Friday, February 28, 2014

भागवत की एक कथा

<> भागवत में कुरुक्षेत्र को समंत पंचक तीर्थ की संज्ञा दी गयी है जिसके पीछे तर्क कुछ इस प्रकार है :-----
 * चन्द्र बंश में पुरुरवाके 06 पुत्रों में से एक थे विजय ।विजय कुलके पुरु बंशमें जमदाग्निके पुत्र रूपमें विष्णुके16वें अवतार थे परशुराम जी । 
* चन्द्र बंश में ही पुरुरवाके पुत्र आयुसे यदु कुल चला जिसमें प्रभु श्री कृष्ण हुए तथा हैहत बंश में सहस्त्र बाहु अर्जुन का जन्म हुआ । * सहस्त्र बाहु अर्जुनको 1000 पुत्र थे जो परशुराम जी के पिता ऋषि जमदाग्नि को मार डाला था । परशुराम जी इंदौर से आगरा - मुंबई मार्ग पर नर्वदा नदी के तट पर लगभग 90 km दूर बसे सहस्त्र बाहु अर्जुन की राजधानी माहिष्मती में जा कर सहस्त्रबाहु के सभीं पुत्रों को मार डाला था तथा उनके खूनको इकठ्ठा करनें हेतु 05 बड़े - बड़े तालाब कुरुक्षेत्र में बनाया था । कुरुक्षेत्र को इन तालावों के कारण समंत पंचक तीर्थ कहते हैं। 
<> अब आगे :---
 1- कुरुक्षेत्र और माहेश्वरके मध्य की दूरी लगभग 1000 km है । 
2- कुरुक्षेत्र माहेश्वर से लगभग 100 मीटर अधिक ऊंचाई पर है । 
3- माहेश्वर और आज के कुरुक्षेत्रके मध्य एक नहीं अनेक 
पहाड़ -पहाड़ियाँ हैं । 
<> अब आप सोचें की माहेश्वर से कुरुक्षेत्र तक परशुराम जी किस विधि से सहस्त्र बाहु के पुत्रों एवं अन्य क्षत्रियों के खून को लाया होगा । जवकि कुरुक्षेत्रकी ऊंचाई लगभग 100 मीटर अधिक है औत बीच का क्षेत्र पहाड़ों से भरा हुआ है ।कोई जल्दी नहीं है ,आराम से आप इस बिषय पर सोचते रहना। 
~~~ ॐ ~~~

Friday, February 21, 2014

कुरुक्षेत्र

Title :<> कुरुक्षेत्र भाग - 01 <> 
 Content: <>कुरुक्षेत्र <> 
1- भागवत स्कन्ध - 5
 ** जम्बू द्वीप का भूगोल शुकदेव जी परीक्षितको जम्बू द्वीपके भूगोलके सम्बन्ध में कुछ अहम बातें बतायी हैं जिनमें से कुछ को हम यहाँ देखते हैं ।
 क - जम्बू द्वीप 09 वर्षों का भू खंड है जिसमें 09 पर्वत वर्षों की सीमाएं बनाते हैं । 
ख- जम्बू द्वीपके केंद्र में इलाबृत्त वर्ष है जिसके मध्य में मेरु पर्वत है । मेरु पर्वत के ऊपर ब्रह्मा की नगरी है और उसके चारों दिशाओं में इंद्र आदि 08 लोकपालों की पुरियां हैं । मेरु के ऊपर गंगा उतरती हैं और चार भागों में विभक्त हो जाती हैं । पूर्व में बहनें वाली धारा सीता कहलाती है ,पश्चिम में बहनें वाली धारा चक्षु कहलाती है , उत्तर में जो बहती है उसे भद्रा कहते हैं और दक्षिण में जो बहती है उसे अलखनंदा कहते हैं ।
 ग- जम्बू द्वीप के दक्षिण से उत्तर की ओर का भूगोल कुछ इसप्रकार है जिसमें कुरु वर्ष आता है। 
ग-1> दक्षिण से उत्तर की ओर क्रमशः भारत वर्ष , हिमालय पर्वत , किम्पुरुष वर्ष ,हेमकूट पर्वत , हरिवर्ष , निषध पर्वत , मध्य में मेरु पर्वत और इलाबृत्त वर्ष है , मध्य से उत्तर में नील , श्वेत और श्रृंगवान पर्वत हैं तथा रम्यक ,हिरण्य एवं कुरु वर्ष हैं ।अब ज़रा सोचिये कि ---
 घ- हिमालय के उत्तर में क्रमशः किम्पुरुष ,हरिवर्ष , इलाबृत्त, रम्यक , हिरण्य और फिर सबसे उत्तर में आता है कुरु वर्ष जिसके उत्तर में सागर है । गंगा की उत्तरी धारा भद्रा कुरु वर्ष से होती हुयी कुरुके उत्तरमें स्थित सागर से जा मिलती है ।
 च- अब आप समझें कि कुरु वर्ष की स्थिति क्या हो सकती है ? ** कुरु हिमालय के उत्तर में पृथ्वीके आखिरी छोर पर समुद्रके किनारे का देश हुआ करता था । हिमालय के दक्षिण में सागर तक भारी वर्ष हुआ करता था जो आजका भी भारतवर्ष है । हिमालय के उत्तर में दो वर्षो के बाद आखिरी समुद्र तट का वर्ष होता था कुरु ,इसकी स्थिति को आप स्वयं समझें । 
<> अगले अंक में कुरुक्षेत्र का भूगोल भागवत के संदर्भ में देखा जा सकता है
 <> ~~ हरि ॐ ~~

Wednesday, February 12, 2014

भागवत कथा - 12.3

●भागवत 12.3● 
सन्दर्भ : अध्याय - 6 से 7 तक । 
1- परीक्षितको जब श्रृंगी ऋषिके श्रापका पता चला तब वे अपनें उत्तराधिकारी के रूप में अपनें पुत्रको स्थापित किया और द्वयं गंगा तट पर मौत की तैयारी में लग गए । परीक्षित गंगा तट पट जहाँ बैठे थे वहाँ गंगा पूर्व मुखी थी। गंगा तट पर उनका मुख उत्तर दिशा में था और कुशों का आगरा नोकीला भाग पूर्ब दिशा की ओर था।
 * शमीक मुनि पुत्र श्रृंगी ऋषि कौशिकी नदीके तट पर परीक्षितको श्राप दिया था कि तक्षक आज से ठीक सात दिन बाद आपको डस लेगा।वह श्राप अब पूरा होनें वाला है । कश्यप ब्राह्मण जो सर्प बिष के प्रभावको उतारानें का ज्ञानी था ,वह परीक्षित की ओर आ रहा था पर रास्ते में तक्षक उसे बहुत सा धन देकर वापिस भेज दिया।तक्षक ब्राह्मण भेष में आया और परीक्षित को डस लिया । * परीक्षित पुत्र जन्मेजय अपनें पिता की मौत का बदला लेनें हेतु सर्प - सत्र यज्ञ किया। तक्षक अपनीं जान बचानें हेतु इंद्रके पास जा छिपा था । बृहस्पतिजी जन्मेजयको समझा कर यज्ञको समाप्त करा दिया और तक्षकको बचाया ।
 ** तक्षक कौन था ? ** 
तक्षक श्री राम कुलमें श्री रामके बाद 26वाँ बंशज था ।। 
<> आगे की कथा <> 
* नेति -नेति से ऐसे को प्राप्त करनें वाला जिसे नक्कारा न जा सके , भावके केंद्र हृदयके माध्यमसे अनन्य भावमें ठहरनें वाला और अपनें चित्त को द्रष्टा रूपमें स्थिर करनें वाला परम पद गामी होता
 है । 
* वेदों का विभाजन : सतयुग में एक वेद था , वेद्ब्यास वेद को चार भागों में ब्यक्त किया और उनके ऋषि निम्न प्रकार से 
हुए :--- # ऋग्वेद - पैलऋषि # यजुर्वेद - वैशम्पायन ऋषि # साम वेद - जैमिनी ऋषि # अथर्ववेद - सुमन्तु ऋषि
 ( जैमिनीके पुत्र ) 
*याज्ञवल्क्य वैशम्पायन ऋषिका साथ त्याग कर सूर्य की उपासना किया और बहुमूल्य ज्ञान प्राप्त किया । याज्ञवल्क्य पहले ऐसे वैज्ञानिक सोच वाले ब्यक्ति हुए जिनका कहना था की पृथ्वी रक ठोस गोले जैसी है , लेकिन इनकी यह सोच विज्ञानका रूप नहीं लेसकी। याज्ञवल्क्य पैल ऋषिसे ऋग्वेदका भी ज्ञान लिया 
था । 
 * महत्तत्त्व और कालसे तीन अहंकार पैदा हुए ,अहंकारों से इन्द्रियाँ ,मन ,बुद्धि,प्राण उपजे ।मूल तत्त्वों की उपज सर्ग कहलाती है और ब्रह्मा द्वारा निर्मित सृष्टि जो सर्ग आधारित होती है उसे विसर्ग कहते हैं । मनु ,देवता , मनु पुत्र ,इंद्र ,सप्तऋषि ,और अंशावतार इन छः बातोंकी विशेषतासे युक्त समय को मन्वन्तर कहते हैं ।
 ~~ ॐ~~

Friday, February 7, 2014

भगवत कथा स्कन्ध -12 भाग -2

● भागवत स्कन्ध 12.2● 
सन्दर्भ : भागवत :12.4 और 12.5 
* यहाँ भागवत में आप को मिलेगा :--- 
<> चार प्रकारकी प्रलय <>
 1- नित्य प्रलय 2- आत्यंतिक प्रलय 3- नैमित्तिक प्रलय 
4-प्राकृतिक प्रलय
 1- नित्य प्रलय : एक तिनके से ब्रह्मा तक की हर पल मौत हो रही है , इस क्रमशः मौतको नित्य प्रलय कहते हैं । 
2- आत्यंतिक प्रलय : माया से माया में स्थित मनुष्य जब बुद्धात्व प्राप्त करके माया मुक्त हो कर मायाका द्रष्टा बन जाता है तब वह बदलाव उसके लिए आत्यंतिक प्रलय होती है । 
3- नैमित्तिक प्रलय : एक कल्पमें 14 मनु होते हैं । कल्पके अंतमें कल्पकी अवधि के बराबर प्रलय रहती है ऐसी स्थिति में तीनों लोक जलमय रहते हैं । ब्रह्माके दिन में सूचनाएं होती हैं । ब्रह्मके दिन की अवधि है -1000 x चार युगों की अवधि और इतनीं ही अवधि होती है ब्रह्माकी रातकी जब प्रलय रहती है । प्रलय अवधि में ब्रह्माण्ड में कुछ नहीं होता जो होता है उसका द्रष्टा वह स्वयं होता है जिसे ब्रह्म कहते हैं , लेकिन मूल तत्त्व जैसे महत्तत्त्व , तीन अहंकार और 05 तन्मात्र रहते हैं । 
4- प्राकृतिक प्रलय : अहंकार ( तीन ) , महत्तत्त्व और 05 तन्मात्र अपनें मूल प्रकृति में समा जाते हैं ,यह प्रलय ब्रह्माके मानसे 100 वर्ष बाद होती है या मनुष्यके हिसाबसे जब 02 परार्ध समय गुजर जाता है यब यह प्रलय आती है ।
 * प्राकृतिक प्रलयका विस्तार : 1- ब्रह्माण्ड सथूल रूप को छोड़ देता है और कारण रूप में स्थिर रहता है । 2- 100 वर्ष तक पानी नहीं बरसता ,सूर्य पृथ्वीके रस को चूसता रहता है । 3- सर्वत्र अग्नि ही अग्नि होती है । 4- वायु का बेग तीब्र रहता
 है ।
 इसके बाद :---
 1- रंग -बिरंगे बादल उठते हैं , 100 वर्ष तक लगातार वारिश होती रहती है । 2- सारा ब्रह्माण्ड जल मग्न होता है । 3- जल पृथ्वी के गुण गंध को ले लेता है और पृथ्वी जल में बिलीन हो जाती है । 4- जलके गुण रसको तेज ले लेता है और जल नीरस हो जाता है । 5- वायु तेज के गुण रूप को ले लेता है और तेज वायु में समा जाता है । 6- आकाश वायु के गुण स्पर्श को ले लेत है और वायु आकाश में समा जाती है । 7- तामस अहंकार आकाश के गुण शब्द को ले लेत है और आकाश तामस गुण में समा जाता है । 8- इस प्रकार तीन अहंकार महत्तत्वमें समा जाते हैं , महत्तत्त्व को तीन गुण ,तीन गुण को मूल प्रकृति ग्रस लेती है और प्रकृति ब्रह्म में लीन हो जाती है , इस प्रकार जो होता है वह ब्रह्म होता है ।
 * भागवत स्कन्ध 12 , अध्याय -5 में शुकदेवजीका अंतिम उपदेश है और यहाँ मूल भागवत का समापन हो जाता है । 
# मन आत्माके लिए शरीर , विषय और कर्मों की कल्पना करता है । 
# मन मायाकी रचना है ।माया तीन गुणों के माध्यम का नाम है । माया पर काल का प्रभाव तीन अहंकारों को जन्म देता है जिसमें सात्विक अहंकार से मन की उत्पत्ति होती है। 
# माया संसार चक्रसे जोड़ कर रखती है ।
 ~~~ ॐ ~~~