Tuesday, October 18, 2011

मन की गति

गीता सूत्र –2.67

इन्द्रियाणाम् हि चरतां

यत् मनः अनुविधीयते

तदस्य हरन्ति प्रज्ञाम्

वायु:नावं इव अम्भसि//

इंद्रियों में चरता हुआ मन---

प्रज्ञ को भी ऐसे हार लेता है जैसे----

नाव को वायु हार लेता है//

When the mind runs after the roving senses , it carries away the understanding [ Pragya ] .

यहाँ एक तरफ आप एक नदी चल रही उस नाव को देखो जिसको आया तूफान बहा ले जा रहा हो और फिर नदी के रूप में अपनें मन को देखो और यः भी देखो कि जब कोई आप की इंद्रिय अपनें बिषय से सम्मोहित होती है तब वह आप की सोच को किस तरफ से भगाती है ?

मन, बुद्धि, प्रज्ञा एवं चेतना को समझना चाहिए------

चेतना प्रभु की परा प्रकृति है जो जीव धारण करती है और जो प्रभु का आइना है / प्रज्ञा विशुद्ध बुद्धि है जो चेतना के बहुत निकट होती है और जो ऐसा आइना है जिस पर धुधली प्रभु की तस्बीर उभड़ती

है / बुद्धि एक तरफ मन से और दूसरी ओर प्रज्ञा से जुडी होती है / निर्विकार बुद्धि चेतना है और विकारों से परिपूर्ण बुद्धि लगभग मन जैसा ही होती है / प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं , बुद्धिमानों की बुद्धि मैं हूँ और यह भी कहते हैं , इन्द्रियाणाम् मनः अहम्अर्थात इंद्रियों में मन मैं हूँ / मन वह जोड़ है जहां पांच ज्ञान – इन्द्रियाँ एवं पांच कर्म – इन्द्रियाँ मिलाती हैं / इस जोड़ का केन्द्र बुद्धि है , बुद्धि का केंद्र प्रज्ञा है और प्रज्ञा का नाभिकेंद्र चेतना है / चेतना को आत्मा से ऊर्जा मिलती है और आत्मा प्रभु का अंश है /





=========ओम्==========


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