Wednesday, September 14, 2011

गीता जीवन मार्ग भाग तीन

गीता सूत्र –15.10


उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुज्जानम् वा गुण – अन्वितम्/

विमूढा: न अनुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञान चक्षुष: //


गीता सूत्र –15.11


यतन्त: योगिनः च एनं पश्यन्ति आत्मनि अवस्थितम्/

यतन्त: अपि अकृत – आत्मानः न एनं पश्यन्ति अचेतसः//


ज्ञानी भोग – भगवान दोनों में होश मय रहता है;उस से जो हो रहा होता है वह उसका द्रष्टा होता है और मृत्यु के समय अपनी मृत्यु का भी द्रष्टा रहता है//अज्ञानी का जीवन – मरण सब कुछ बेहोशी से भरा हुआ होता है//


A man full of awareness understands what is lust and what is the Supreme One whereas a man of ignonance passes a deluded life .


गीता कहता है[गीत7.3 ] …....


हजारों लोग साधना में उतरते हैं , उनमें से कुछ सिद्धि को प्राप्त भी करते हैं लेकिन सिद्धि प्राप्त योगियों में कभी - कभीं कोई एकाध प्रभु को तत्त्व से जान पाता है / वह जो प्रभु को तत्त्वसे जानता है , ज्ञानी होता है / ज्ञान वह है जिस को क्षेत्रज्ञ एवं क्षेत्रका बोध होता है [ गीता 13.3 ] /

क्या है क्षेत्र ? और क्या है क्षेत्रज्ञ ? इसबात को हम आगे चल कर देखेंगे , यहाँ आप को यह सोचना है कीहोश क्या है ? और होश को पाना क्या है ?

इन्द्रियों से बुद्धि तक जो ऊर्जा बह रही होती है जब वह ऊर्जा गुण तत्त्वों के प्रभाव में नहीं आती तब वह ब्यक्ति होश मय कहलाता है और वह योगी होता है जिसके मन – दर्पण पर प्रभु प्रतिबिंबित होता है / होश ध्यान का फल है और ध्यान का अंत होश में होता है /


=====ओम======


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