Tuesday, November 30, 2021

गीता अध्याय - 17 हिंदी भाषान्तर

 


गीता अध्याय : 17 का सार ⤵️

● श्रद्धा गुणों के आधार पर 03 प्रकार की है ।

★ सात्त्विक ,राजस और तामस गुण धारी क्रमशः 

देव , यक्ष और भूत - प्रेतों की पूजा करते हैं ।

● शरीर , मन और वाणी से तप किया जाता है ।

# गुण आधारित निम्न 03 - 03 प्रकार के होते हैं⤵️

◆ तप , भोजन , यज्ञ और दान ।

★ वेदान्तियों की यज्ञ , दान और तप की सभीं क्रियाएं ॐ से प्रारम्भ होती हैं ।


गीता अध्याय : 17 के 28 श्लोकों का हिंदी भाषान्तर ⤵️

श्लोक : 1 > अर्जुन का प्रश्न 

➡️ जो शास्त्र विधियों को त्याग कर श्रद्धायुक्त यजन 

(देवादि का पूजन ) करते हैं  , उनकी निष्ठा सात्त्विकी , राजसी और तामसी में से कौन सी होती है ?

प्रभु श्री कृष्ण का उत्तर ( श्लोक : 2 - 28 तक

श्लोक - 2 

संस्कार रहित , स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा गुण आधारित तीन प्रकार की होती है ...

श्लोक : 3 

◆ सबकी श्रद्धा सत्त्व अनुरूप ( उसके अंतःकरण के अनुरूप ) होती है ।

◆  हर पुरुष अपनीं श्रद्धा के अनुकूल ही होता है ...


श्लोक -  4 > श्रद्धा आधारित लोग 

● सात्त्विक पुरुष देवपूजा करते हैं ।

◆ राजस पुरुष , यक्षको पूजते हैं ।

● तामसी मनुष्य प्रेत - भूत पूजते हैं ।

श्लोक : 5 >शास्त्रों से हट कर तप करना 

➡️ जो शास्त्र विधियों से  हट कर केवल मन कल्पित घोर तप को तपते हैं वे दम्भ - अहँकारयुक्त , काम - राग - बल के अभिमान से भी युक्त होते हैं ...

श्लोक : 6 > श्लोक - 5 के साथ देखें 

➡️ शरीर रूप में स्थित भूत समुदाय को और अन्तःशरीर में स्थित मुझे जो कृश करनेवाले हैं , उन अज्ञानियों को तुम आसुर स्वभाव वाले जान ...

श्लोक : 7 >भोजन - यज्ञ - तप - दान 

भोजन , यज्ञ , तप और दान तीन प्रकार के होते हैं ...

श्लोक : 8 > सात्त्विक भोजन 

➡️ आयु , बल , आरोग्य , सुख , प्रीति को जो भोजन बढ़ाते हैं और रसयुक्त , चिकने स्थिर रहनेवाले होते हैं तथा स्वभावतः मन को प्रिय होते हैं , वे सात्त्विक भोजन होते हैं ...

श्लोक : 9 > राजस भोजन 

➡️ कड़ुए, खट्टे , लवणयुक्त , तीक्ष्ण , रूखे , दाहकारक , दुःख - शोक एवं रोगों को उत्पन्न करने वाले भोजन राजस भोजन होते हैं ।

श्लोक : 10 > तामस भोजन 

➡️ दुर्गन्धयुक्त , रसरहित , अधपका , बासी , अपवित्र , उच्छिष्ट भोजन , तामस भोजन है ..

श्लोक : 11> सात्त्विक यज्ञ

➡️ शास्त्रविधि नियत यज्ञ करना ही कर्तव्य है , ऐसी सोच से मन को समाधान करके , फल कामनामुक्त यज्ञ , सात्त्विक यज्ञ है ।

श्लोक : 12 > राजस यज्ञ 

➡️निश्चित फल प्राप्ति हेतु , दम्भ भाव में  जो यज्ञ होता है , वह राजस यज्ञ होता है ।

श्लोक : 13 > तामस यज्ञ 

➡️ अन्नदान रहित , शास्त्र विधि रहित , श्रद्धा रहित और दक्षिणा रहित यज्ञ , तामस यज्ञ होता है ।

श्लोक : 14 - 19 > तप के प्रकार 

● श्लोक - 14 > शरीर संबंन्धी तप

देवता , ब्राह्मण , ज्ञानी के पूजन , पवित्रता , सरलता , ब्रह्मचर्य, अहिंसा आदि शरीर संबंधी तप हैं ।

● श्लोक - 15 > वाणी तप

➡️ उद्वेग न करना , प्रिय - हितकर स्वभाव का होना , सत्य भाषण , स्वध्याय - अभ्यास आदि  वाणी तप है ।

श्लोक - 16 > मन तप 

➡️ मनकी प्रसन्नता , सौम्यत्व , मौन , आत्मविनिग्रह , भावसंशुद्धि का होना , मन तप है  

श्लोक - 17 > सात्त्विक तप

➡️ बिना फल की चाह वाले युक्त पुरुषों द्वारा परम् श्रद्धायुक्त किये गए ऊपर व्यक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक तप कहते हैं ।

श्लोक - 18 > राजस तप 

➡️ सत्कार , मान , पूजाके लिए एवं अन्य किसी स्वार्थभाव के लिए दम्भ से किया गया तप , अनिश्चित , क्षणिक फलवाला , राजस तप होता है ।

श्लोक - 19  > तामस तप 

➡️ मूढ़ता पूर्वक हठ से मन , वाणी और शरीर की पीड़ा सहित तथा दूसरे के अनिष्ट के लिए किया गया तप , तामस तप होता है ।

श्लोक : 20 >  सात्त्विक दान 

➡️ जिस देश - काल और व्यक्ति को दान प्राप्तिकी नितांत आवश्यकता हो , उसे उस देश - काल में दिए जाने वाले दान को सात्त्विक दान कहते हैं ।

इस सूत्र को समझना होगा : किसको कब और कौन सी वस्तु की बहुत जरुरत है , उसे , उस समय उसी वस्तु का दान करना सात्त्विक दान होता है ।

श्लोक : 21> राजस दान 

➡️ जो दान किसी प्रकार की चाह रख कर दिया जाय , वह राजस दान होता है ।

श्लोक : 22> तामस दान

➡️ अयोग्य देश - काल में कुपात्र को दिया गया दान तथा तिरस्कार भाव से दिया गया दान तामस दान होता है ।

श्लोक : 23 > ब्रह्म 

🌷 ॐ तत् सत्  ये ब्रह्म के संबोधन हैं । उसी से सृष्टि आरंभ में ब्राह्मण , वेद और यज्ञ आदि की रचना हुई  है ।

श्लोक : 24 > ॐ 

➡️ इस लिए ब्रह्म  केंद्रित रहनेवाले पुरुष की   शास्त्र अनुकूल किये गए यज्ञ , दान और तप आदि क्रियाएं सदा ॐ के उच्चारण से प्रारम्भ की जाती हैं ।

श्लोक : 25 > तत्

➡️ फल की सोच के बिना , मोक्ष प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की यज्ञ , तप , दान आदि क्रियाएं प्रभु संबोधन तत् से की जाती हैं ।

श्लोक : 26 > सत्

➡️ सत्  प्रभु संबोधन है इसे सद्भाव - साधुभाव  में प्रयोग किया जाता है।

श्लोक : 27

सत् यज्ञ , तप और दान  आदि  सत्कर्मों में  स्थित है तथा प्रभु केंद्रित और प्रभु समर्पित कर्मों में भी सत्  है।

श्लोक : 28 > असत् 

➡️ बिना श्रद्धा किया गया हवन , दिया हुआ दान , बिना तपा हुआ तप , और अन्य इस ऐसे किये गए शुभ कर्म असत् कहलाते हैं । 

ये इस जीवन में तथा मृत्यु के बाद भी लाभदायक नहीं ।

~~◆◆ ॐ ◆◆~~

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