Friday, October 14, 2011

कुछ गीता के सूत्र

गीता सूत्र –14.7

रजो राग – आत्मकम् विद्धि

तृष्णा संग समुद्भवं /

तत् निबंध्नाति कौन्तेय

कर्म संगेन देहिनम् /

तृष्णा[लोभ]एवं राग प्रकृति के राजस गुण से उत्पन्न होते हैं//

Craving and lust they spring from the passionate natural mode .


गीता सूत्र –2.60

यतत : हि अपि कौन्तेय

पुरुषस्य विपश्चितः /

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि

हरन्ति प्रसभं मन : //

बिषयों से सम्मोहित इन् द्रियाँ मं को भी प्रभावित कर लेती हैं /

Impetuous senses carry off the mind of the person who is controlling his senses physically .


अप के लिए गीता के दो सूत्र यहाँ दिए गए , आप इनको देखें और इनका आप अपना अर्थ लगाएं मैं जो अर्थ समझ सका हूँ वह अप के सामनें है //


गीता के इन दो सूत्रों से आप अपनें में कर्म – योग की बुनियाद डाल सकते हैं//


======ओम्==============




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