Thursday, March 21, 2013

भक्ति से भवसागर पार की यात्रा [ 01 ]

गीता में अब्यभिचारिणी भक्ति , अनन्य भक्ति , परा भक्ति , जिस प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया गया है और यह भी कहा गया है कि जिनका इनसे सम्बन्ध होता है उनको परम धाम मिलता है / 

क्या है अब्यभिचारिणी भक्ति ?
क्य है परा भक्ति ? 
क्या है अनन्य भक्ति ? 

दो प्रकार की बुद्धियाँ हैं , एक बुद्धि है निश्चयात्मिका और दूसरी है अनिश्चयात्मिका
 अर्थात -----
एक बुद्धि वह हैं जिसके पास संदेह के लिए कोई जगह नहीं 
और 
दूसरी बुद्धि वह है जिसमें  संदेह का बसेरा होता है 

निश्चयात्मिका बुद्धि , अब्यभिचारिणी बुद्धि  , अनन्य बुद्धि , परा बुद्धि ये सब शब्द बुद्धि की एक विशेष स्थिति
 को ब्यक्त करते 
हैं जहाँ बुद्धि ......

आसक्ति , काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , अहँकार से अप्रभावित रहती है और ऎसी बुद्धि प्रभु की अनुभूति में होती है / 

जब मन - बुद्धि तंत्र निर्विकार होते हैं तब उस तन्त्र को प्रभु की तलाश नहीं होती , ऐसे तंत्र में प्रभु ही प्रभु होता है / 
कबीर जी साहिब , नानकजी साहिब और मीरा , राबिया , और रहीम , कुछ ऐसे नाम है जीके आधार पर अनन्य भक्ति , परा भक्ति , अब्यभिचारिणी भक्ति को समझा जा सकता है / 

भक्ति दो प्रकार की है ; एक अपरा भक्ति या साकार भक्ति और दूसरी अपरा या निराकार भक्ति / साकार भक्ति जब निराकार के द्वार को दिखाती है तब वह भक्त भगवान मय होता है लेकिन ऐसे भक्त दुर्लभ हैं और साकार भक्ति तो मात्र एक सुलभ माध्यम है / 

गंगा का घाट गंगा नहीं लेकिन गंगा में पहुंचाता जरुर है,  उनको जिनकी यात्रा रुकती नहीं लेकिन जो घाट पर ही बैठे हैं , उनके लिए गंगा न के बराबर है थीं इसी तरह जो साकार भक्ति में बस गए हैं वे घाट  के लोगों की तरह हैं ,  और जो साकार भक्ति में यात्री हैं , उनसे प्रभु दूर नहीं /

==== ओम् ------

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