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- सुणिआ
मंनिआ मनि कीता भाऊ

सुणिआ
मनिआ मनि कीता भाऊ
अंतरगति
तीरथि मलि नाउ
जा
करता सिरठी कउ साजे
आपे
जानै सोई
किव
करि आखा किव सालाही
किउ
बरनी किव जाणा ॥
जपजी
के माध्यम से आदि गुरूजी साहिब
बता रहे हैं …..
वह
- सृष्टि का रचना करता है ,
- करता पुरुष है
- सबकी सुध रखता है
- जो उसे बैठाए अपनें मन में
- वह स्वयं तीर्थ बन जाता है
- लेकिन उसे कैसे ब्यक्त करूँ ?
- कैसे उसका गुण गान करूँ ?
और
कैसेजानू
भक्त
ह्रदय और बुद्धि
के मध्य जब लटक जाता है तब
ऎसी बात करता है ;
कभीं
वह वेदान्त की बात करेगा,
कभीं
भक्ति की और कभीं सांसारिक
ब्यक्ति जैसी /
गुरू
जी साहिब बार – बार नाम जप की
बात कहते रहे हैं और यहाँ कहते
हैं कैसे उसे बताऊँ ?
क्या
जरुरत है उसे बतानें की और
किसको बताना चाहते हैं ?
और
कौन सुननें वाला है और कौन सुन
कर समझनें वाला है ?
यहाँ
सब भोग से भोग में हैं जो भगवान
को भी भोग की बस्तु समझते हैं
,
उनको
क्या लेना -
क्या
देना उसे जान कर लेकिन नानकजी
साहिब बताना जरुर चाहते हैं
,
यह
उनकी मजबूरी है ,
वे
बिनु बताए रह नहीं सकते /
नानकजी
साहिब के अंदर जो ऊर्जा उठ रही
है उसे कहीं तो प्रयोग करना
ही है ,
वे
उस ऊर्जा को बतानें के प्रयाश
में लगा रहे हैं /
नानक
जी के तीन मन्त्र हैं ;
जप
करो ,
कीरत
करो और जो अनुभूति हो उसे लोगों
में बाटो और यहाँ उनको बाटने
में अड़चन आ रही है /
एक
परा भक्त जो साकार उपासना
से निराकार में पहुच गया हो
,अपरा
भक्ति से परा में पहुँच गया
हो ,
वह
एक कटी पतंग की तरह बाहर -
बाहर
से दिखता है लेकिन अन्दर से
वह शांत झील की तरह रहता हुआ
कस्तूरी मृग की तरह प्रभु के
चारों तरफ नाचता रहता है । ऐसा
भक्त बाहर से पागल सा दिखता
है लेकिन होता है ,त्रिकालदर्शी
।
आदि
गुरु परा भक्त थे ,
जो
कहना चाहते थे कह न पाए ,
जो
देखना चाहते थे ,
उसे
देखे जरुर पर ब्यक्त न कर पाए
।
ऐसे
गुरु ,
ऐसे
भक्त ,
जो
प्रभु से परिपूर्ण होते हैं
,
वे
कई सदियों के बाद प्रकट होते
हैं ।
धन्य
था वह वक़्त ,
जब
भारत भूमि पर -----
नानकजी
साहिब ,मीरा
और कबीरजी साहिब एक साथ रहे
====
ओम्
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