Saturday, June 28, 2025

काशी दर्शन भाग 01 प्राचीन इतिहास


काशी दर्शन

भाग - 01 : काशी का प्राचीनतम इतिहास

मार्क ट्वेन कहते हैं , " बनारस, इतिहास से भी पुराना है, परंपराओं से पुराना है, और किंवदंतियों से भी प्राचीन है "।  

वैदिक काल से लेकर आधुनिक वाराणसी (24 मई 1956 को आधिकारिक नामकरण ) काशी  न केवल धर्म व दर्शन, बल्कि व्यापार, संगीत व साहित्य की धरोहर है ।

पहले मनु स्वायंभुव मनु के 11 /16 वें वंशज काश ने काशी को बसाया था और उनके नाम पर इस नगर का नाम काशी रखा गया। कुछ पुराणों में काश को मनु के 11 वें वंशज और कुछ में 16 वें वंशज भी बताया गया है ।

 शतपथ ब्राह्मण (शुक्ल यजुर्वेद का ग्रन्थ ) में काशी का उल्लेख मिलता है, और इसे "तेजस्वी" या "प्रकाशमय" नगर के रूप में अंतः-निहित रूप में वर्णित किया गया है। 

शतपथ ब्राह्मण (13.5.4.20) में काशी को ब्रह्मविद्या का केंद्र माना गया है। काश्यप और उद्दालक जैसे विद्वानों का संबंध इस क्षेत्र से माना गया है। शतपथ में काश्य लोगों का उल्लेख है — जिसका संबंध काशी जनपद से माना गया है। प्रकाश के नगर के रूप में काशी का अर्थ संभवतः "काश" धातु से निकला है ; काश् संस्कृत धातु का अर्थ होता है — प्रकाशित होना, चमकना, दीप्त होना। इस धातु से "काशी" शब्द बना है — अर्थात् "जो प्रकाशित करती है", "दीप्त नगरी"। यहां प्रकाश या दीप्त , ज्ञान के संबोधन हैं ।

 स्कंद पुराण के काशी खंडमें काशी के संबंध में बताया गया है। मत्स्य पुराण में काशीमें गंगा की पवित्रता का वर्णन किया गया है ।  कुछ पुराणों के अनुसार ,भगवान शिव द्वारा काशीकी स्थापना की गई है जिसके आधार पर काशीको शिवकी नगरी और मोक्षदायिनी पुरी माना जाता है । यह नगरी भगवान शिव के त्रिशूल पर स्थित बताई गई है और इस कारण से काशी को  त्रिशूलकेशी पुरी भी कहा गया है। 

स्कन्द पुराण में विभिन्न संदर्भों में काशी के अनेक नाम मिलते हैं जैसे अविमुक्त क्षेत्र,मोक्षभूमि, महाश्मशान , कृत्तिवासपुरी , आनन्दवन और काशीपुरी आदि। अविमुक्त क्षेत्र उस क्षेत्र को कहते हैं जिस क्षेत्र में शिव की उपस्थिति हर पल बनी रहती है। स्कन्द पुराण में यह भी कहा गया है कि जो काशी में प्राण त्याग रहा होता है , उस समय  भगवान शिव स्वयं तारण मंत्र (राम नाम) कान में देते  हैं — इसे कर्ण मंत्र कहा गया है और उस मृतक कोआवागमन से मुक्ति मिल जाती है ।

चंदौली (काशी के निकट) की लखनिया दरी गुफाओं में 8,000–10,000 वर्ष पुराने मानव बस्तियों के अवशेष पाए गए हैं , जिसके आधार पर पाषाण कालीन काशी के अस्तित्व को समझा जा सकता है। 

महाभारत में भीष्म द्वारा काशी की तीन राजकुमारियों (अंबा, अंबिका , अंबालिका) के हरण की कथा काशी और हस्तिनापुर के संबंध को दर्शाती है ।

 बाल्मीकि रामायण में काशी नरेश का अपमान व भगवान राम द्वारा उनके वध का प्रसंग भी मिलता है। 


ईसा पूर्व 6वीं शताब्दी में गौतम बुद्ध ने सारनाथ में पहला उपदेश "धर्मचक्र प्रवर्तन" दिए और यहीं पर पंचवर्गीय भिक्षुओं का प्रथम संघ भी बनाया गया था।


जैन धर्म के 7 वें सुपार्श्वनाथ और 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म काशी में हुआ था और 11 वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म सारनाथ में , इस प्रकार जैन मान्यता के 25 तीर्थंकरों में से 3 का सीधा संबंध काशी क्षेत्र से है ।

सम्राट अशोक , सारनाथ में धर्मराजिका स्तूप व अशोक स्तंभ बनवाए थे ।

प्रारंभ में बताया गया कि काशी प्रथम मनु के 11 वें वंशज राजा  काश द्वारा बसाई गई है, अब इस संबंध प्रथम।मनु स्वायंभुव मनु के संबंध में कुछ बातों को समझ लेना चाहिए। श्रीमद्भागवत पुराण : 3.12.20 में ब्रह्मा के प्रारंभिक 11 निम्न पुत्रों की चर्चा की गई है …

मरीचि , अत्रि , अंगिरा , पुलस्त्य , पुलह , क्रतु , भृगु , वशिष्ठ, दक्ष , नारद और स्वायंभुव मनु । अब स्वायंभुव मनु - पहले मनु के समय के बारे में श्रीमद्भागवत पुराण में दी गई गणित के आधार पर समझते हैं …

ब्रह्मा का एक दिन 1000( चारयुगों की अवधि ) के बराबर मानी जाती है जो 4.32 billion human years के बराबर है। ब्रह्मा का एक दिन एक कल्प कहलाता है। एक कल्प में 14 मनु होते हैंएक मनु का समय 308.571 million years का होता है। वर्तमान का समय 7 वें मनु का समय है और इस प्रकार इस गणित के आधार पर लगभग 1.85 billion years पहले काशी नगरी पहले मनु के बंशज द्वारा बसाई गई थी। 

पहले मनु के समय गंगा यमुना का क्षेत्र ब्रह्मावर्त कहलाता था जिसके सम्राट पहले मनु हुआ करते थे और इनकी राजधानी यमुना तट पर बसी बर्हिष्मति हुआ करती थी। 

~~ ॐ ~~ 

Friday, June 13, 2025

वेद जिज्ञासा भाग - 02 वेद अंगों से परिचय


भाग - 02

वेद के 04 अंग

वेद जिज्ञासा भाग - 01 में बताया गया कि आदि सतयुग में प्रणव नाम से एक वेद था । समयांतर में एक वेद तीन वेदों में बट गया और द्वापर में एक और वेद विकसित हो गया । गुरु और शिष्य के मतभेद के कारण यजुर्वेद का कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद के रूप में विभाजन हो गया । ऋग्वेद , शेष वेदों की बुनियाद है । 

  संहिता , ब्राह्मण , आरण्यक और उपनिषद वेदों के अंग माने जाते हैं और इन चार अंगों के समूह को वेद कहते हैं ।  वेद के चार अंगों में संगीता शेष चार अंगों की जननी है ।


ऋग्वेद , यजुर्वेद ( शुक्ल और कृष्ण ) , सामवेद और अथर्ववेद में से जिस किसी वेद को जानने की जिज्ञासा उठे तब उस विशेष वेद के चार अंगों से गुजरना चाहिए। यह लेख वेदों के अंगों से परिचय कराने के उद्देश्य से तैयार किया गया है । 


वेद के चार अंग , वेद के एक क्रमिक विकास को दर्शाते हैं - बाह्य कर्मकांड (संहिता, ब्राह्मण) से प्रतीकात्मक और मानसिक साधना (आरण्यक) की ओर और फिर शुद्ध दार्शनिक ज्ञान एवं मोक्ष (उपनिषद्) की ओर। वेदांत दर्शन का मूल आधार इन्हीं उपनिषदों में निहित है।

वेद अंगों से परिचय 

क्र. सं .

अंग

अंगों। की शैली और मूल विषय

1

संहिता

चार वेद हैं और हर वेद की एकन्या एकणी अधिक संहिता है। संहिता अपनें वेद के मूल मंत्रों के संग्रह को कहते हैं जिनके आधार पर शेष तीन अंगों की रचना की गई है।

2

ब्राह्मण

कर्मकांड अर्थात यज्ञ एवं यज्ञ - विधियों का विस्तृत विवरण, व्याख्या आदि वेद के ब्राह्मण ग्रन्थ की विषय हैं । यह गृहस्थ यजमानों के लिए विकसित किए गए हैं।

3

आरण्यक

आरण्यक , आरण्य में रह रहे वानप्रस्थ जीवन जीने वालों के लिए साधना की उच्च भूमियों को प्राप्त करने के लिए रचे गए है।

4

उपनिषद् 

उपनिषद् ऐसे साधकों के लिए हैं जो ब्राह्मण एवं आरण्यक माध्यम से साधना की उच्च भूमियों में पहुंच चुके होते है , वैराव्यवस्था में होते हैं और कैवल्य मुखी होते हैं। ये ज्ञान योग के आधार हैं ।

ऊपर तालिका में वेदों के चार अंगों से संक्षिप्त रूप में परिचय कराया गया अब इन अंगों के विषय वस्तु को कुछ विस्तार से देखते हैं ….

1.  संहिता 

वेद के मूल मंत्र-संग्रह को उसकी संहिता कहते हैं। चार वेद हैं और हर वेद से संबंधित एक या एक से अधिक संहिताएं हैं । मूलतः संहिता के सूक्त / मंत्र पद्य शैली में होते हैं। ऋग्वेद में ऋचाएँ (स्तुतियाँ), यजुर्वेद में यजुष् (यज्ञ में प्रयुक्त गद्य मंत्र), सामवेद में सामन् (स्वरबद्ध मंत्र) और अथर्ववेद में अथर्व (जादू -टोना , टोटका , आयुर्वेद तथा दर्शन आदि ) संबंधित सूक्त / हैं। 


2. ब्राह्मण ग्रन्थ 

ब्राह्मण ग्रन्थ गृहस्थ जीवन जीने वाले यजमानों के लिए हैं। संहिता में दिए गए सूक्तों / मंत्रों के आधार पर कर्मकांड जैसे यज्ञ , यज्ञ - विधियों का विस्तृत विवरण, व्याख्या और औचित्य प्रस्तुत करना , इनका उद्देश्य है । ब्राह्मण अपने संबंधित वेद में प्रस्तुत यज्ञों के नियमों, विधियों, उनके प्रतीकार्थों, दार्शनिक आधारो , यज्ञके प्रत्येक कृत्य, मंत्र, द्रव्य और पुरोहित के कर्तव्यों का वर्णन करते हैं । यज्ञों को शास्त्रोक्त ढंग से, पूर्ण शुद्धता और प्रभावी ढंग से  सम्पन्न कराना , ब्राह्मण ग्रंथों का उद्देश्य है । ब्राह्मण ग्रन्थ कर्मकांड पर बल देते हैं और यज्ञ को ही सर्वोच्च धर्म व फलदायी मानते हैं। हर वेद का अपना एक या एक से अधिक ब्राह्मण ग्रन्थ हैं ।


3. आरण्यक ग्रन्थ  

आरण्यक ग्रन्थ वानप्रस्थी यजमानों के लिए उपयोगी हैं। ब्राह्मण ग्रंथों में दिए गए विषयों के तत्त्वों के सूक्ष्म भावों पर चित्त को केंद्रित बनाए रखने के अभ्यास पर , आरण्यक ग्रन्थ केंद्रित रखते हैं। ये ब्राह्मण ग्रंथों में दिए गए साधना से प्राप्त साधना की भूमियों से आगे उच्च भूमियों में पहुंचाते हैं। इनमें यज्ञ की आग को प्राणाग्नि, यज्ञक्रिया को मानसिक उपासना के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।


4. उपनिषद् 

 उपनिषद् अपने वेद के परम लक्ष्य और शुद्ध तत्त्व ज्ञान को प्रस्तुत करते हैं । वेदों का अंतिम भाग होने के कारण इन्हें वेदांत कहते हैं । उपनिषद् गहन दार्शनिक चिंतन पर केंद्रित हैं। इनमें मुख्य विषय , ब्रह्म (परम सत्य, समस्त सृष्टि का आधार), आत्मन् (व्यक्ति का शाश्वत तत्व), ब्रह्म और आत्मा की एकता (तत्त्वमसि, अहं ब्रह्मास्मि), माया (विश्व की व्यष्टि शक्ति), मोक्ष (जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति), ज्ञान मार्ग की श्रेष्ठता आदि हैं ।

 व्यक्ति को अज्ञान के अंधकार से निकालकर परम सत्य के प्रत्यक्ष ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) की प्राप्ति कराना और उसके माध्यम से मोक्ष के द्वार तक पहुंचाना , उपनिषद् के उद्देश्य हैं । 

अगले लेख में वेदांगो से संबंधित विशेष जानकारी प्रस्तुत की जाएगी ।

~~ ॐ ~~

Saturday, June 7, 2025

वेद जिज्ञासा भाग - 01


भाग - 01

वेद क्या बताते हैं ?

 श्रीमद्भागवत (11.17) तथा महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार ⤵️

  • आदि सतयुग के प्रारंभ में एक ही वेद था — जिसे प्रसव वेद  कहा गया।

  • यह वेद श्रुति के रूप में स्वयं ऋषियों के हृदय में स्फूर्त होता था। यह वचन - उपासना की बुनियाद होता था। 

  • यह वेद संपूर्ण ज्ञान का समावेशी स्रोत था अर्थात ब्रह्म, ब्रह्म , आत्मा , कर्म, ध्यान एवं उपासना की ऊर्जा उत्पन्न करता था। 

आदि सतयुग में एक वेद एवं एक वर्ण था ; इस विषय पर हमें गंभीरता से सोचना चाहिए । त्रेतायुग में एक वेद तीन वेदों में विभक्त हो गए जिसे वेद त्रय कहा गया और एक वर्ण चार वर्णों में बट गया। द्वापर आते - आते एक और वेद विकसित हो गया और वर्ण चार बने रहे । यजुर्वेद दो में विभक्त हो गया - कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद । यह गुरु और शिष्य में आपसी मत भेद के कारण हुआ । 

वर्तमान अर्थात कलियुग में चार वेद हैं और हर वेद चार में विभक्त है जिन्हें वेदों के अंगों के रूप में जाना जाता है । वेदों के चार अंग निम्न प्रकार हैं ..

  • संहिता

  • ब्राह्मण

  • आरण्यक 

  • उपनिषद् 

वेदों के अंगों से संबंध में आगे के लेखों में चर्चा होगी , अभी चार वेदों के मूल विषयों से परिचय करते हैं । ऋग्वेद

  • इसमें हमारे सोचने का विषय क्या हो ?/ हमें क्या जानना चाहिए ? विषयों को स्पष्ट किया गया है । 

  • सभी देवताओं ,जड़ एवं चेतन में ऊर्जा संचालित करने वाले सविता एवं प्रकृति के विभिन्न देवताओं जैसे इंद्र, अग्नि, वरुण, सोम, सूर्य आदि की प्रार्थना, प्रशंसा और आह्वान करनेवाली स्तुतियों (ऋचाओं) हैं।

  • सृष्टि रचना (नासदीय सूक्त), तत्त्व ज्ञान, नैतिकता और ब्रह्मांड के रहस्यों की ओर इशारा करनेवाले दार्शनिक विचार  हैं।


 यजुर्वेद  …


  • इसमें हम क्या करें? आधारित  यज्ञों को करने की विधि , संबंधित सूक्त एवं मंत्र है ।

  • यज्ञ (कर्मकांड)करने के तरीकों का विवरण है ।

  • यज्ञ में पढ़े जाने वाले गद्य मंत्र (यजुस) हैं ,जो कर्मकांड के विभिन्न चरणों, अर्पण विधियों और नियमों को निर्दिष्ट करते हैं। 

  • कर्म (क्रिया) और यज्ञ की व्यावहारिकता को स्पष्ट किया गया है।

कृष्ण और शुक्ल दो यजुर्वेद हैं ।

 कृष्ण यजुर्वेद  …

मंत्रों और कर्मकांडिक निर्देशों (ब्राह्मण गद्य) का मिश्रण देखा जाता है और  मंत्र तथा व्याख्या साथ - साथ दिए गए हैं।।

शुक्ल यजुर्वेद  ..

  • मंत्रों (यजुस) का शुद्ध संकलन है।

  •  इसके कर्मकांडिक निर्देश अलग ग्रंथ (शतपथ ब्राह्मण ) में दिए गए हैं। 

  • इस वेद को अधिक व्यवस्थित माना जाता है। 

  • यह कर्मकांडिक प्रक्रियाओं पर केंद्रित है। 

 सामवेद

  • हम कैसे गाएँ ? का पूर्ण स्वर विज्ञान, हैं । 

  • ऋग्वेद की चुनी हुई ऋचाओं को संगीतमय रूप में प्रस्तुत की गई हैं । 

  • संगीत ज्ञान और देव - स्तुतियों को संगीतमय ढंग से प्रस्तुत करने की पूरी जानकारी है। 

  • मंत्रों के गाने के लिए स्वरलिपि (सामन्) दी गई हैं।

  • यज्ञ में सोमरस अर्पण के समय गाए जाने वाले गीतों का संग्रह है। 

  • यह वेद ऋग्वेद का संगीतमय संस्करण है जिसमें भक्ति - भाव को संगीत के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है


अथर्ववेद ..

  • कैसे जिएँ ? प्रश्न का सम्पूर्ण गणित है। 

  •  ऋग्वेद से भिन्न प्रकार के मंत्रों का संग्रह है।

  • जनसामान्य के दैनिक जीवन से संबंधित विषय जैसे रोग निवारण, आयुर्वेद, जादू-टोना, शांति, प्रेम, शत्रु पराजय, राजनीति, धातु विज्ञान, दीर्घायु, गृह निर्माण, कृषि आदि संबंधित मंत्र आदि दिए गए हैं।

  •  व्यावहारिक जीवन, चिकित्सा, समाजशास्त्र और लौकिक समस्याओं के समाधान पर केंद्रित , जीवन के विविध पहलुओं का ज्ञानकोश  है ।

  • इसमें दार्शनिक सूक्त भी हैं। मंत्रों के समूह को सूक्त कहते हैं ।


अगले अंक में वेदों के चार अंगों को स्पष्ट किया जायेगा ।

~~ ॐ ~~