हिमगिरी
के उतुंग शिखर पर
बैठ
शिला की शीतल छाँह
एक
पुरुष भीगे नैनों से
देख
रहा था प्रलय प्रवाह
नीचे
जल था ऊपर हिम था
एक
तरल था एक सघन
एक
तत्त्व की ही प्रधानता
कहो
उसे जड़ या चेतन
बाबू जयशंकर प्रसाद सन् उन्नीस सौ छत्तीस में यह कबिता लिखी और अगले साल उनका निधन हो गया/
वह उर्जा जो उनके अंदर बह रही थी वह वह थी जिसको आदि गुरु श्री नानकजी साहिब अकाल मूरत कहते हैं
प्रकृति अकाल मूरत से है प्रकृति करता है और अकाल मूरत उस कृत्य का द्रष्टा एवं साक्षी
बाबू जयशंकर प्रसाद अपनी मौत के एक साल पहले इस कबिता को लिख कर यह दिखाया की अंत समय में जो दिखता है वही है अकाल मूरत
परम सत्य की छाया में बैठा यह कवि वह देख रहा है जिसको देखनें वाले परम सिद्ध योगी होते हैं और वे जो देखते हैं उसे ब्यक्त नहीं कर पाते लेकिन बाबू जयशंकर प्रसाद जी उसे ब्यक्त करनें में पूर्ण रूप से कामयाब रहे
मैं उनको प्रणाम करता हूँ
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सार्थक आलेख .आभार
ReplyDelete. हम हिंदी चिट्ठाकार हैं