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गीता के मोती , गीता तत्त्व विज्ञान और कौन सुनता है
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय - 7
हिंदी भाषान्तर ⤵
1 -इस अध्याय में 30 श्लोक हैं ।
2 -इस अध्याय में प्रभु वक्ता हैं , अर्जुन श्रोता हैं ।
अब आगे ⤵️
गीता अध्याय : 7 के ज्ञान सूत्र ⤵️
👉 ज्ञानी दुर्लभ हैं ।
●सभीं भूत अपरा प्रकृति के 08 तत्त्वों एवं
चेतना के योगसे हैं।
● हजारों लोगों में कोई एक सिद्धि हेतु यत्न करता है और इन यत्नशील योगियों में कोई एक मुझे तत्त्वसे जानता है ।
●गुणोंके भाव मुझसे हैं पर उन भावों में मैं नहीं ।
◆ सभीं प्राणी तीन गुणों से सम्मोहित रहने के कारण मुझ गुणातीत को नहीं समझ पाते ।
● अनेक जन्मों की तपस्यायों का फल ज्ञान है और ज्ञान से मुझे जाना जाता है ।
● त्रिगुणी दुस्तर माया मोहित असुर होता है ।
● अर्थार्थी , आर्त ( दुःख निवारण हेतु ) ,जिज्ञासु और ज्ञानी ये 04 प्रकार के उत्तम कर्म करने वाले भक्त मुझे भजते हैं ।
अब आगे ⤵️
श्लोक : 01
हे पार्थ ! अनन्य प्रेम से मुझ में आसक्त चित्त से मेरे परायण हो कर योग में लगा हुआ संदेह मुक्त अवस्था में जिस तरह तुम मुझे समग्र रूप में जानोगे , उसे अब मैं तुम्हें बताता हूँ ।
श्लोक : 02
अब मैं तेरे लिए उस अशेषतः सविज्ञान ज्ञानको कहूँगा जिसको जानने के बाद संसार में और कुछ जानने योग्य शेष नहीं रह जाता ।
गीता श्लोक : 9.1 और 14.1 में भी प्रभु ऐसी ही बात कहते हैं । आइये इन दो श्लोकों को भी देखते हैं ….
श्लोक : 9.1
तुम दोष दृष्टि रहित भक्त के लिए उस गोपनीय सविज्ञान ज्ञान को भलीभाँति कहूँगा जिसको जानकर तूँ दुःख रूप संसार से मुक्त हो जाएगा।
श्लोक : 14.1
अब मैं सर्वोत्तम ज्ञान फिर कहूँगा जिसको जानकर सभीं मुनिजन परम् सिद्धि को प्राप्त होते हैं ।
श्लोक : 03
मनुष्याणाम् सहस्रेषु कश्चित यतति सिद्धये ।
यतताम् अपि सिद्धानाम् कश्चित माम् वेत्ति तत्त्वं ।।
हजारों मनुष्योंमें कोई एक (कश्चित् ) सिद्धि हेतु यत्न करता है ।व्उन यत्न करनेवालों में कोई एक मुझे तत्त्वसे जानता है ।
श्लोक : 04 - 05
भूमि , जल , अग्नि , वायु , आकाश ,मन , बुद्धि , अहंकार - यह 08 प्रकार की मेरी अपरा प्रकृति है । इससे दूसरी जीवभूता परा प्रकृति है जो जगत् को धारण किये हुए है ।
श्लोक : 6
सम्पूर्ण भूत इन दो प्रकृतियों के योग से हैं ।
मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ ।
श्लोक : 07
मत्तः परतरं न अन्यम् किञ्चित् अस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वम् इदम् प्रोतम् सूत्रे मणिगणा : इव ।।
हे धनञ्जय !
मुझसे भिन्न और कोई परतर ( परम् कारण ) नहीं है ।
मुझ रूपी सूत्र में यह सम्पूर्ण संसार माले की मणियों की भांति गुथा हुआ है ।
श्लोक : 8 - 11 विभूतियों से संबंधित हैं
श्लोक : 08
प्रभु स्वयं के सम्बन्ध में कह रहे हैं ⤵️
➡️जल में रस , चंद्र - सूर्य प्रकाश , सर्व वेदों में प्रणव (ओंकार ) , आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ ।
श्लोक : 09
प्रभु स्वयं के सम्बन्ध में कह रहे हैं ⤵️
➡️ पृथ्वी की पवित्र गंध , अग्नि का तेज , सर्व भूतों का जीवन और तपस्वियों का तप , मैं हूँ ।
श्लोक : 10
प्रभु स्वयं के सम्बन्ध में कह रहे हैं ⤵️
👉 सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज , बुद्धिमानो की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज , मैं हूँ ।
श्लोक : 11
प्रभु स्वयं के सम्बन्ध में कह रहे हैं ⤵️
👉 बलवानोंका कामराज विवर्जित बल , सभीं भूतों में धर्मानुकूल
काम , मैं हूँ ।
श्लोक :12
प्रभु स्वयं के सम्बन्ध में कह रहे हैं ⤵️
➡️ सात्त्विक , राजस और तामस गुणों के भाव मुझे समझ पर
उन भावों में मैं नहीं रहता ।
श्लोक :13 : गुणभाव और संसार
👉 सर्व जगत् तीन गुणोंके भावोंसे मोहित है । इन तीन गुणों से परे मुझ अव्ययको कोई नहीं जानता ।
यहाँ निम्न गीता श्लोक : 18 . 40 को भी देखें 👇
श्लोक : 18.40
👉 पृथ्वी , आकाश और देवताओं में तथा इनके सिवा और कहीं भी ऐसा सत्व नहीं जो प्रकृति से उतपन्न तीन गुणों से अप्रभावित हो ।
श्लोक : 14
👉 मेरी दैवी दुस्तर माया त्रिगुणी है । निरंतर मुझे भजन वाले माया मुक्त हो जाते हैं ।
श्लोक : 15
👉 माया मोहित असुर स्वभाव वाले होते हैं ।
श्लोक - 16 > 04 प्रकार के लोग
👉 अर्थार्थी , आर्त , जिज्ञासु और ज्ञानी के 04 प्रकार के लोग मुझे भजते हैं ।
1 - अर्थार्थी - सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति हेतु मुझे भजते हैं ।
2 - आर्त - संकेत निवारण हेतु मुझे भजते हैं ।
3 - जिज्ञासु - तत्त्व से मुझे समझने हेतु मुझे भजते हैं ।
4 - ज्ञानी - ज्ञान प्राप्ति हेतु मुझे भजते हैं ।
श्लोक : 17 > ज्ञानी
👉 ऊपर बताई गई 04 श्रेणियों में से नित्ययुक्त , एकभक्ति ज्ञानी अति उत्तम है और मुझे प्रिय है ।
श्लोक : 18
श्लोक - 16 में जो 04 प्रकार के लोग बताये गए हैं वे सभीं उदार हैं पर ज्ञानी मेरे जैसा ही होता है जो मुझसे भर हुआ मुझमें ही बसेरा ब्याये हुए रहता है ।
श्लोक : 19 > ज्ञानी दुर्लभ हैं
बहूनाम् जन्मनाम् अन्ते ज्ञानवान् माम् प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वं इति सः महात्मा सु दुर्लाभः ।।
👉 कई जन्मों की तपस्या के बाद ज्ञानवान् वासुदेव को ही सबकुछ मानने लगता है पर ऐसे महात्मा दुर्लभ हैं ।
श्लोक : 20 - 23 देव पूजन संबंधित हैं
श्लोक :20 कामनापूर्ति और देवपूजन
👉 कामनापूर्ति के लिए देवपूजन अज्ञानी करते हैं ।
श्लोक :21 > देवपूजन
👉 जो - जो भक्त जिस - जिस देवकी इच्छित श्रद्धायुक्त पूजा करता है , उस - उस भक्त की श्रद्धा को उन - उन देवों में मैं उन्हें स्थिर करता हूँ।
श्लोक :22
👉 देवपूजन से कामना की पूर्ति संभव है ।
श्लोक :23
👉 देवपूजक ,देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे प्राप्त होते हैं ।
श्लोक :24 > अव्यवक्त
👉 बुद्धिहीन मेरे आराम भाव अव्ययको न जानते हुए मुझ अव्यक्तको व्यक्ति ही समझते हैं ।
श्लोक :25 > योगमाया
👉 मैं अपनी योगमाया में छिपा हुआ , प्रत्यक्ष नहीं होता ।
अज्ञानी समुदाय मुझ अजन्मा , अव्यय को न जानते हुए मुझे भी जन्म लेने वाला - मरनेवाला समझते हैं ।
श्लोक :26
👉 भूत काल और वर्तमान के भूतों को तथा भविष्य में होने वाले भूतों को मैं जानता हूँ लेकिन मुझे कोई नहीं जानता ।
श्लोक :27
👉 इच्छा - द्वेषसे उत्पन्न द्वन्द्व - मोहसे सभीं भूत सम्मोहित हैं ।
श्लोक :28
👉 पुण्य कर्म करनेवाले पापमुक्त द्वंद्व - मोह से मुक्त होते हैं और
मुझे भजते हैं ।
श्लोक :29 , 30
1- मेरे शरणागत जो जरा - मृत्यु मोक्ष हेतु यत्न करते हैं , वे
ब्रह्म ( 1 ) सम्पूर्ण अध्यात्म ( 2 ) और कर्म ( 3 ) को समझते हैं ।
2 -जो अधिभूत ( 5 ) , अधिदैव ( 6 ) , अधियज्ञ ( 7 ) सहित अंतकाल तक जान जाता है , वह युक्त चित्त मुझे जानता है ।
श्लोक : 28 + 30 अर्जुन के अगले प्रश्न ( श्लोक : 8.1 - 8.2 ) की जननी हैं
~~◆◆ ॐ ◆◆~~
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