इस सम्बन्ध में देखिये गीता के निम्न सूत्रों को ------
3.5 , 3.27 , 3.28 , 3.33 ,
3.19 , 3.20 , 18.59 , 18.60
गीता के आठ श्लोक कह रहे हैं ..........
कर्म , ज्ञान की पाठशाला है ॥
कर्म हम नहीं करते हमसे करवाया जाता है ॥
कर्म करनें की ऊर्जा गुणों की ऊर्जा है ॥
कर्म कर रहे होते हैं गुण और हम स्वयं को करता कहते हैं ॥
स्वयं को करता समझना अहंकार के कारण है ॥
कर्म जब बिना कारण हों और उनसे प्रकृति में उत्साह भरे ,
सब के हित में हो ......
तब वह कर्म आसक्ति रहित होता है
और ......
ऐसे कर्म ही कर्म - योग कहलाते हैं ॥
कर्म - योग ज्ञान की पाठशाला है ॥
कर्म योग में नैष्कर्म की सिद्धि मिलती है .....
जो ज्ञान - योग की परा निष्ठा है [ गीता - 18.49 - 18.50 ]
जब कर्म जो हो रहे हों ,
उनमें प्रभु की छाया दिखती हो तो वह कर्म , योग होता है ॥
==== ॐ ========
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