Saturday, November 16, 2013

परीक्षित कथा

● परीक्षित ● 
भागवत सन्दर्भ : भागवत : 5.10+5.16+5.17+ 1.7+1.8+1.12- 1.19 + भागवत महात्म्य 1 और 2
 * पाँडव बंशमें अभिमन्यु एवं उत्तराके पुत्र , परीक्षित थे , अभिमन्यु अर्जुनके पुत्र थे और पांडुकी पत्नी कुंती एवँ इंद्रसे अर्जुनका जन्म हुआ था ।पांडु की दो पत्नियाँ थी लेकिन स्त्री प्रसंगकरनें में वे असमर्थ थे । जब महाभारत युद्ध हो रहा था उस समय उत्तराके गर्भमें परीक्षित 10वें माह में थे ।हस्तिनापुरमें गंगाजीमें अपनें परिवारके मरे हुए लोगोंको जलांजलि देकर कृष्ण - पांडव वापिस आ गए थे और कृष्ण की द्वारका वापिसी की तैयारी हो रह थी तब उत्तरा भागती हुयी कृष्णकी ओर आ रही थी, यह बोलते हुए कि बचाओ -बचाओ । उत्तराका पीछा लोहेके पांच बाण कर रहे थे जिनसे अग्नि निकल रह थी । प्रभु समझ गए कि यह अश्वत्थामा द्वारा चलाया गया ब्रह्मास्त्र है । अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र चलना तो जानते थे पर उसे चला कर नियंतित करने की विद्यासे वे अनभिज्ञ थे। प्रभु अपनी योग मायासे उत्तरा और उसके गर्भकी रक्षा की ।
 * जब परीक्षित पैदा हुए उस समय आकाशमें ग्रहोंकी स्थिति इस प्रकार थी :--- 
<> सप्त ऋषि मंडल जब उदित होता है तब पहले दो तारे दिखते
 हैं , उन दो तारोंसे उत्तर - दक्षिण दिशामें यदि एक रेखा खीची जाए तो उस रेखा पर नक्षत्रो की स्थिति दिखती है।
 <> जो नक्षत्र उस रेखा पर दिखता है वह सप्तऋषि मंडलके साथ 100 वर्ष तक रहता है ।
 <> परीक्षितके जन्म और मृत्युके समय मघा नक्षत्र था अर्थात परीक्षितका जन्म - मृत्यु एक ही शताब्दी में घटित हुये ।
 * परीक्षितको शुकदेव ही भागवत कथा भाद्र पद शुक्ला नौमी को सुनाना प्रारंभ किया ।
 * परीक्षित कुल 30 सालसे कुछ अधिक समय तक राज्य
 किये ।
 * जब द्वारकाका अंत हुआ और कृष्ण स्वधाम चले गए उस समय 07 माहसे अर्जुन द्वारका में थे और जो लोग बच गए थे उनको इन्द्रप्रष्ठ ले आये थे । स्वधाम यात्राके समय कृष्ण अपनें सारथी दारुकके माध्यमसे द्वारका यह संदेशा भिजवाया था कि आजसे ठीक सातवें दिन द्वारका समुद्रमें समानेवाला है अतः सभीं लोग शिघ्रातिशिघ्र वहाँसे अर्जुनके संग इन्द्रप्रष्ठ चले जाएँ । 
 * कृष्णके पौत्र अनिरुद्ध और अनिरुद्धके पुत्र बज्रका शूरसेनाधिपतिके रूपमें मथुरामें अभिषेक हुआ और पृथ्वी सम्राट हस्तिनापुरमें परिक्षित बने ।
 * विदुरको ज्ञात था कि प्रभु स्वधाम जा चुके हैं और द्वारका एवं यदु कुलका नाश हो चुका है पर वे इस सत्यको युधिष्ठिरको नहीं बताया । विदुरको यह बात वृंदाबनमें उद्धव बताये थे । अर्जुन जब द्वारकासे वापिस आये तब यह बात युधिष्ठिरको बताये और युधिष्ठिर तुरंत राज्य त्याग करके स्वर्गारोहणके लिए चल पड़े थे और उनके साथ अन्य उनके सभीं भाई भी हो लिए । विदुर धृतराष्ट्र और गांधारी को लेकर पहले ही सप्त श्रोत जा चुके थे जहाँ धृतराष्ट्र एवं गंघारी कुछ दिन ध्यान करके महा निर्वाण प्राप्त किया था । 
* परीक्षित सम्राट बनते ही केतुमाल ,भारत , उत्तर कुरु , किम्पुरुष एवं अन्य सभीं वर्षोंको जीता और वहाँके राजाओं से भेटें स्वीकार की ।भागवतमें जिन वर्षोंका विस्तार मिलता है वे सभीं जम्बू द्वीपके वर्ष हैं और जम्बू द्वीप का भूगोल इस प्रकार है :--- 1- जम्बू द्वीपके केंद्र में है इलाबृत्त वर्ष , इलाबृत्तके केंद्र में है मेरु पर्वत जिसके ऊपर व्रह्माका निवास है और चारो तरफ इंद्र जैसे दिगपालोंके निवास स्थान हैं ।मेरु के सर्वोच्च शिखर पर गंगा उतरी थी और उतरते ही चार भागों में विभक्त हो गयी थी ; वह जो उत्तर में उत्तर कुरु से हो कर समुद्रसे जा मिली उसे भद्रा नाम 
मिला , दक्षिण हिमालय को पार करके भारतवर्ष से हो कर जो समुद्र पहुंची उसे अलखनंदा बोला गया , पूर्वकी ओर जाने वाली धाराको सीता और पश्चिम को ओर जाने वाली धरा को चक्षु नाम मिला । 
2- इलाबृत्तके उत्तरमें क्रमशः दक्षिणसे उत्तर की ओर नील 
पर्वत , राम्यक वर्ष , श्वेत पर्वत , हिरण्य वर्ष , श्रृंगवान पर्वत और उत्तर कुरु वर्ष है । 
3- इलाबृत्तके दक्षिण में क्रमशः निषध पर्वत , हरि वर्ष , हेमकूट पर्वत , किम्पुरुष वर्ष , हिमालय पर्वत और इसके दक्षिणमें भारतवर्ष। 
4- इलाबृत्तके पूर्वमें गंध मादन पर्वत और उसके पूर्व में भद्राश्व वर्ष था ।
 5- इलाबृत्तके पध्चिममें माल्यावान पर्वत और उसके पश्चिम में केतुमालवर्ष था । 
* एक दिन परीक्षित बज्रसे मिलनें मथुरा आये और जब बज्र मथुराको एक विरान जगह बता कर अपनी चिंता दिखाई तब परीक्षित इन्द्रप्रष्ठ से कुछ कृष्ण प्रेमी सेठों , पंडितों और बंदरों को मथुरामें बसने हेतु भेजा और शांडिल्य ऋषिको आमंत्रित करके मथुराके रहस्य पर प्रकाश डलवाया । मथुरा क्यों वीरान पड़ गया था ? यह बात ध्यानका विषय है ।
 * सुननेंमें कुछ अजीब सा लगता है कि लगभग 50-60 साल की अवधी में मथुरा - बृंदाबन एवं ब्रजके ऐसे सभीं स्थानों की पहचान और अस्तित्व समाप्त हो चुका था जिनका सम्बन्ध
 कृष्ण - लीलाओं से था । शांडिल्यकी मददसे उन स्थानोंको पुनः बज्र विकसित करवाए । 
 * द्वारकाका अंत होना ,कृष्णका स्वधाम जाना , धृत राष्ट्र -गांधारीका सप्त श्रोत यात्रा एवं वहाँ परम निर्वाण प्राप्त करना , पांडवोंका स्वर्गारोहण , पतिक्षित का पृथ्वी सम्राट वनना ,बज्र का शूरसेनाधिपति बनना ,ये सभीं घटनाएँ एक साथ घटित हुयी थी । * पतिक्षित का ब्याह उत्तरकी पुत्री ईरावतीसे हुआ और जन्मेजय सहित चार पुत्र उत्पन्न हुए । 
* आखिर वह दिन आ ही गया , शिकार करते हुए परिक्षित खुद शिकार हो गए । एक दिन परीक्षित शिकार खेलते हुए हस्तिनापुर से सीतापुर की ओर चल पड़े और कौशिकी नदी के तटीय जंगलमें उनको प्यास लगी ,जब कहीं पानी न दिखा तब जंगल में एक ऋषिकी झोपड़ी में गए जहाँ एक ऋषि समाधिमें पहुँचा हुआ था । परीक्षित को जब ऋषि से सम्मान न मिला तब वे क्रोध में आ कर एक मरे सर्प को उनके गले में लटका कर बाहर निकल आये और चल पड़े । कौशकी नदी के किनारे उस ऋषिका पुत्र था जिसे परिक्षिरके कृत्यका पता चल गया और वह ऋषि पुत्र कौशकी नदी में आचमन करके परीक्षितको श्राप दिया कि जा तूँ , आजसे ठीक सातवें दिन तक्षक सर्पके काटनेंसे मर जाएगा।तक्षक श्री राम कुलमें कुश से आगे 26वें बंशज थे ।श्री राम पुरुकुत्स बंश के थे जिनका ब्याह नाग कन्या से हुआ था । तक्षकके अन्दर सर्प उर्जा थी ,वह जब चाहे सर्प बन जाए और जब चाहे मनुष्य के रूपको धारण कर ले । तक्षकके पुत्रको महाभारत युद्ध में अभिमन्यु मारे थे । 
* वह ऋषि जिसके आश्रम में परीक्षित गए थे , शमीक मुनि थे और उनके पुत्र थे श्रृंगी ऋषि । श्रृंगीके श्रापका परीक्षितको पता चल गया और वे तुरंत अपनें पुत्र जन्मेजय को सत्ता दे कर गंगा - तट पर मृत्यु तक ध्यान करनें हेतु आ गए । वहाँ उनसे मिलनें ऋषि समूह आया और शुकदेव ही भी वहाँ पधारे । परीक्षित गंगा तट पर जहाँ बैठे थे वहाँ गंगा पश्चिमसे पूर्व की ओर बह रही थी , परीक्षितका रुख उत्तर दिशा में था और जो कुश वे बिछाए थे बिछावन की तरह उनके अग्र भाग पूर्व दिशामें थे । 
* ठीक सातवें दिन तक्षक आया एक ब्राह्मण के भेष में और परीक्षितके अंतका कारण बना। जब तक्षक परीक्षितकी ओर आ रहा था उस समय एक कश्यप ब्राह्मण परीक्षितकी ओर आ रहा था जो सर्प बिष उतारनें का ज्ञानी था ,तक्षक उसे बहुत सा धन दे कर वापिस भेज दिया था । 
~~~ ॐ~~~

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