Saturday, September 10, 2011

गीता जीवन मार्ग भाग दो


गीता जीवन मार्ग का अगला कदम


गीता सूत्र –2.65




प्रसादे सर्वदुखानाम् हानि: अस्य उपजायते/


प्रसन्न – चेतसः हि आशु बुद्धिः परि अवतिष्ठते//




प्रभु प्रसाद रूप में सभीं दुखों का अंत और स्थिर –n प्रज्ञता का आगमन होता है //




The supreame bliss is a frame of mind where there is no pain - sorrow and this placidity of mind keeps one in absolute reality .




मंदिरों में लोग प्रसाद प्राप्त करनें के लिए कतारों में खड़े दिखते हैंआखिर क्या है प्रसाद ? यहाँ गीता में प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं , प्रभु प्रसाद से दुखों का अंत होता है और मन – बुद्धि स्थिर हो


जाते हैं / उस ब्यक्त को अंदर – बाहर मैं ही मैं दिखनें लगता हूँ और जब ब्रहमांड की सभीं सूचनाओं में मैं ही मैं दिखनें लगता हूँ , समभाव से , तब वह योगी मुझे तत्त्व से समझ कर मुझमें प्रवेश कर जाता है //




प्रभु की ओर कामना के साथ कदम न बढाओ


प्रभु की ओर किसी सोच से कदम न भरो


प्रभु से कुछ लेने-देनें की बात न करो


प्रभु को सुमिरो उसे समझनें के लिए//


नरेंद्र [ स्वामी विवेकानंद ] कुछ पैसों की चिंता में थे , घर उनको पैसे भेजनें थे लेकिन कोई बंदोबस्त न हो पा रहा था , काफी चितित थे / श्री परमहंस रामकृष्ण जी नरेंद्र से बोले , जा , अंदर जा और मां से मांग ले जितना चाहिए , वह दे देगी , चिंता काहे को करता है , जा , जल्दी कर , यहाँ बैठनें से क्या होगा ? नरेंद्र गए मंदिर के अंदर और दो घंटे बाद बाहर निकले और आखें टपक रही थी / प्रभु परम हंस जी बोले , क्या बात है , क्या मां ना कह दिया या डाटा . कुछ तो जरुर घटित हुआ दिखता है ?


नरेंद्र बोले , गुरूजी मैं तो भूल ही गया अंदर जा कर कि मैं यहाँ क्या करनें आया हूँ और पता नहीं कैसे दो घंटे गुजर गए , पता तक न चल पाया , चलिए फिर कभीं मांग लूंगा //


प्रभु का परा भक्त कुछ ऐसा होता है जो प्रभु से ऐसा जुडता है कि स्वयं को घुला देता है प्रभु में और जब वह होता ही नहीं तो मांगेगा क्या?




==========ओम=======




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