Tuesday, January 31, 2012

शांति की ओर


कैसी शन्ति ?


किसकी शांति ?


कहाँ है शांति ?


कैसे मिले शांति ?


कौन है यहाँ जो अशांति फैला रहा है ?


कौन शांति को नहीं चाहता ?


एक मन में उठा प्रश्न बैक्टेरिया की तरह अनेक में रूपांतरित होनें लगता है और मनुष्य या तो inferiority complex or superiority complex का शिकार हो जाता है और धीरे - धीरे किसी मर्ज का मरीज बन कर गलने लगता है /


तन की शांति …...


या


मन की शांति


कौन सी शांति हमारी जरुरत है ? तन की शांति के लिए हठ – योग कुछ मदद करता है लेकिन तन की शांति का खोजी परिधि का खोजी होता है जो कभीं भी पूर्ण शांति को नहीं प्राप्त कर सकता , हाँ एक बात है , खूबसूरत तन का धनी हो कर अहंकार की गुलामी करता हुआ भोग में फसता चला जाता है और इस बात का उसे इल्म भी नहीं हो पाता / मन की शांति से पहले तन की शांति मिलती है और फिर शांत मन नीचे भोग की यात्रा से हट कर ऊपर की यात्रा पर हो जात है जहां वह निर्विकार की सीढियों पर चलता हुआ धीरे - धीरे वैराज्ञ , ज्ञान के मध्यम से परम धाम में चेतना के सहारे पहुँच कर पूर्ण शांति में बिलीन हो जाता है और आवागमन से मुक्त हो जाता है /


मनुष्य में अशांति का होना किस बात पर निर्भर है?


अशांति अज्ञान का मूल तत्त्व है और ज्ञान की प्राप्ति तब होती है जब मनुष्य का तन एवं मन निर्विकार हो कर एक प्रभु पर केंद्रित हो उठता है ; ज्ञान प्रवचन सुननें , प्रवचन सुनाने , गीता - उपनिषद पर ब्लॉग लिखनें से नहीं मिलता , इन सब से जब मनुष्य में होनें की लहर उठती है तब वह ज्ञान कीओर रुख करता है / गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं - हे अर्जुनन ! ज्ञान पढनें - पढानें या सुननें - सुनानें से नहीं मिलता क्योंकि क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का बोध ही ज्ञान है /


भारत में सभीं बुद्धि स्तर पर इतना तो जानते ही हैं कि जहां हम हैं वह मार्ग हमें कहा ले जानें वाला है और परमात्मा मय होनें के लिए हमें क्या करना चाहिए लेकिन जिस बुद्धि से हमें यह बात मालूम है वह बुद्धि है भोग – बुद्धि जो संदेह से भारी है और संदेह के साथ सत् की यात्रा संभव नहीं //




====ओम्=====