Sunday, February 17, 2013

गुरु प्रसाद का अगला भाग


33 - असंख्य जप असंख्य भाऊ ......


" असंख्य जप असंख्य भाऊ ...
असंख्य पूजा असंख्य तप ताऊ ....
असंख्य गरंथ मुखि वेद पाठ ......
असंख्य जोग मनि रहहि उदास ....
असंख्य मोनि लिव लाइ तार ....
कुदरति कवण कहा बीचारु ......
तूं सदा सलामत निरंकार .....”

श्री नानक जी साहिब कह रहे हैं ...

जप , तप , भक्ति करता अनेक हैं
वेद शास्त्रों के पाठक अनेक हैं
समभाव खोजी अनेक हैं
मौन खोजी भी अनेक हैं
लेकिन
तूं तो सनातन निरंकार है
 मैं तेरे को कैसे समझूं ?

भक्त भगवान से प्रश्न कर रहा है , ऐसा भक्त जो परम प्रीति मे डूबा है / परम प्यारा भक्त क्षण भर भी प्रभु से अलग नहीं रह पाता , ज्योही उसका सम्बन्ध प्रभु से टूटता है वह ब्याकुल हो उठता है और प्रभु से प्रश्न करनें लगता है / यहाँ नानकजी साहिब जो बात कह रहे हैं वह उनकी बेचैनी है /
एक भक्त तब प्रभु से वार्तालाप करता है जब वह परा भक्ति के आयाम से वापस अपरा में आ गया होता है । श्री नानक जी साहिब कह रहे हैं , लोग जप , तप , वेद शास्त्र के माध्यमो से तुझे खोज रहे हैं लेकिन तूं तो निराकार सनातन है , मैं तुझको कैसे समझूं ? श्री गुरूजी साहिब एक तरफ तो यह कह रहे हैं कि तूं निराकार सनातन है और दूसरी तरफ यह भी कह रहे हैं कि मैं तेरे को कैसे जानूं ? क्या इतना जानना कि तूं निराकार सनातन है , कुछ अधूरा जानना है ?

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