाँ एवं 05 महाभूत को प्रभु की 16 कलाए कहते हैं ।प्रभु का वह विश्वरूप जिसमें उसकी हजारों कर्म -ज्ञान इन्द्रियाँ ब्रह्माण्ड के हर स्थान में हैं ,जिससे एवं जिसमें ब्रह्माण्ड की सभीं सूचनाएं ब्यक्त हो होकर अब्यत हो रही हैं ,वह अब्यक्त ,अप्रमेय ,सनातन प्रभु का नारायण स्वरुप है। ● गीता : 11.16 > अर्जुन प्रभु से दिव्य नेत्र प्राप्त करके उनके चतुर्भुज रूप को देख कर कहते हैं ," हे सम्पूर्ण विश्व के स्वामी , आपको अनेक भुजा , पेट , मुख , नेत्र तथा सब ओर से अनंत रूपों वाला देखता हूँ । हे प्रभो ! आप का कोई आदि ,मध्य और अंत नहीं दिखता । ● गीता : 11.17 > यह श्लोक गीता श्लोक : 11.16 का क्रमशः है । मैं आप को मुकुट युक्त , गदा तुक्त , चक्र युक्त , सब ओर से प्रकाशवान देखता हूँ ।आप का अप्रमेय अग्नि और सूर्य जैसे तेजवान जिसे कठिनाई से देखा जा रहा है ,उसे देख रहा हूँ । °° यहाँ गीता में प्रभु कृष्ण के अब्यक्त निराकार नारायण स्वरुप का साकार माध्यम से ब्यक्त करनें का प्रयाश किया जा रहा है । ** भागवत : 10.87 में सम्राट ओअरिक्शित शुकदेव जी से पूछते हैं , " श्रुतियाँ सगुण का निरोपण करती हैं फिर श्रुतियां निर्गुण ब्रह्म का प्रतिपादन कैसे करती हैं ? शुखदेव जी कहते हैं ," श्रुतियां सग्यं का निरिपन करते हुए जहाँ पहुँचा कर छोड़ देती हैं वहाँ से सामनें निर्गुण का स्वरुप दिखता है लेकिन वहाँ आँखे खुली होनी चाहिए । ** गीता के नीचे दिए गए दो सूत्रों को एक साथ देखें।प्रभु यहाँ ब्रह्म को ब्यक्त कर रहे हैं । ● गीता : 13.13 > सब ओर हाँथ -पैर वाला , सब ओर नेत्र ,सिर और मुख वाला ,सब ओर कान वाला , और संसारमें सब को ब्याप्त करके स्थिर है --- ● गीता : 13 .14 > वह सम्पूर्ण इन्रिय बिषयों का ज्ञाता है पर इन्द्रिय रहित है । वह अनासक्त है पर सब्कधारण - पोषण कर्ता है । वह निर्गुण कई पर सभीं गुणोंका भोक्ता है । ● ऊपर गीता के चार सूत्र निराकार प्रभु के जिस स्वरुप को ब्यक्त कर रहे हैं श्रुतियाँ उसे नारायण कहती हैं । ~~ ॐ ~~

Monday, July 21, 2014

भागवत से - 19

* भागवत : स्कन्ध - 12
* भागवत में कलियुग की दी गयी झलकका एक अंश आप यहाँ देखें :---
* गृहस्थ और गधे में कोई फर्क न होगा ।
* अन्न के पौधे बावनें आकारके होंगे ।
* राजा लुटेरे होंगे ।
* सर्वत्र लुटेरों का आलम होगा ।
* धनवान कुलीन - सदाचारी माने जायेंगे और वे न्याय ब्यवस्थाको अपनें अनुकूल ढाल लेंगे।
* बोल -चाल में चतुर लोगों को ग्यानी समझा
जाएगा ।
* कहीं अति बृष्टि होगी तो कहीं एक बूँद भी नहीं पड़ेगी।
* बहुत तेज गर्मी पड़ेगी ,बहुत तेज जाड़ा पड़ेगी ।
~ ॐ ~

Tuesday, July 15, 2014

भागवत से - 18

●● कपिल मुनि और विन्दुसर तीर्थ ●● 
** सन्दर्भ : भागवत : 2.7+3.213.25+3.33+4.1+4.19+8.1, गीता - 10.26
**  कर्मद ऋषि ,स्वायम्भुव मनुकी पुत्री देवहुती , पांचवें अवतारके रूपमें कपिल मुनि और विन्दुसर क्षेत्रका गहरा सम्बन्ध है । कर्मद ऋषिकी पत्नी थी देवहूति और कपिल मुनि इनके पुत्र 
थे । विन्दुसर कर्मद जीका आश्रम था । गीता में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं सिद्धानां कपिलः मुनिः अहम् (गीता -10.280) । 
●● कहाँ हैं विन्दुसर ? गुजरात में ( नगवासन , सिधिपुर ,पाटन ) उदयपुर -अहमदाबाद मार्ग पर अहमदाबाद से 130 किलो मीटर दूरी पर विन्दुसर है । सिधिपुरका सन्दर्भ एक तीर्थके रूप में ऋग वेदमें भी है । विन्दुसरका मुकुट थी , सरस्वती नदी जो इसे तीन तरफ से घेरे हुए थी । विन्दुसर में सरस्वतीका पानी भरा रहता था । यहाँ कर्मद ऋषि अपनें ब्याह पूर्व 10000 वर्षका तप किया और नारायणका आशीर्वाद प्राप्त किया था।
 ** यह कथा सत्युगके प्रारम्भकी है और स्वयाम्भुव मनु तक 06 मनवन्तर बीत चुके थे ।कपिल मुनिका अवतार सांख्य दर्शनको फैलानें हेतु हुआ माना जाता है । कपिल की माँ देवहूतिके गर्भसे 09 कन्याओं एवं कपिल जी का जन्म हुआ जिनको पाँचवाँ अवतार माना जाता है । एक दिन देवहूति निर्वाण प्राप्ति हेतु अपनें पुत्र प्रभु कपिलसे इच्छा जाहिर की और कपिल जी इस सन्दर्भमें माँ को जो सांख्यका उपदेश दिया, उसका सार गीता के रो में प्रभु कृष्ण अर्जुन को दिया ।
 °° क्या है सांख्य -योग ? °°
 * हिन्दू परम्परामें न्याय , पूर्व मीमांस , वैशेशिका, योग , वेदान्त और सांख्य ये छ: आस्तिक मार्ग बताये गए हैं ।
 ●● गीताके 700 श्लोकों में प्रभुके 574 श्लोक हैं जिनमेंसे लगभग 100श्लोक सांख्य-योग पर आधारित हैं । गीता में मुख्यरूप से अध्याय 7,8,13,14 और15, में सांख्य -योग के सूत्र दिखाते हैं जहाँ प्रकृति -पुरुषके सअम्बंध में कुछ बातें हैं। गीताका आधार है बिषय , इन्द्रिय और मनको गुण तत्त्वोंके सम्मोहनके सन्दर्भ में समझना और गुण तत्त्वोंसे सम्मोहनके प्रति होश उपजाना। सांख्य एक निर्मल शुद्ध गणित जैसा माध्यम था लेकिन धीरे -धीरे इसे भी लोग जीनें नहीं दिए , इसे भी रूपांतरित किये बिना रुके नहीं । 
<> आत्मा और ब्रह्मका एकत्वकी अनुभूतिके गणित का नाम था सांख्य <> 
● स्वायम्भुव मनु ब्रह्माके आदेश पर अपनी पुत्री एवं पत्नी सतरूपा के संग विन्दुसरकी यात्रा की और कर्मद जी के साथ देवहूति का ब्याह कर दिया ।कर्मद अपनी पत्नी के सुख सुविधा हेतु विमान का आविष्कार किया । विमान बहुमंजली इमारत जैसी एक समुद्रिन्जहाज जैसी थी जिसमें सभीं सुख -सुविधाएं उपलब्ध थी । कर्मद दीर्घ काल तक मेरु की घाटी में भ्रमण करते रहे ।
 ●● कहाँ है मेरु पर्वत ? 
**  जम्बू द्वीप के मध्य में इलाबृत्त वर्ष होता था और उसके मध्य में मेरु मेरीपर्वत । मेरुके दक्षिण में निषध पर्वत , हरी वर्ष ,हेमकूट पर्वत ,किम्पुरुषवर्ष फिर हिमालय पर्वत और उसके दक्षिण में भारत वर्ष ।मेरुके उत्तर में क्रमशः नील पर्वत ,रम्यक वर्ष , श्वेत पर्वत , हिरण्यम देश फिर श्रृंगवान पर्वत और उत्तर कुरु वर्ष होता था ।कर्मद जी मानस सरोवर के क्षेत्र में भ्रमण किया ।
 ● विन्दुसर  तीन तरफ से सरस्वती से घिरा हुआ था और इसमें पानी सरस्वती से आता था । विन्दुसर से पृथुदक और पृथुदक से प्रभास क्षेत्र और प्रभास क्षेत्र के पश्चिम में सरस्वती सागर से मिलती थी । विन्दुसर से पहले सुदर्शन तीर्थ और उसके पहले विशाल तीर्थ पड़ता था । 
 ● स्वयंभुव मनुका राज्य यमुनाका तटीय प्रदेश होता था जहाँ वराह के रूप में ( दूसरा अवतार ) प्रभु पृथ्वी को रसातल से ऊपर लाये थे और इसकी राजधानी थी बहिर्षमति । अपनें अंत समय में स्वयंभुव मनु सुनंदा नदी के तट पर 100वर्ष तक एक पैर पर खड़ा रह कर तप किया था ।स्वयंभुव मनु की कन्याओं का ब्याह नौ ऋषियों से हुआ जो थे - भृगु ,मरीचि,अत्रि ,अंगीरा ,पुलस्त्य , पुलह ,क्रतु ,वसिष्ठ और अथर्वा । कपिलके सांख्यके माध्यमसे देवहूति निर्वाण प्राप्त किया और स्वयंभुव मनु बन में वैराग्य ले लिया और परम धाम की यात्रा किया ।
 ● क्या था कपिलका सांख्य-दर्शन ? ^ प्रभु से प्रभु में तीन गुणों का एक माध्यम है जिससे एवं जिसमें वह स्वयं है और यह ब्यक्त संसार है ।तीन गुणोंका माध्यम ही माया कहलाती है । ^ काल अर्थात समय प्रभुका ही दूसरा नाम है। ^ माया पर कालका प्रभाव तीन अहंकारोंको पैदा करता है । 1- सात्विक अहंकार पर कालका प्रभावके फलस्वरूप मन और 10इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवताओं की उत्पत्ति होती है । 2- राजस अहंकार और काल से बुद्धि , प्राण और 10 इन्द्रियों का जन्म  होता है । 3- तामस अहंकार पर कालके प्रभावसे -- 3.1>तामस अहंकारसे कालके ओरभव में शब्द उपजता है। 3.2>शब्दसे आकाश महाभूतका जन्म होता है। क्योंकि आकाशका गुण है शब्द और शब्द बिषय है। 3.3>आकाशसे स्पर्श तन्मात्र पैदा होता है। 3.4>स्पर्शसे वायु महाभूतका जन्म होता है। 3.5>वायुसे रूप बिषय उपजता है । 3.6>रूप तन्मात्रसे तेज ( अग्नि )महाभूतकी उत्पत्ति होती है। 3.7>तेजसे रस बिषय उपजता है। 3.8> रससे जल महाभूतकी उत्पत्ती होती है। और जलसे गंध बिषय उपजता है। 3.9> गंध पृथ्वीका गुण है अतः गंधसे पृथ्वीकी उत्पत्ति होती है <> कपिल कहते हैं <>
 ** जो है वह सब माया और कालके कारण है। ** यह संसार और संसारकी ब्यक्त सभीं सूचनाएं पांच महाभूतों एवं पांच बिषयोंसे हैं और ----- 
** ये तत्त्व अहंकारके ऊपर पड़ी कालकी गतिसे हैं ।
 ** महत्तत्त्व शुद्ध चित्त है जिसे ब्रह्मके रूपमें अब्यक्त - अप्रमेय के रूप में समझा जा सकता है । 
---- ॐ ----

Tuesday, July 8, 2014

भागवत की कौशिकी नदी

● भागवत की कौशिकी नदी ●
<> कौशिकी नदी <>
^ यहाँ भागवके उन प्रसंगोंको दिया जा रहा है जिनका सीधा सम्बन्ध कौशिकी नदी से है । आप इनको देखें और स्वतः कौशिकी ऐतिहासिक नदी के सम्वन्ध में सोचें ।
^ सन्दर्भ : 9.14+9.15 , 1.18.24-37, 10.78-10 .79 ,
1- भागवत : 9.14+9.15
● कुरुक्षेत्रमें सरस्वतीके तट पर राजा पुरुरवा और उर्बशी का मिलन हुआ । पुरुरवा -उर्बशी को 06 पुत्र हुए जिनमें 5वें पुत्र विजय के बंश में 7वें बंशज गाधि के पुत्र हुए विश्वामित्र और कन्या हुयी सत्यवती ।सत्यवती यमदाग्नि की माँ थी और यमदाग्नि के पुत्र थे परसुराम ।बाद में सत्यवती परम पवित्र कौशिकी नदी बन गयी थी।
2- भागवत :1.18.24-37
●राजा परीक्षित शिकार खेलते हुए बहुत दूर निकल गए और जब वे भूख - प्यास से ब्याकुल होनें लगे तब पासमें स्थित एक आश्रम में प्रवेश कर गए जहाँ समीक मुनि समाधि में उतर चुके थे । वे मुर्तिवर वहाँ थे , आश्रम में सम्राटके स्वागत के लिए कोई न था । परीक्षित आवाजें लगाते रहे लेकिन वहाँ कौन था जो उनका अभिबादन करता ? सम्राटको क्रोध आया और वे बिना सत्य को समझे समीक मुनिके गले में एक मृत सर्प को लटका कर आश्रम से बाहर चले गए ।  ● कुछ दूरी पर समीक मुनि का पुत्र श्रृंगी कौशकी नदी के तट पर ही थे , जब उनको अपनें पिताके अपमानके सम्बन्ध में पता चला तब वे कौशिकी नदीमें आचमन करके सम्राट परीक्षितको श्राप दिया - " सम्राट ! तूँ जा लेकिन ठीक आज से सात दिन बाद तेरी मौत तक्षकके डंक मारनेंसे होगी ।
● ब्राह्मणके श्रापका पता परीक्षितको मिला और परीक्षित गंगा तट पर अपनें मौतकी तैयारीमें जुट
गए ।
3- भागवत :10.78+10.79
● महाभारतके समय बलरामकी तीर्थ - यात्रा ●
# बलराम युद्धके पक्षमें न थे और जब उनको यकीन हो गया कि अब युद्ध को टाला नहीं जा सकता तब वे तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े । प्रभास क्षेत्र से वे उस दिशा में चल पड़े जिधर से सरस्वती आ रही थी । सरस्वती के किनारे - किनारे वे पृथुदक, विन्दुसर, मितकूप, सुदर्शन तीर्थ,विशाल तीर्थ ,ब्रह्म तीर्थ , चक्र तीर्थ , और पूर्ववाहिनी तीर्थों की यात्रा की । इसके बाद यमुना के तट पर स्थिर तीर्थो पर गए और फिर गंगा तट के तीर्थो में पहुँच कर पूजा किया । गंगा तट से वे नैमिष आरण्य गए जहां ऋषियों का सत्संग चल रहा था । नैमिष आरण्य से कौशिकी नदी के तट पर आये और स्नान करके उस सरोवर पर गए जहां से सरयू नदी चलती हैं । सरयू नदी के तट से कुछ यात्रा की फिर तट को छोड़ कर प्रयाग गए ।
~~ यहाँ आप देखें ~~
● सरयू नदी बहराइच नें करनाली नदी एवं महा काली ( शारदा ) नदियों के संगम से प्रारम्भ होती है । करनाली नदी मानसरोवर क्षेत्र से और महाकाली पिथौरागढ़ के कालापानी क्षेत्र से आती है ।
● कुछ लोग मध्य प्रदेश में भिंड क्षेत्र में कौशकी नदी के होनें की बात करते हैं लेकिन भागवत के ऊपर दिए गए सन्दर्भों से…
● यह नदी गोमती और गंगा के मध्य होनी चाहिए ।
--- ॐ ---

Saturday, July 5, 2014

भागवत की तीन नदियाँ

<>भागवत की तीन  नदियाँ <> 
1- पुष्पभद्रा नदी 2- सरस्वती नदी 3- इक्षुमती नदी ।
 1- पुष्पभद्रा नदी सन्दर्भ : भागवत : 12.8.17+12.9.7 * हिमालय के उत्तर में यह नदी हुआ करती थी । इस नदीके तट पर भृगु बंशके ऋषि मृकाण्डा ऋषि के पुत्र मार्कंडेय ऋषि का आश्रम हुआ करता था ।आश्रम के पास चित्रा नाम की एक शिला थी । नदी की घाटी में गणेश जी का सर प्रभु शिव काटे थे और उस जंगलके एक हांथीके सरको काट कर उस हांथीके सरको गणेशके देहके साथ जोड़ा था । 
2- सरस्वती नदी : सन्दर्भ : भागवत : 1.3.10 + 1.7.1-8 +2.7.3 + 3.6.1-2+3.21.6+3.21.33+3.2138 3.24.9-10+4.19.1+9.14.32-35 +10.34 + 11.3.27+11.30.6 *
भागवत 10.34 में कहा गया है - शिव रात्रि के दिन नन्द समुदाय अम्बिका बन की यात्रा किया , वहाँ सरस्वती में स्नान करके शिव - पार्वती की पूजा किया ।वहाँ प्रभु शंख चूड अजगर का उद्धार किया जो नन्द को निगलना चाह रहा था । महाभारत युद्ध के समय पांडव सेना सरस्वती नदी के पश्चिमी तट पर ठहरी थी । राजा पुरूरवा और उर्बशी का मिलन सरस्वती नदी के तट पर कुरुक्षेत्र में हुआ था ।यह नदी ब्रह्मावर्त क्षेत्र में पूर्वमुखी थी । वेद ब्यास का आश्रम सरस्वती नदी के पश्चिमी तट पर था जहां बेरों का जंगल होता था और साम्याप्रास आश्रम भी उसके पास में था जहाँ हर समय यज्ञ हुआ करते थे । कपिल मुनिके पिता कर्दम ऋषि का आश्रम विन्दुसर क्षेत्र में था जो सरस्वती नदी से घिरा हुआ क्षेत्र था तथा इस सरोवर में सरस्वती का जल भरा रहता था । कर्दम ऋषि का व्याह ब्रह्मावर्त के सम्राट स्वयंभू मनु की कन्या देवहूति से हुआ था । प्रभु कपिल विष्णुके पांचवें अवतारके रूपमें माँ देवहूतिके गर्भ से नौ बहनों के साथ पैदा हुए थे और सांख्य दर्शन का ज्ञान अपनीं माँ को विन्दुसर में दिया था ।कर्दम ऋषि ब्याह पूर्व 10000 वर्ष की तपस्या यहाँ पूरी की थी । विन्दुसर सदैव से तीर्थ रहा है जहाँ प्रभु विष्णु की करुणा भरी आंसूकी बूँदें कर्मद ऋषिके तपके सन्दर्भमें टपकी थी । प्रभास क्षेत्र पवित्र तीर्थ क्षेत्र होता था जहांसे समुद्र के अन्दर स्थित द्वारका ,नावोंके माध्यमसे जाया जाता था । प्रभास क्षेत्रमें यदु बंशका अंत हुआ था और प्रभु उस समय यहाँ सरस्वती नदी के तट पर एक पीपल पेड़के नीचे बैठे थे और वहीं से वे परम धाम गए । प्रभास क्षेत्रके पश्चिममें सरस्वती सागर में गिरती थी ।
3- इक्षुमती नदी : सन्दर्भ : भागवत : 5.10 *
सिन्धु सौबीर का राजा रहूगण इक्षुमती नदी पार जा रहा था । नदी के तट पर जड़ भरत एक साधारण ब्यक्तिके रूपमें राजाको सांख्य योग का ज्ञान दिया । कहीं यह भी मिलता है कि इक्षुमती कुरुक्षेत्र से सिंध की ओर लगभग सरस्वती के समानांतर बहती थी । कपिलजीका आश्रम विन्दुसर - क्षेत्र एक तरफ सरस्वती नदी और दूसरी तरफ इक्षुमती से घिरा हुआ था । नेपाल के प्राचीनतम इतिहास में तिब्बत की ओर से इस नदी के आनें की बात भी मिलती है । 
~~ ॐ ~~

Sunday, June 29, 2014

भागवत से - 17

●● यदु , रघु , कुरु और पुरु कुल ●● 
सन्दर्भ : भागवत स्कन्ध - 9
 ^^ यदु ,रघु , कुरु और पुरु इन शब्दों को यदि संगीत में उतारा जाय तो चारों की एक कम्पोजिसन होगी । आइये भागवत में देखते हैं इन चार कुलोंकी एक झलक ।
 ° यदु कुलमें प्रभु श्री कृष्णका जन्म हुआ था।
 ° रघु कुलमें प्रभु श्री रामका जन्म हुआ था।
 ° पुरु बंश में कुरु , हस्ती औए जयद्रत हुए 
° कुरु बंश में ही जरासंध भी पैदा हुआ था।
 <> अब बिस्तार से ---- 
1- ब्रह्मासे अत्रि ऋषि हुए , अत्रिसे चन्द्रमा , चन्द्रमा बृहस्पतिकी पत्नी को चुरा लिये और बुध का जन्म हुआ ।ब्रह्मा का यह एक बंश चला ,अब देखते हैं दुसरे बंश को :--- 
2-ब्रह्मा से कश्यप ऋषि , कश्यपसे विवस्वान् ( सूर्य ) , सूर्यसे श्राद्धदेव मनु और मनुके पुत्र सद्युम्न हुए जो शिव श्रापसे पुरुष एवं स्त्री दोनों रूपों में होते थे।स्त्रीरयो में सुद्युम्न और चन्द्रमा पुत्र बुध से पुरूरवा का जन्म हुआ और इनसे चन्द्र बंश आगे चला। श्राद्धदेव मनुके अन्य 10 पुत्रों ( इक्ष्वाकु एवं अन्य ) से सूर्य बंशी क्षत्रियों का बंश प्रारम्भ हुआ ।
 3- चन्द्र बंशी पुरुरवा - उर्बशीका मिलन सरस्वती नदीके तट पर कुरुक्षेत्रमें हुआ और 06 पुत्र पैदा हुए। पुरुरवाके बंश में तीसरे बंशज थे ययाति जिनकी दो पत्नियाँ थी ; एक थी देवयानी , शुक्राचार्यकी पुत्री और ... दूसरी थी दैत्यराज बृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठा ।
 4- देवयानीसे यदु हुए और शर्मिष्ठासे आगे चल कर मन्धाताकी पुत्री बंशमें रघु का जन्म हुआ ।अर्थात ययाति कुल में शुक्राचार्य पुत्री से यदु कुल आगे चला जिसमें कृष्ण का अवतार हुआ और दैत्य पुत्री कुल में श्री राम का जन्म हुआ । 
5- रघु कुल में श्री रामके पुत्र कुश बंशमें तक्षक पैदा हुआ जो परीक्षितके मौतका कारण बना । 
6- शर्मिष्ठाके तीन पुत्रोंमें एक पुत्र थे पुरु ।पुरु कुल में कुरु और हस्ती कुल बने। पुरुबंश में भरत हुए जो 27000 वर्ष राज्य किया और इस बंशके हस्ती हस्तिनापुरको बसाया।हस्ती बंशमें कुरु हुए जो कुरुक्षेत्रको बसाया । जयद्रत भी इसी कुल का था और कुरु कुलमें जरासंधका भी जन्म हुआ था ।
 7 - शंतनु भी इस कुलके थे और इनके कुल में धृतराष्ट्र एवं पांडुका जन्म हुआ । 
<> यदु , पुरु , कुरु और रघु का इतिहासका सार श्रीमद्भागवत पुराणके आधार पर , यहाँ आपको दिया गया । भागवत की कथा इन कुलोंपर आश्रित है ।
 ~~~ ॐ ~~~

Wednesday, June 25, 2014

भागवत से - 16

<> भगवान श्री राम की बहन <> 
# भागवत स्कन्ध - 9.23 से # 
<> चन्द्रबंशी पुरुरवा और उर्बशीके 06 पुत्रों में एक आयु थे और अनु आयुके पौत्र ययातिके पुत्र थे । अनुके बंश में अनुके बाद पांचवें बंशज हुए बलि । बलिके बंश में बलिके पुत्र अंग से आगे चौथे बंशज हुए चित्ररथ अर्थात चित्ररथ ययाति से आगे 10 वें बंशज थे । 
 * चित्ररथ अयोध्या नरेश दशरथके मित्र थे ।दशरथ अपनीं पुत्री शांताको चित्ररथको गोद देदिया था जबकि उनको अपनी कोई और औलाद न थी।शांता कौशल्या की पुत्री थी
 * चित्ररथ शांताका ब्याह ऋष्यश्रृंगके साथ कर दिया । ऋष्यश्रृंगका जन्म ऋषि विभान्दक द्वारा एक हिरनीके गर्भ से हुआ था । 
~~~ श्री राम ~~~

Tuesday, June 24, 2014

भागवतसे - 15

<> भागवतसे - 15 <> [ कनखल भाग - 2 ]
 ● ' भागवतसे - 14' में कनखलके सम्बन्ध में भागवतके आधार पर कुछ बातें बताई गयी हैं और अब इस सम्बन्ध में कुछ और बातें दी जा रही हैं । 
** सन्दर्भ : भागवत प्रथम खंड , माहात्म्य । गुजरातमें भक्ति एवं उसके दोनों बेटों - ज्ञान वैराग्यके ऊपर कलियुगका बहुत बुरा असर पड़ा , वे तीनों बृद्धा अवस्थामें आगये और हर पल सोये रहते थे । गुजरात में पाखंडियों द्वारा भक्ति पर इतना अत्याचार होनें लगा कि उसको गुजरात छोड़ कर वृन्दावन आकर शरण लेनी पड़ी ।वृन्दावन , यमुना तट पर भक्ति और नारदका मिलन होता है। वृन्दावन पहुँचने पर भक्ति तो जवान हो गयी पर उसके दोनों बेटे वैसे के वैसे रहे । भक्तिसे अपनें बेटों कीयह दशा देखि नहीं जा रही ,वह नारद से अपनें बेटोंको कलियुगके प्रभाव से मुक्त करानें का उपाय पूछ रही है ।
 * नारद कहते हैं , " भक्ति ! यह वृन्दावन है जहाँ भक्ति को सभीं चाहते हैं पर यहाँ ज्ञान -वैराग्य के लिए कोई जगह नहीं " ।
 * नारद भक्तिके बेटों को कलियुग -कुप्रभाव से मुक्त करानें हेतु विचरते हुए बिशाला पूरी पहुँचे जहाँ उनको सनकादि ऋषियों से मिलना हुआ । सनकादि ऋषि नारद को कहते हैं , " हे नारद ! तुम गंगा द्वार समीप स्थित आनंद आश्रम जाओ और वहाँ भागवत कथाका आयोजन करो । वहाँ भक्ति अपनें दोनों बेटों के साथ आएगी और कथा सुननें के बाद ज्ञान - वैराग्य को कलियुग -प्रभाव से मुक्ति मिल जायेगी ।
 * आनद आश्रम पर नारदको भागवत कथा सनकादि ऋषि सुनाये जहाँ सभीं राज ऋषि ,ब्रह्म ऋषि एवं अन्य सभीं सिद्ध आत्माएं उपस्थित थी । 
*यह गंगाद्वारे समीपे आनंद आश्रम वही मैत्रेय ऋषिका आश्रम है जहाँ मैत्रेय ऋषि विदुर जी को तत्त्व - ज्ञान दिया था ।यहाँ गंगा जी की रेत मुलायम रेत हुआ करती थी और यहाँ कमल की खुशबूं हर पल बनी रहती थी । आइये ! चलते हैं भागवतके आनंद आश्रम पर जिसे आज कनखलके नाम से जाना जाता है ।
 ~~ हरि हरि ~~

Friday, June 20, 2014

भागवत से - 14

● कनखल और हरिद्वार ( भाग - 1 ) ●
# भागवत : खंड - 1 महात्म्य : अध्याय -3 #
<> गंगाद्वारके समीप आनंद आश्रम पर सनकादि ऋषियोंद्वारा नारदको भागवत कथा सुनाई गयी थी । नारद भक्ति एवं भक्ति पुत्रों ज्ञान - वैराग्यके उद्धार हेतु इस कथाका आयोजन किया था । जरा सोचना कि यह स्थान कहाँ रहा होगा ?
* आनंद आश्रमके चारो तरफ हांथी ,शेर जैसे जानवर भी प्यार से रहा करते थे।यहाँ गंगा की रेत अति कोमल होती थी और यहाँ हर समय कमल की गंध रहती थी। इस आश्रम पर सिद्ध ऋषियों का आवागमन लगा रहता था ।
* भागवत : 3.5 > मैत्रेय ऋषिके आश्रमके सम्बन्ध में यहाँ द्वार शब्द आया है ।विदुर जी को जब प्रभात क्षेत्र पहुँचने पर पता चला कि अब महा भारत युद्ध समाप्त हो गया है ,हस्तीनापुर के सम्राट युधिष्ठिर हैं तब वे वहाँ से सरस्वती तटसे वापिस होते हुए बृंदा बन पहुंचे जहाँ उनकी मुलाकात उद्धव से हुयी थी । उद्धव उनको तत्त्व ज्ञान प्राप्त करनें हेतु द्वार समीप मैत्रेयके आश्रम जानें की बात कही थी । गंगा द्वार के समीप वह कौन सी पवित्र जगह हो सकती है जहाँ मैत्रेय ऋषि का आनंद आश्रम हुआ करता था ?
* भगवत : 3.20 : मैत्रेयका आश्रम कुशावर्त क्षेत्र में था ।यहाँ मैत्रेय आश्रम को कुशावर्त क्षेत्रमें बताया गया है जो द्वार के पास में था ।
* भागवत : 11.1+11.30 जब यदुकुलके अंत जा समय आया ,उस समय प्रभु अकेले सरस्वती नदी के तट पर पीपल पेड़के नीचे शांत हो कर बैठे थे । प्रभात क्षेत्र का यह वह स्थान था जहाँसे पश्चिम दिशामें सरस्वती सागर में गिरती थी । उस समय वहाँ उद्धव और मैत्रेय ऋषि उनके साथ थे । इन दोनो को प्रभु तत्त्व ज्ञान दे रहे थे । प्रभु जब तत्त्व ज्ञान दे चुके तब मैत्रेयको बोले कि आप इस ज्ञान को विदुर जी को देना और उद्धव जी से बोले कि अब तुम बदरिकाश्रम जा कर वहाँ समाधि योग में स्थित हो जाओ ,वह भी मेरा ही क्षेत्र है ।
~~ ॐ ~~

Tuesday, June 17, 2014

शुक्रताल का रहस्य

<> सन्दर्भ : भागवत : 1.9 <> 
°° वह स्थान कहाँ है जहाँ 16 वर्षीय व्यास जी के पुत्र शुकदेव जी सम्राट परीक्षित को उनके अंतिम समय आनें पर 18000 श्लोकोंकी भागवत - कथा सुनाई थी ? जबकि शुकदेव जी किसी जगह पर मात्र उतनें समय तक रुकते थे जितना समय एक गायके दूध को निकालनें में लगता है । 
** इस सम्बन्ध में भागवतमें जो कहता है उसे ध्यान से समझें :- ●गंगाके तट पर जहाँ परीक्षित बैठे थे ● 
1- वह गंगाका दक्षिणी तट था ।अर्थात वहाँ गंगा पश्चिम से पूर्व की ओर बह रही थी जबकि आज हरिद्वार से हस्तिनापुरके मध्य गंगा कहीं भी पूर्व मुखी नहीं दिखती । 
2- परीक्षित उत्तर मुखी कुशके आसन पर बैठे थे । 
3- कुश पूर्व मुखी स्थिति में बिछाए गए थे अर्थात कुश के नोकीले छोर पूर्व मुखी रखे गए थे ।अब आगे :--- 
<> आज हरिद्वारसे हस्तिनापुर तक गंगा उत्तर से दक्षिण दिशा में बह रही हैं ।ज्यादातर लोगोंका मानना है कि मुज़फ्फरनगर से पूर्व में स्थित शुक्रताल वह स्थान है जहाँ सुकदेवजी परीक्षितको भागवत कथा सुनाया था । शुक्रताल हस्तिनापुर से लगभग 50 किलो मीटर उत्तर में है और गंगाके ठीक तट पर नहीं है । शुक्र ताल मुज़फ्फर नगर से लगभग 28 किलो मीटर पूर्व में गंगा की ओर है ।हो सकता है कि उस समय गंगा शुक्रताल से बह रही हों और वहाँ उनका बहाव पूर्व मुखी रहा हो ।
 ** परीक्षित के बाद 6वें बंशज हुए नेमिचक्र जिनके समय में गंगा हस्तिनापुर को बहा ले गयी थी और नेमिचक्र यमुना के तट पर प्रयाग केपास स्थित कौशाम्बी नगरमें जा बसे थे । 
* कौशाम्बी बुद्ध के समय एक ख्याति प्राप्त ब्यापारिक केंद्र होता था जो बुद्ध के आवागमनका भी केंद्र था । 
* जब गंगा हस्तिनापुर को बहा के गयी उस समय गंगा का मार्ग आजके शुक्रताल से कुछ और पूर्व की ओर हो गया हो । हस्तिनापुर को गंगा आज से लगभग 3450 साल पहले बहा ले गयी थी ( देखें भागवत : 12.1-12.2 )। 
~~~ हरे कृष्ण ~~~

Saturday, June 7, 2014

भागवत से - 13

<> उर्बशी <> 
*भागवत : 9.4 से * 
 ब्रह्माके पुत्र अत्रिके नयनों से चन्द्रमा पैदा हुए । चन्द्रमासे प्रभावित होकर ब्रह्मा उन्हें ब्राह्मणों , ओषधि और नक्षत्रोंका अधिपति बना दिया । चन्द्रमा देवताओं के गुरु बृहस्पति की पत्नी ताराको चुरा लिया । देवगुरु बृहस्पति पत्नी ताराकी वापिसी हेतू बार - बार चन्द्रमा से याचना करते रहे पर उनपर कोई असर न पड़ा । बृहस्पति ब्रह्मा पुत्र अंगिराके पुत्र थे ।तारा केलिए देवताओं और असुरों का घोर संग्राम हुआ । असुरों का साथ दे रहे थे शुक्राचार्य जी क्योंकि वे बृहस्पति से द्वेष करते थे ।अंगिरा महादेवके विद्या गुरु थे अतः महादेव जी भी बृहस्पतिका साथ दिया ।अंत में अंगिरा ऋषि ब्रह्मा से प्रार्थना की और ब्रह्माके दबाव में चन्द्रमा तारा को लौटाया ।तारा जब बृहस्पतिके पास वापिस आयी तब वह गर्भवती थी और एक खूबसूरत पुत्र बुध पैदा हुआ । बुध चन्द्रमाके पुत्र रूप में जाने गए । * ब्रह्माके एक और पुत्र मरीचि थे ,उनसे कश्यप ऋषि का जन्म हुआ । कश्यपसे विवश्वान् का जन्म हुआ और विवश्वान् से सातवें मनु श्राद्ध देव जी पैदा हुए । श्राद्ध देवके पुत्र थे सुद्युम्न जो कुछ समय स्त्री देह में होते थे तो कुछ समय पुरुष देह में ,ऐसा उनको शिव श्राप के कारण होना पड़ता था । जब वे स्त्री होते थे तब उनको इला नामसे जाना जाता था । इला और बुध से पुरुरवा का जन्म हुआ ।पुरुरवा चन्द्र बंश की बुनियाद रखी।
 * एक दिन पुरुरवाकी खूबसूरतीका वर्णन स्वर्ग में इंद्र के दरबार में नारद सुना रहे थे जिसे उस दरबार की सबसे अधिक खूबसूरत अप्सरा उर्बशी सुन रही थी। उर्बशी सुनते - सुनते कामातुर हो उठी और पुरुरवा को पानें की सोचमें पृथ्वी पर पुरुरवाके पास आगई ।
 * पुरुरवा और उर्बशी से 06 पुत्र हुए जिनसे चन्द्र वंश आगे 
बढ़ा । 
* उर्बशी जब पुरुरवाको त्याग कर स्वर्ग जानें लगी तब पुरुरवा उर्बशी को रोकने के लिए बहुत यत्न किये लेकिन विफल रहे । उर्बशी पुरुरवा को कहती है , " राजन ! स्त्री किसी की मित्र नहीं , उसका हृदय भेडिये के हृदय जैसा होता है । वह अपनी लालसाओं की गुलाम होती है । स्त्री अपनी लालसा की पूर्ति केलिए कुछ भी कर सकती है यहाँ तक कि वह अपनें पति ,पिता और भाई तक को मरवा सकती है । पुरुरवा और उर्बशी कुरुक्षेत्र में सरस्वती तट पर मिले थे ।
 ** इस कहानी से आप को क्या मिला ? ** 
-- हरे कृष्ण --

Tuesday, June 3, 2014

भागवत से - 12

<> भागवतमें याज्ञवल्क्य ऋषि <>
 ** भागवत सन्दर्भ ** भागवत में याज्ञवल्क्य ऋषिके सम्बन्ध में निम्न स्कंधों में कुछ बाते कही गयी हैं जिनको आप यहाँ देख सकते हैं । >> 9.1+9.12+ 9.13+ 9.22 +10.2 10.84+11.1+12.6 << 
^^ भागवत 9.12.1- 9.12.4 +10.2 > श्री रामके बंशमें 14वें बंशज हुए हिरण्यनाभ जिनकी शिष्यता प्राप्त करके कोशल देशवासी याज्ञवल्क्य ऋषि अध्यात्म - योगकी शिक्षा ग्रहण की थी । हिरण्यनाभ योगाचार्य थे और जैमिनी के शिष्य थे। जैमिनी को वेदव्यास द्वारा सामवेद की शिक्षा मिली थी ।हिरण्यनाभके अगले 6वें बंशज हुए मरू जो सिद्ध थे और आज भी सिद्धों की बस्ती कलाप गाँव में अदृश्य रूप से रह रहे हैं जो सूर्य बंश समाप्त हो जानें पर पुनः इस बंश की नीव रखेंगे । 
^^ भागवत : 9.1+ 9.13 > राजा निमि मिथिला नरपति के बंशजो पर याज्ञवल्क्य जैसे बड़े - बड़े योगेश्वरों की कृपा बनी थी ।मिथिलाके विदेह परम्पता में माँ सीताजीके पिता राजा जनक 21वें जनक हुए और भागवत में कुल 51 जनकों की बात कही गयी है ।ब्रह्मा के पुत्र थे ,मरीचि ऋषि और मरीचिके पुत्र हुए कश्यप ऋषि । कश्यपके पुत्र थे विवश्वान् ( सूर्य ) जिनके पुत्र हुए इस कल्प के सातवें मनु श्राद्धदेव । श्राद्धदेव मनुके पुत्र सुद्युम्न जब बन में तप करनें हेतु चले गए तब यमुना तट पर श्राद्धदेव 100 वर्ष तक तप करके 10 पुत्रों को प्राप्त किया । श्राद्धदेव के इन 10 पुत्रों में बिकुक्षि,निमि और दण्डक तीन प्रमुख थे । बिकुक्षि से श्री राम का बंश बना और निमि से मिथिला नरेश जनक -विदेह राजाओं की परंपरा चली इस प्रकार श्री राम और माँ सीता दोनों की जड़ एक है । 
^^ भागवत : 9.22 > परीक्षित पुत्र जनमेजय थे जिनका पुत्र शतानीक होंगे (भागवत रचना तक शतानिक पैदा नहीं हुए थे ) जो याज्ञवल्क्य ऋषि से तीन वेदों एवं कर्मकांड की शिक्षा लेंगे ।शतानिकके बाद 4थे बंशज होंगे नेमिचक्र जिनके समय गंगा हस्तिनापुर को बहा ले जायेंगी और नेमिचक्र यमुना तट पर प्रयाग के पास कौशाम्बी में जा बसेंगे । यह कौशाम्बी वही है जहां बुद्ध कई बार आये थे । यह कौशाम्बी क़स्बा बुद्ध के समय ब्यापारियों का मुख्य आकर्षण हुआ करता था । 
^^ भागवत : 10.84 > महाभारत युद्ध पूर्व कुरुक्षेत्र समन्तप पंचक तीर्थ में सर्वग्रास सूर्य ग्रहण लगा हुआ था । उस समय कुरुक्षेत्र में सभीं जनपदों से राजा -सम्राट आये हुए थे । यह ऐसा अवसर था जब यशोदा -नन्द एवं प्रभु कृष्ण की बचपन की गोपियाँ ,ग्वाल -बाल भी कुरुक्षेत्र कृष्ण से मिलनें आये हुए थे । इस पुनीत पावन पर्व पर बसुदेव जी एक यज्ञ का आयोजन किये थे जिसमें भाग लेने 29 ऋषि आये थे जिनमें एक थे याज्ञवल्क्य । (भागवत : 11.1) जब यदु कुलका अंत होना था ,प्रभु अपनें 125 साल का समय गुजार कर अपनें स्वधाम जानें ही वाले थे तब द्वारका के पिंडारक क्षेत्र में जो 11 ऋषि रुके हुए थे उनमें याज्ञवल्क्य न थे ।ये ऋषि कृष्ण से गोपनीय चर्चा करनें हेतु द्वारका में पधारे थे और इस अवसर पर ब्रह्मा प्रभु से स्वधाम वापिस जानें का निवेदन किया था ।ऋषियों और प्रभु के मध्य ठीक यदु कुल के अंत होने से पूर्व हुयी यह चर्चा अति गोपनीय थी ।
 ^^ भागवत : 12.6.48-53 > वेदव्यास जी एक वेदको चार भागों में विभक्त किया । ऋग्वेदका ज्ञान पैल ऋषिको दिया । यजुर्वेद की शिक्षा वैशम्पायन ऋषि को दिया , सामवेद का ज्ञान जैमिनी को दिया और जैमिनी के पुत्र सुमंत मुनि को अथर्वेद का ज्ञान दिया ।पेल ऋषि के शिष्य बाष्कल याज्ञवाल्क्य को ऋग्वेद का ज्ञान दिया था और वैशम्पायन से यजुर्वेद का ज्ञान भी याज्ञवल्क्य को मिला था ।याज्ञवल्क्य अपनें गुरु वैशंपायन से खुश न थे अतः उनको त्याग दिया और उनके द्वारा प्राप्त ज्ञान की उलटी कर दिया। कुछ अन्य विद्वानों ने इस उलटी को चाट लिया और उनके माध्यम से यजुर्वेद की एक नयी शाखा तैत्तिरीय यजुर्वेद बना । याज्ञवल्क्य सूर्य की उपासना की और अनेक वैज्ञानिक बातें बताई ।याज्ञवल्क्य की सूर्य आराधना से सूर्य प्रसन्न हो गए और उनको यजुर्वेद का गहरा राज बताया और याज्ञवल्क्य यजुर्वेद की 15 शाखाओं की रचना की । 
** याज्ञवल्क्य के सम्बन्ध में भागवत प्रसंग यहाँ समाप्त
 होता है ** 
~~ॐ ~~

Thursday, May 29, 2014

भागवत से - 11

● ऋषभ देव ● <> भागवत सन्दर्भ : 1.3 +3.13 + 3.21 + 5.1- 5.12 + 11.2- 11.5 +11.25 
<> ऋषभ देव को समझनें के किये कुछ निम्न सन्दर्भों को भी समझना होगा । 
## भागवत में तीन प्रमुख बंश बताये गए हैं जो इस प्रकार हैं । 1- ब्रह्मा पुत्र मरीचि और मरीचि पुत्र कश्यपका बंश। 2- ब्रह्मा पुत्र अत्रि और अत्रि पुत्र चन्द्रमा का बंश । 3- ब्रह्मा पुत्र स्वायम्भुव मनु का बंश जो इस कल्पके पहले मनु भी थे । 
## ब्रह्मा के 10 पुत्रों के नाम इस प्रकार से हैं । * मरीचि * अत्रि * अंगीरा * पुलस्त्य * पुलह * क्रतु * भृगु * वसिष्ठ * दक्ष * नारद ।। 
## एक कल्प में 14 मनु होते हैं प्रत्येक मनु 71.6/14 चतुर्युगीय का समय भोगता है ।एक चतुर्युगीय समय = 1000 ( चरों युगों का समय ) । 
°° एक चतुर्तुगीय का समय = 4320000 साल । 
°° 14 मनुओं का समय = 4.2 billion years. 
°° सत युग = 1,728,000 साल °° त्रेता युग = 1,296,000 साल
 °° द्वापरयुग = 0,864,000 साल °° कलियुग = 0,432,000 साल 
 ** स्वायम्भुव मनु इस कल्प के पहले मनु थे और द्वापर में महाभारत युद्ध के समय श्राद्धदेव मनु सातवें मनु थे जो ब्रह्मा पुत्र मरीचि ,मरीचि पुत्र कश्यप ,कश्यप पुत्र विवश्वान् ( सूर्य ) और सूर्य पुत्र श्राद्धदेव मनु थे । श्राद्धदेव से सूर्य बंश और चन्द्र बंश दोनों चले । यहाँ सोचिये कि पहले चार मनुओं के समय में चन्द्र बंश और सूर्य बंश क्या नहीं थे ? अब आगे :-- 
* श्राद्धदेव मनुका पुत्र हुआ सुद्युम्न जो कभीं स्त्री तो कभीं पुरुष होता था । स्त्री सुद्युम्न और चन्द्रमा पुत्र बुधसे क्षत्रियों का चन्द्र बंश चला और जब सुद्युम्न अपनें जीवन से ऊब गए तब बन में तप करनें हेतु चले गए ।इसके बाद बंश को आगे चलानें हेतु श्राद्धदेव मनु यमुना तट पर 100 सालका तप करके 10 पुत्रोंको प्राप्त किया जिनमें बड़े थे इक्ष्वाकु । इक्ष्वाकु से सूर्य बश की नीव पड़ी । ** स्वायम्भुव मनु ( पहले मनु ) के पुत्र थे प्रियब्रत । प्रियब्रतके पुत्र हुए आग्नीघ्र तथा आग्नीघ्रके पुत्र हुए नाभि और ऋषभदेव नाभिके पुत्र थे ।।
 <> ऋषभ देव <>
 <> भागवत के रिषभ देव जैन परम्परा के प्रथम तीर्थंकर थे जिनका सन्दर्भ ऋग्वेद में भी मिलता है ।दिगंबर शब्द ऋषभ देव जी के जीवन शैली से निकला है । 
 ** जैन शास्त्र कहते हैं की रिषभ देव कैलाश पर परम निर्वाण प्राप्त की लेकिन भागवत में इस सम्वन्ध में निम्न बातें दी गयी हैं । ऋषभ जी को 100 पुत्र हुए जिनमें भरत बड़े थे । ऋषभ भरत को राज्य देकर दिगंबर अवधूत रूपमें ब्रह्मावर्त से बाहर निकल गए और अजगर की बृति को अपना ली । अजगर जैसे पृथ्वी पर लेट कर यात्रा करते हुए कुटकाचल के जंगल में लगी आग में वे अपनें शारीर को त्याग दिया । आज का कर्नाटक कुटकाचल है । ** ऋषभ जी का ब्याह इंद्र कन्या जयंती से हुआ था। ऋषभ जी के पिता नाभि और माँ ( विश्वकर्मा पुत्री ) मेरु देवी ऋषभ जी को राज्य देकर बदरिका बन तप हेतु चले गए थे । ऋषभ जी को हिन्दू लोग 8वें अवातात रूप में देखते हैं ।भरत एक करोड़ साल तक राज्य किये थे ।
 ~~ हरे कृष्ण ~~

Sunday, May 18, 2014

भागवत से - 10

1- भागवत : 11.3 > दुःख निबृत्ति और अहंकार की तृप्ति केलिए हम कर्म करते हैं पर होता क्या है ? दुःख और। बढ़ता जाता है और अहंकार और सघन होता जाता है ।
2- भागवत : 11.21 > वेद कर्म ,उपासना और ज्ञान माध्यम से ब्रह्म -आत्मा की एकता की अनुभूति कराते हैं ।
3- भागवत : 11.21.> कामना दुःख का बीज है । 4- भागवत :11.21 > निर्वाण के तीन मार्ग हैं -कर्म योग , भक्ति योग और ज्ञान योग ।
5- भागवत : 11.21 > वेदों में तीन काण्ड हैं जो अपनें - अपनें ढंग से ब्रह्म -आत्मा की एकता को स्पष्ट करते हैं ,ये काण्ड हैं - कर्म , उपासना और ज्ञान।
6- भागवत : 11.25 > गुण का प्रभाव स्वभावका निर्माण करता है ,स्वभावतः लोग अलग -अलग प्रकार के होते हैं ।
7- भागवत : 11.25 > मनुष्य शरीर दुर्लभ है जिससे तत्त्व ज्ञान एवं विज्ञान की प्राप्ति संभव है । 8- भागवत : 11.25 > इन्द्रियों की दौड़ से परे मन यात्रा नहीं करता ।
9- भागवत : 11.28 > परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप में जो है वह आत्मा ही है ।
10- भागवत : 3.26 > प्रकृति के कार्य : 10 इन्द्रियाँ , 5 भूत , 5 तन्मात्र , मन ,बुद्धि ,अहंकार और चित्त ।
~~~ ॐ ~~~

Saturday, May 17, 2014

भागवत से - 09

1- भागवत : 7.1 > प्रभुसे बैर -भाव रखनें वाला प्रभु से जितना तन्मय हो जाता है उतनी तन्मयता भक्ति से प्राप्त करना अति कठिन है ।
2- भागवत : 1.2 > जीवन का सार है तत्त्व - जिज्ञासा ।
3 - भागवत : 7.11 > मन बिषयों का संग्रहालय है ,बिषयों का उचित ढंग से प्रयोग करनें से वैराग्य मिलता है ।
4- भागवत : 6.1 > वेद आधारित कर्म धर्म है ।
5- भागवत : 7.15 >  वैदिक कर्म दो प्रकार के हैं - निबृत्ति परक और प्रबृत्ति परक ; पहला वैरागी बनाता है और दूसरा भोग में आसक्त रखता है ।
6- गीता 18.48- 18.50 + 3.5+ 3.19-3.20 4 23, + 4.18 > कर्मकरनें से नैष्कर्म्य की सिद्धि मिलती है ,बिना कर्म यह संभव नहीं । सभी कर्म दोष युक्त हैं पर सहज कर्म तो करना ही चाहिए । आसक्ति रहित कर्म नैष्कर्म्य की सिद्धि में पहुँचाता है । नैष्कर्म्य की सिद्धि ज्ञान योग की परानिष्ठा है ।
7- भागवत : 8.5 > माया मोहित अपनें मूल स्वभाव से दूर रहता है ।
8- गीता :7.15 > माया मोहित असुर होता है ।
9- माया को भागवतके निम्न सूत्रों नें देखें :--- 9.1- भागवत : 1.7 > माया मोहित प्रभु को भी गुण अधीन समझता है ।
9.2 - भागवत : 2.9 > माया बिना आत्मा का दृश्य पदार्थों से सम्बन्ध संभव नहीं ।
9.3- भागवत : 3.5 > दृश्य - द्रष्टाका अनुसंधान करता माया है ।
9.4 - गीता :14.5 > तीन गुण ( माया ) आत्मा को देह में रोक कर रखते हैं ।
9 .5 - भागवत : 11.3 > भक्त माया का द्रष्टा होता है ।
9.6- भागवत : 6.5 > माया वह दरिया है जो सृष्टि -प्रलय के मध्य दोनों तरफ बहती है ।
9.7- भागवत : 11.3 > सभीं ब्यक्त का अब्यक्त में जाना और अब्यक्त से ब्यक्त होना माया आधारित है । 9.8- भागवत : 11.3 > तत्त्वों की प्रलय में वायु पृथ्वी के गुण गंध को खीच लेता है और गंध हीन पृथ्वी जल में बदल जाती है । जल से उसका गुण रस को वायु लेलेता है और जल अग्नि में बदल जाता है - यह सब माया से संभव है ।
9.9 - भागवत : 9.24 > जीव के जन्म ,जीवन और मृत्यु का कारण प्रभु के मायाका बिलास है ।
10 - भागवत : 9.9 > गंगा पृथ्वी पर उतरनेसे पूर्व बोली , " मैं  पृथ्वी पर नहीं उतर सकती क्योंकि लोग अपनें पाप मुझ में धोयेंगे और मैं उन पापों से कैसे निर्मल रह पाउंगी ? भगीरथ बोले ," आप चिंता न
करें ,आपके तट पर ऐसे सिद्ध योगी बसेंगे जिनके स्पर्श मात्र से आप निर्मल हो उठेंगी " ।
11- भागवत : 10.16 > 5 महाभूत , 5 तन्मात्र ,इन्द्रियाँ ,प्राण , मन ,बुद्धि इन सबका केंद्र है चित्त । 12- भगवत : 10.87 > श्रुतियाँ सगुण का ही निरूपण करती हैं और उनके द्वारा ब्यक्त भाव की गहरी सोच निर्गुण में पहुंचाती है ।
13- भागवत : 11.13 > आसन - प्राण वायु पर साधक का नियंत्रण होता है ।
14- भागवत : 11.7 > कल्पके प्रारम्भ में पहले सतयुग में एक वर्ण था -हंस ।
15- भागवत : 11.13 > बिषय बिपत्तियों के घर हैं।
~~ ॐ ~~