Friday, November 30, 2012

अकाल मूरत


हिमगिरी के उतुंग शिखर पर
बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष भीगे नैनों से
देख रहा था प्रलय प्रवाह
नीचे जल था ऊपर हिम था
एक तरल था एक सघन
एक तत्त्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन 

बाबू जयशंकर प्रसाद सन् उन्नीस सौ छत्तीस में यह कबिता लिखी और अगले साल उनका निधन हो गया/ 
वह उर्जा जो उनके अंदर बह रही थी वह वह थी जिसको आदि गुरु श्री नानकजी  साहिब अकाल मूरत कहते हैं 
प्रकृति अकाल मूरत से है प्रकृति करता है और अकाल मूरत उस कृत्य का द्रष्टा एवं साक्षी 
बाबू जयशंकर प्रसाद अपनी मौत के एक साल पहले इस कबिता को लिख कर यह दिखाया की अंत समय में जो दिखता है वही है अकाल मूरत 
परम सत्य की छाया में बैठा यह कवि वह देख रहा है जिसको देखनें वाले परम  सिद्ध  योगी होते हैं और वे जो देखते हैं उसे ब्यक्त नहीं कर पाते लेकिन बाबू जयशंकर प्रसाद जी उसे ब्यक्त करनें में पूर्ण रूप से कामयाब रहे 
मैं उनको प्रणाम करता हूँ 
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