भक्ति वैराग्य का फल है । सुनने में तो यह बात विरोधाभाषी लगती है लेकिन है सत्य ।
भक्ति दो के मध्य प्रारम्भ होती है , जिसमें एक भक्त छीत है और दूसरा उसका आलंबना स्वरुप कोई स्थूल या सूक्ष्म होता है ।
भक्त में जैसे - जैसे भक्ति की ऊर्जा भरने लगती है , वह अपनें भक्ति -आलंबना में घुलता चला जाता है और अंततः वह घुलकर स्वयं आलंबना बन जाता है , अपने लिए नहीं , भक्त की अगली पीढ़ियों के लिए ।
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