गीता सूत्र –258
यदा संहरते च अयम्
कूर्मः अंगानि एव सर्वशः
इन्द्रियाणि इंद्रिय – अर्थेभ्य:
तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता
शाब्दिक अर्थ … .
जब समेत लेता है और यह---
कछुवा अंगों को सदृश एक साथ----
इन् द्रियाँ बिषयों से----
उसकी प्रज्ञ स्थिर होती है//
अब भावार्थ को देखें------
प्रज्ञावान योगी का अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण ऐसे होता है जैसे एक कछुवे का नियंत्रण अपने अंगों पर होता है //
The Yogin established in wisdom has control over his senses similar to a Tortoise – control over its organs .
गीता का श्लोक देखा और बुद्धि स्तर पर उसका अर्थ भी देखा अब आप इस सूत्र को ह्रदय से देखो /
कौन है प्रज्ञावान?
वह जिसके तन,मन एवं बुद्धि में निर्विकार ऊर्जा बह रही होती है तब वह उस काल में प्रज्ञावान होता है/प्रज्ञावान की ऊर्जा सीधे परम आयाम में पहुंचा सकती है यदि वह योगी उस स्थिति को सम्हाल सके तो//
=====ओम्====
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