भाग - 02
वेद के 04 अंग
वेद जिज्ञासा भाग - 01 में बताया गया कि आदि सतयुग में प्रणव नाम से एक वेद था । समयांतर में एक वेद तीन वेदों में बट गया और द्वापर में एक और वेद विकसित हो गया । गुरु और शिष्य के मतभेद के कारण यजुर्वेद का कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद के रूप में विभाजन हो गया । ऋग्वेद , शेष वेदों की बुनियाद है ।
संहिता , ब्राह्मण , आरण्यक और उपनिषद वेदों के अंग माने जाते हैं और इन चार अंगों के समूह को वेद कहते हैं । वेद के चार अंगों में संगीता शेष चार अंगों की जननी है ।
ऋग्वेद , यजुर्वेद ( शुक्ल और कृष्ण ) , सामवेद और अथर्ववेद में से जिस किसी वेद को जानने की जिज्ञासा उठे तब उस विशेष वेद के चार अंगों से गुजरना चाहिए। यह लेख वेदों के अंगों से परिचय कराने के उद्देश्य से तैयार किया गया है ।
वेद के चार अंग , वेद के एक क्रमिक विकास को दर्शाते हैं - बाह्य कर्मकांड (संहिता, ब्राह्मण) से प्रतीकात्मक और मानसिक साधना (आरण्यक) की ओर और फिर शुद्ध दार्शनिक ज्ञान एवं मोक्ष (उपनिषद्) की ओर। वेदांत दर्शन का मूल आधार इन्हीं उपनिषदों में निहित है।
वेद अंगों से परिचय
ऊपर तालिका में वेदों के चार अंगों से संक्षिप्त रूप में परिचय कराया गया अब इन अंगों के विषय वस्तु को कुछ विस्तार से देखते हैं ….
1. संहिता
वेद के मूल मंत्र-संग्रह को उसकी संहिता कहते हैं। चार वेद हैं और हर वेद से संबंधित एक या एक से अधिक संहिताएं हैं । मूलतः संहिता के सूक्त / मंत्र पद्य शैली में होते हैं। ऋग्वेद में ऋचाएँ (स्तुतियाँ), यजुर्वेद में यजुष् (यज्ञ में प्रयुक्त गद्य मंत्र), सामवेद में सामन् (स्वरबद्ध मंत्र) और अथर्ववेद में अथर्व (जादू -टोना , टोटका , आयुर्वेद तथा दर्शन आदि ) संबंधित सूक्त / हैं।
2. ब्राह्मण ग्रन्थ
ब्राह्मण ग्रन्थ गृहस्थ जीवन जीने वाले यजमानों के लिए हैं। संहिता में दिए गए सूक्तों / मंत्रों के आधार पर कर्मकांड जैसे यज्ञ , यज्ञ - विधियों का विस्तृत विवरण, व्याख्या और औचित्य प्रस्तुत करना , इनका उद्देश्य है । ब्राह्मण अपने संबंधित वेद में प्रस्तुत यज्ञों के नियमों, विधियों, उनके प्रतीकार्थों, दार्शनिक आधारो , यज्ञके प्रत्येक कृत्य, मंत्र, द्रव्य और पुरोहित के कर्तव्यों का वर्णन करते हैं । यज्ञों को शास्त्रोक्त ढंग से, पूर्ण शुद्धता और प्रभावी ढंग से सम्पन्न कराना , ब्राह्मण ग्रंथों का उद्देश्य है । ब्राह्मण ग्रन्थ कर्मकांड पर बल देते हैं और यज्ञ को ही सर्वोच्च धर्म व फलदायी मानते हैं। हर वेद का अपना एक या एक से अधिक ब्राह्मण ग्रन्थ हैं ।
3. आरण्यक ग्रन्थ
आरण्यक ग्रन्थ वानप्रस्थी यजमानों के लिए उपयोगी हैं। ब्राह्मण ग्रंथों में दिए गए विषयों के तत्त्वों के सूक्ष्म भावों पर चित्त को केंद्रित बनाए रखने के अभ्यास पर , आरण्यक ग्रन्थ केंद्रित रखते हैं। ये ब्राह्मण ग्रंथों में दिए गए साधना से प्राप्त साधना की भूमियों से आगे उच्च भूमियों में पहुंचाते हैं। इनमें यज्ञ की आग को प्राणाग्नि, यज्ञक्रिया को मानसिक उपासना के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
4. उपनिषद्
उपनिषद् अपने वेद के परम लक्ष्य और शुद्ध तत्त्व ज्ञान को प्रस्तुत करते हैं । वेदों का अंतिम भाग होने के कारण इन्हें वेदांत कहते हैं । उपनिषद् गहन दार्शनिक चिंतन पर केंद्रित हैं। इनमें मुख्य विषय , ब्रह्म (परम सत्य, समस्त सृष्टि का आधार), आत्मन् (व्यक्ति का शाश्वत तत्व), ब्रह्म और आत्मा की एकता (तत्त्वमसि, अहं ब्रह्मास्मि), माया (विश्व की व्यष्टि शक्ति), मोक्ष (जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति), ज्ञान मार्ग की श्रेष्ठता आदि हैं ।
व्यक्ति को अज्ञान के अंधकार से निकालकर परम सत्य के प्रत्यक्ष ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) की प्राप्ति कराना और उसके माध्यम से मोक्ष के द्वार तक पहुंचाना , उपनिषद् के उद्देश्य हैं ।
अगले लेख में वेदांगो से संबंधित विशेष जानकारी प्रस्तुत की जाएगी ।
~~ ॐ ~~