Wednesday, January 23, 2013

एक खोज - - - - -

मनुष्य स्वयं के लिए पाठशालाएं खोल रखी है
मनुष्य स्वयं के लिए हस्पताल खोल रखे हैं
मनुष्य स्वयं के लिए विज्ञान की खिडकी से प्रकृति के रहस्यों को देखता है
मनुष्य जो कुछ भी करता है वह सब स्वयं के लिए ही होता है 

लेकिन 

मनुष्य जो भी करता है उसमें संदेह की ऊर्जा होती है , ऐसा क्यों ?
मनुष्य  का मन जिस दिन संदेह से मुक्त होता है उस दिन उसके मन में प्रभु की किरण फूटती है

संदेह युक्त मन भोग जीवन का आधार है
और संदेह रहित मन से योग की पौध उगती है 

मनुष्य आज स्वयं को छोड़ कर सब को देख रहा है , चाहे पृथ्वी पर स्थिति सूचनाएं हों या फिर आकाश में स्थित हों , लेकिन इस देख में वह स्वयं से दूर होता जा रहा है और यही कारण है मनुष्य की अतृप्तता का / आज मनुष्य के पास क्या - क्या नहीं है , भोग की सभीं चीजें तो हैं लेकिन उस से हमें मात्र कुछ घडी के लिए तृप्ति मिल पाती है और पुनः हमारी खोज प्रारम्भ हो जाती है /

मनुष्य जैसे - जैसे स्व से दूर हो रहा है , वैसे - वैसे वह और - और अतृप्त होता जा रहा है / 
प्रकृति से प्रकृति में रहते हुए मनुष्य प्रकृति का सम्राट है लेकिन उसके अंदर भय इतना है जिसे मापना संभव नहीं और अपनें इस भय के कारण वह एक गुलाम से भी नीचे की मानसिक स्थित में रहता है / आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय जैसे - जैसे सघन हो रहे हैं वैसे - वैसे अहंकार और सघन हो रहा है और वह अहँकार कभीं मंदिर की ओर रुख कर देताहै तो कभीं रूप - रंग में उलझा रखता है / आज मनुष्य एक यंत्र की भांति हो कर रह गया है और गुण तत्त्वों  की ऊर्जा से वह गतिमान है / 

जबतक गुण तत्वों के माध्यम से निर्गुण की छाया नहीं दिखती , मनुष्य कभीं शांत नहीं हो सकता और जिस घडी निर्गुण की किरण दिखती है उसी घडी गुण - ऊर्जा,  निर्गुण ऊर्जा में बदल जाती है और वही भोगी मनुष्य योगी के रूप में रूपांतरित हो उठता है लेकिन लोग तो उसे भोगी ही समझते रहते हैं /

योगी को योगी समझता है
लेकिन ....
भोगी को भोगी नहीं समझता
और 


  • योगी से भोगी मात्र इस कामना से जुड़ता है  कि उसे भोग में उस योगी से मदत मिल सकती है 
  • न स्वयं को धोखा दो , न पर को 
  • स्वयं से स्वयं में देखो , और यह अभ्यास जैसे - जैसे सघन होगा , आप रूपांतरित होते चले जायेंगे 
  • रूपांतरण ही प्रभु की ओर पहुचाता है 


==== ओम् ======

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