Saturday, May 17, 2014

भागवत से - 09

1- भागवत : 7.1 > प्रभुसे बैर -भाव रखनें वाला प्रभु से जितना तन्मय हो जाता है उतनी तन्मयता भक्ति से प्राप्त करना अति कठिन है ।
2- भागवत : 1.2 > जीवन का सार है तत्त्व - जिज्ञासा ।
3 - भागवत : 7.11 > मन बिषयों का संग्रहालय है ,बिषयों का उचित ढंग से प्रयोग करनें से वैराग्य मिलता है ।
4- भागवत : 6.1 > वेद आधारित कर्म धर्म है ।
5- भागवत : 7.15 >  वैदिक कर्म दो प्रकार के हैं - निबृत्ति परक और प्रबृत्ति परक ; पहला वैरागी बनाता है और दूसरा भोग में आसक्त रखता है ।
6- गीता 18.48- 18.50 + 3.5+ 3.19-3.20 4 23, + 4.18 > कर्मकरनें से नैष्कर्म्य की सिद्धि मिलती है ,बिना कर्म यह संभव नहीं । सभी कर्म दोष युक्त हैं पर सहज कर्म तो करना ही चाहिए । आसक्ति रहित कर्म नैष्कर्म्य की सिद्धि में पहुँचाता है । नैष्कर्म्य की सिद्धि ज्ञान योग की परानिष्ठा है ।
7- भागवत : 8.5 > माया मोहित अपनें मूल स्वभाव से दूर रहता है ।
8- गीता :7.15 > माया मोहित असुर होता है ।
9- माया को भागवतके निम्न सूत्रों नें देखें :--- 9.1- भागवत : 1.7 > माया मोहित प्रभु को भी गुण अधीन समझता है ।
9.2 - भागवत : 2.9 > माया बिना आत्मा का दृश्य पदार्थों से सम्बन्ध संभव नहीं ।
9.3- भागवत : 3.5 > दृश्य - द्रष्टाका अनुसंधान करता माया है ।
9.4 - गीता :14.5 > तीन गुण ( माया ) आत्मा को देह में रोक कर रखते हैं ।
9 .5 - भागवत : 11.3 > भक्त माया का द्रष्टा होता है ।
9.6- भागवत : 6.5 > माया वह दरिया है जो सृष्टि -प्रलय के मध्य दोनों तरफ बहती है ।
9.7- भागवत : 11.3 > सभीं ब्यक्त का अब्यक्त में जाना और अब्यक्त से ब्यक्त होना माया आधारित है । 9.8- भागवत : 11.3 > तत्त्वों की प्रलय में वायु पृथ्वी के गुण गंध को खीच लेता है और गंध हीन पृथ्वी जल में बदल जाती है । जल से उसका गुण रस को वायु लेलेता है और जल अग्नि में बदल जाता है - यह सब माया से संभव है ।
9.9 - भागवत : 9.24 > जीव के जन्म ,जीवन और मृत्यु का कारण प्रभु के मायाका बिलास है ।
10 - भागवत : 9.9 > गंगा पृथ्वी पर उतरनेसे पूर्व बोली , " मैं  पृथ्वी पर नहीं उतर सकती क्योंकि लोग अपनें पाप मुझ में धोयेंगे और मैं उन पापों से कैसे निर्मल रह पाउंगी ? भगीरथ बोले ," आप चिंता न
करें ,आपके तट पर ऐसे सिद्ध योगी बसेंगे जिनके स्पर्श मात्र से आप निर्मल हो उठेंगी " ।
11- भागवत : 10.16 > 5 महाभूत , 5 तन्मात्र ,इन्द्रियाँ ,प्राण , मन ,बुद्धि इन सबका केंद्र है चित्त । 12- भगवत : 10.87 > श्रुतियाँ सगुण का ही निरूपण करती हैं और उनके द्वारा ब्यक्त भाव की गहरी सोच निर्गुण में पहुंचाती है ।
13- भागवत : 11.13 > आसन - प्राण वायु पर साधक का नियंत्रण होता है ।
14- भागवत : 11.7 > कल्पके प्रारम्भ में पहले सतयुग में एक वर्ण था -हंस ।
15- भागवत : 11.13 > बिषय बिपत्तियों के घर हैं।
~~ ॐ ~~

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