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- मन्नै
पावहि मोखु दुआरु
"
मंनै
पावहि मोखु दुआरु
मंनै
परवारै साधारु
मंनै
तरै तारे गुरु सिख
मंनै
नानक भवहि न भिख
ऐसा
नाम निरंजन होई
जे
को मंनि जानै मनि कोई "
परम
प्रीति में डूबे गुरु की इस
वाणी में उनका अपना अनुभव छिपा
हुआ है ,
जो
इस बाणी से एक लय है ,
वह
प्रभु को
खोजता नहीं ,
उसमें
प्रभु बसे होते हैं
/
यहाँ
गुरूजी कह रहे हैं --
प्रभु
का नाम निरंजन होई
जो
कोई उसे ले मन बैठाई
प्रभु
प्रेमी ना होई भिखारु
सुमीर
-
सुमीर
सब उतर ही पारु
परम
प्रीति का रंग है ऐसा
एक
बार चढ़े सो
चढ़ता
ही जाए
साधना
के तीन तत्त्व हैं ;
प्रभु
,
गुरु
और सिख [
भक्त
]
; प्रभु
ध्येय है ,
गुरु
मार्ग हैं और सिख
वह परम प्रेमी होता है जो स्वयं
को अपनें गुरु को समर्पित कर
देता है ।
प्रभु
परम सत्य हैं ,
परम
सत्य की ओर रुख को जो करवाता
है ,वह
गुरु होता है
और
सिख
वह है जो गुरु के हर इशारे को
समझता है और उस पर अमल करता है
।
ऐसा
कहा गया है …....
पारस
एक पत्थर है जिसके संपर्क में
लोहा आ कर सोना बन जाता है
लेकिन
यदि
एक टोकरागोबर को पारस के पास
रख दिया जाए
तो
क्या
वह गोबर भी सोना बन जाएगा ?
जी
नहीं ,
पारस
केवल लोहे को सोना बनाता है
। गुरु है पारस और सिख
है -
लोहा
। यहाँ यह समझना जरुरी है
,
गुरु
तो गुरु ही रहता है जैसे पारस
लेकिन सोना बननें के लिए सिख
[
लोहा
]
बनना
ही पड़ेगा ,
यदि
वह गोबर है तो परम गुरु कुछ
नहीं कर पायेगा ।
=======
एक
ओंकार =====
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