Tuesday, December 14, 2010

ॐ शांति ॐ





जप ....

तप ....

ध्यान ......

पूजा ......

प्रार्थना ....

योग ......

कीर्तन .....

भजन ....

आदि से क्या होता है ?

गीता कहता है :

प्रभु का रस उस मन - बुद्धि में बहता है जिनमे .....

कोई संदेह न हो -----

कोई हाँ - ना का भाव न हो ....

सभी द्वत्य से मन बुद्धि अप्रभावित रहते हों .....

और यह सब तब होता है जब .....

कर्म - इन्द्रियों की चाल -----

ज्ञान - इन्द्रियों की चाल ----

मन की चाल , और ......

बुद्धि की चाल एक हो ॥

भोगी आदमी में उसकी ऊर्जा अन्दर से बाहर की ओर भागती है और योगी अपनें अन्तः करन को ऐसा

बना लेता है की .....

बाहर की ऊर्जा अर्थात कासमोस - उर्जा उनके अन्दर भरनें लगती है ।

वैज्ञानिक अब कहनें लगे हैं ------

आम आदमी मेंजो ऊर्जा इन्द्रियों से चेतना की ओर बहती है उसकी आबृत्ति लगभग दो सौ साइकल

प्रति सेकण्ड होती है लेकीन वही आदमी जब ध्यान की गहराई में पहुंचता है तब यह आबृत्ति लगभग

दो लाख साइकल प्रति सेकंस से भी अधिक हो जाती है और तब उस ध्यानी को :..............

यह आभाष होनें लगता है की -----

वह देह नहीं , वह स्वयं को अपने ही देह के बाहर महशूश करनें लगता है , इस स्थिति को .....

समाधी कहते हैं जहां .....

प्रभु की अनुभूति होती है ।

प्रभु की अनुभूति उसे होती है जिसकी -----

इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि निर्विकार हों और उनके अन्दर बहनें वाली ऊर्जा ऎसी हो जैसी ऊपर बताई गयी है ॥



==== ॐ शांति ॐ =====

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