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गीता सूत्र –4.18
कर्मणि अकर्म य : पश्येत् अकर्मणि च कर्म य : /
स : बुद्धिमान् मनुष्येषु स : युक्त : क्रित्स्त्र्न् - कर्म - कृत् //
कर्म मे अकर्म और अकर्म में कर्म देखनें वाला बुद्धिमान होता है और कर्मों का
गुलाम नहीं बनता//
He who in his action sees inaction and action in inaction , he is wise among men ,
he is yogin and does not controlled by his actions .
What is Akarma ?
Action performed without attachment , without desire , without passion ,
without delusion and ego is said Akarma .
पहले के अंको में आप को बताया गया ….....
कर्म रहित कोई नहीं हो सकता क्योंकि कर्म गुणों से हैं , गुणों की ऊर्जा कर्म
होनें का कारण है / कर्म में गुण तत्त्वों की पकड़ को समझना ही कर्म – योग है /
गीता यह नहीं कहता कितुम बाएं चलो या दाहिनें गीता कहता है तुम
जो भी कदम उठाओ वह होश से परिपूर्ण हो और गुण – ऊर्जा के सम्मोहन में न
उठा हो/
लोग कर्म के एक – एक तत्त्वों की साधना बताते हैं जो संभव नहीं क्योंकि कर्म
के सभीं तत्त्व एक दूसरे से सम्बंधित हैं ; जब एक को पकड़ा जाता है तब कई अन्य
प्रभावित होते हैं / गीता कर्मों के बीज को समाप्त नहीं करता बीज को शुद्ध करता है /
गुणों से गुणातीत को देखा जा सकता है
भोग से योग की लहर को देखा जा सकता है
और
प्रकृति से पुरुष की समझ जगाई जा सकती है//
===== ओम ======
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