Sunday, June 29, 2014

भागवत से - 17

●● यदु , रघु , कुरु और पुरु कुल ●● 
सन्दर्भ : भागवत स्कन्ध - 9
 ^^ यदु ,रघु , कुरु और पुरु इन शब्दों को यदि संगीत में उतारा जाय तो चारों की एक कम्पोजिसन होगी । आइये भागवत में देखते हैं इन चार कुलोंकी एक झलक ।
 ° यदु कुलमें प्रभु श्री कृष्णका जन्म हुआ था।
 ° रघु कुलमें प्रभु श्री रामका जन्म हुआ था।
 ° पुरु बंश में कुरु , हस्ती औए जयद्रत हुए 
° कुरु बंश में ही जरासंध भी पैदा हुआ था।
 <> अब बिस्तार से ---- 
1- ब्रह्मासे अत्रि ऋषि हुए , अत्रिसे चन्द्रमा , चन्द्रमा बृहस्पतिकी पत्नी को चुरा लिये और बुध का जन्म हुआ ।ब्रह्मा का यह एक बंश चला ,अब देखते हैं दुसरे बंश को :--- 
2-ब्रह्मा से कश्यप ऋषि , कश्यपसे विवस्वान् ( सूर्य ) , सूर्यसे श्राद्धदेव मनु और मनुके पुत्र सद्युम्न हुए जो शिव श्रापसे पुरुष एवं स्त्री दोनों रूपों में होते थे।स्त्रीरयो में सुद्युम्न और चन्द्रमा पुत्र बुध से पुरूरवा का जन्म हुआ और इनसे चन्द्र बंश आगे चला। श्राद्धदेव मनुके अन्य 10 पुत्रों ( इक्ष्वाकु एवं अन्य ) से सूर्य बंशी क्षत्रियों का बंश प्रारम्भ हुआ ।
 3- चन्द्र बंशी पुरुरवा - उर्बशीका मिलन सरस्वती नदीके तट पर कुरुक्षेत्रमें हुआ और 06 पुत्र पैदा हुए। पुरुरवाके बंश में तीसरे बंशज थे ययाति जिनकी दो पत्नियाँ थी ; एक थी देवयानी , शुक्राचार्यकी पुत्री और ... दूसरी थी दैत्यराज बृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठा ।
 4- देवयानीसे यदु हुए और शर्मिष्ठासे आगे चल कर मन्धाताकी पुत्री बंशमें रघु का जन्म हुआ ।अर्थात ययाति कुल में शुक्राचार्य पुत्री से यदु कुल आगे चला जिसमें कृष्ण का अवतार हुआ और दैत्य पुत्री कुल में श्री राम का जन्म हुआ । 
5- रघु कुल में श्री रामके पुत्र कुश बंशमें तक्षक पैदा हुआ जो परीक्षितके मौतका कारण बना । 
6- शर्मिष्ठाके तीन पुत्रोंमें एक पुत्र थे पुरु ।पुरु कुल में कुरु और हस्ती कुल बने। पुरुबंश में भरत हुए जो 27000 वर्ष राज्य किया और इस बंशके हस्ती हस्तिनापुरको बसाया।हस्ती बंशमें कुरु हुए जो कुरुक्षेत्रको बसाया । जयद्रत भी इसी कुल का था और कुरु कुलमें जरासंधका भी जन्म हुआ था ।
 7 - शंतनु भी इस कुलके थे और इनके कुल में धृतराष्ट्र एवं पांडुका जन्म हुआ । 
<> यदु , पुरु , कुरु और रघु का इतिहासका सार श्रीमद्भागवत पुराणके आधार पर , यहाँ आपको दिया गया । भागवत की कथा इन कुलोंपर आश्रित है ।
 ~~~ ॐ ~~~

Wednesday, June 25, 2014

भागवत से - 16

<> भगवान श्री राम की बहन <> 
# भागवत स्कन्ध - 9.23 से # 
<> चन्द्रबंशी पुरुरवा और उर्बशीके 06 पुत्रों में एक आयु थे और अनु आयुके पौत्र ययातिके पुत्र थे । अनुके बंश में अनुके बाद पांचवें बंशज हुए बलि । बलिके बंश में बलिके पुत्र अंग से आगे चौथे बंशज हुए चित्ररथ अर्थात चित्ररथ ययाति से आगे 10 वें बंशज थे । 
 * चित्ररथ अयोध्या नरेश दशरथके मित्र थे ।दशरथ अपनीं पुत्री शांताको चित्ररथको गोद देदिया था जबकि उनको अपनी कोई और औलाद न थी।शांता कौशल्या की पुत्री थी
 * चित्ररथ शांताका ब्याह ऋष्यश्रृंगके साथ कर दिया । ऋष्यश्रृंगका जन्म ऋषि विभान्दक द्वारा एक हिरनीके गर्भ से हुआ था । 
~~~ श्री राम ~~~

Tuesday, June 24, 2014

भागवतसे - 15

<> भागवतसे - 15 <> [ कनखल भाग - 2 ]
 ● ' भागवतसे - 14' में कनखलके सम्बन्ध में भागवतके आधार पर कुछ बातें बताई गयी हैं और अब इस सम्बन्ध में कुछ और बातें दी जा रही हैं । 
** सन्दर्भ : भागवत प्रथम खंड , माहात्म्य । गुजरातमें भक्ति एवं उसके दोनों बेटों - ज्ञान वैराग्यके ऊपर कलियुगका बहुत बुरा असर पड़ा , वे तीनों बृद्धा अवस्थामें आगये और हर पल सोये रहते थे । गुजरात में पाखंडियों द्वारा भक्ति पर इतना अत्याचार होनें लगा कि उसको गुजरात छोड़ कर वृन्दावन आकर शरण लेनी पड़ी ।वृन्दावन , यमुना तट पर भक्ति और नारदका मिलन होता है। वृन्दावन पहुँचने पर भक्ति तो जवान हो गयी पर उसके दोनों बेटे वैसे के वैसे रहे । भक्तिसे अपनें बेटों कीयह दशा देखि नहीं जा रही ,वह नारद से अपनें बेटोंको कलियुगके प्रभाव से मुक्त करानें का उपाय पूछ रही है ।
 * नारद कहते हैं , " भक्ति ! यह वृन्दावन है जहाँ भक्ति को सभीं चाहते हैं पर यहाँ ज्ञान -वैराग्य के लिए कोई जगह नहीं " ।
 * नारद भक्तिके बेटों को कलियुग -कुप्रभाव से मुक्त करानें हेतु विचरते हुए बिशाला पूरी पहुँचे जहाँ उनको सनकादि ऋषियों से मिलना हुआ । सनकादि ऋषि नारद को कहते हैं , " हे नारद ! तुम गंगा द्वार समीप स्थित आनंद आश्रम जाओ और वहाँ भागवत कथाका आयोजन करो । वहाँ भक्ति अपनें दोनों बेटों के साथ आएगी और कथा सुननें के बाद ज्ञान - वैराग्य को कलियुग -प्रभाव से मुक्ति मिल जायेगी ।
 * आनद आश्रम पर नारदको भागवत कथा सनकादि ऋषि सुनाये जहाँ सभीं राज ऋषि ,ब्रह्म ऋषि एवं अन्य सभीं सिद्ध आत्माएं उपस्थित थी । 
*यह गंगाद्वारे समीपे आनंद आश्रम वही मैत्रेय ऋषिका आश्रम है जहाँ मैत्रेय ऋषि विदुर जी को तत्त्व - ज्ञान दिया था ।यहाँ गंगा जी की रेत मुलायम रेत हुआ करती थी और यहाँ कमल की खुशबूं हर पल बनी रहती थी । आइये ! चलते हैं भागवतके आनंद आश्रम पर जिसे आज कनखलके नाम से जाना जाता है ।
 ~~ हरि हरि ~~

Friday, June 20, 2014

भागवत से - 14

● कनखल और हरिद्वार ( भाग - 1 ) ●
# भागवत : खंड - 1 महात्म्य : अध्याय -3 #
<> गंगाद्वारके समीप आनंद आश्रम पर सनकादि ऋषियोंद्वारा नारदको भागवत कथा सुनाई गयी थी । नारद भक्ति एवं भक्ति पुत्रों ज्ञान - वैराग्यके उद्धार हेतु इस कथाका आयोजन किया था । जरा सोचना कि यह स्थान कहाँ रहा होगा ?
* आनंद आश्रमके चारो तरफ हांथी ,शेर जैसे जानवर भी प्यार से रहा करते थे।यहाँ गंगा की रेत अति कोमल होती थी और यहाँ हर समय कमल की गंध रहती थी। इस आश्रम पर सिद्ध ऋषियों का आवागमन लगा रहता था ।
* भागवत : 3.5 > मैत्रेय ऋषिके आश्रमके सम्बन्ध में यहाँ द्वार शब्द आया है ।विदुर जी को जब प्रभात क्षेत्र पहुँचने पर पता चला कि अब महा भारत युद्ध समाप्त हो गया है ,हस्तीनापुर के सम्राट युधिष्ठिर हैं तब वे वहाँ से सरस्वती तटसे वापिस होते हुए बृंदा बन पहुंचे जहाँ उनकी मुलाकात उद्धव से हुयी थी । उद्धव उनको तत्त्व ज्ञान प्राप्त करनें हेतु द्वार समीप मैत्रेयके आश्रम जानें की बात कही थी । गंगा द्वार के समीप वह कौन सी पवित्र जगह हो सकती है जहाँ मैत्रेय ऋषि का आनंद आश्रम हुआ करता था ?
* भगवत : 3.20 : मैत्रेयका आश्रम कुशावर्त क्षेत्र में था ।यहाँ मैत्रेय आश्रम को कुशावर्त क्षेत्रमें बताया गया है जो द्वार के पास में था ।
* भागवत : 11.1+11.30 जब यदुकुलके अंत जा समय आया ,उस समय प्रभु अकेले सरस्वती नदी के तट पर पीपल पेड़के नीचे शांत हो कर बैठे थे । प्रभात क्षेत्र का यह वह स्थान था जहाँसे पश्चिम दिशामें सरस्वती सागर में गिरती थी । उस समय वहाँ उद्धव और मैत्रेय ऋषि उनके साथ थे । इन दोनो को प्रभु तत्त्व ज्ञान दे रहे थे । प्रभु जब तत्त्व ज्ञान दे चुके तब मैत्रेयको बोले कि आप इस ज्ञान को विदुर जी को देना और उद्धव जी से बोले कि अब तुम बदरिकाश्रम जा कर वहाँ समाधि योग में स्थित हो जाओ ,वह भी मेरा ही क्षेत्र है ।
~~ ॐ ~~

Tuesday, June 17, 2014

शुक्रताल का रहस्य

<> सन्दर्भ : भागवत : 1.9 <> 
°° वह स्थान कहाँ है जहाँ 16 वर्षीय व्यास जी के पुत्र शुकदेव जी सम्राट परीक्षित को उनके अंतिम समय आनें पर 18000 श्लोकोंकी भागवत - कथा सुनाई थी ? जबकि शुकदेव जी किसी जगह पर मात्र उतनें समय तक रुकते थे जितना समय एक गायके दूध को निकालनें में लगता है । 
** इस सम्बन्ध में भागवतमें जो कहता है उसे ध्यान से समझें :- ●गंगाके तट पर जहाँ परीक्षित बैठे थे ● 
1- वह गंगाका दक्षिणी तट था ।अर्थात वहाँ गंगा पश्चिम से पूर्व की ओर बह रही थी जबकि आज हरिद्वार से हस्तिनापुरके मध्य गंगा कहीं भी पूर्व मुखी नहीं दिखती । 
2- परीक्षित उत्तर मुखी कुशके आसन पर बैठे थे । 
3- कुश पूर्व मुखी स्थिति में बिछाए गए थे अर्थात कुश के नोकीले छोर पूर्व मुखी रखे गए थे ।अब आगे :--- 
<> आज हरिद्वारसे हस्तिनापुर तक गंगा उत्तर से दक्षिण दिशा में बह रही हैं ।ज्यादातर लोगोंका मानना है कि मुज़फ्फरनगर से पूर्व में स्थित शुक्रताल वह स्थान है जहाँ सुकदेवजी परीक्षितको भागवत कथा सुनाया था । शुक्रताल हस्तिनापुर से लगभग 50 किलो मीटर उत्तर में है और गंगाके ठीक तट पर नहीं है । शुक्र ताल मुज़फ्फर नगर से लगभग 28 किलो मीटर पूर्व में गंगा की ओर है ।हो सकता है कि उस समय गंगा शुक्रताल से बह रही हों और वहाँ उनका बहाव पूर्व मुखी रहा हो ।
 ** परीक्षित के बाद 6वें बंशज हुए नेमिचक्र जिनके समय में गंगा हस्तिनापुर को बहा ले गयी थी और नेमिचक्र यमुना के तट पर प्रयाग केपास स्थित कौशाम्बी नगरमें जा बसे थे । 
* कौशाम्बी बुद्ध के समय एक ख्याति प्राप्त ब्यापारिक केंद्र होता था जो बुद्ध के आवागमनका भी केंद्र था । 
* जब गंगा हस्तिनापुर को बहा के गयी उस समय गंगा का मार्ग आजके शुक्रताल से कुछ और पूर्व की ओर हो गया हो । हस्तिनापुर को गंगा आज से लगभग 3450 साल पहले बहा ले गयी थी ( देखें भागवत : 12.1-12.2 )। 
~~~ हरे कृष्ण ~~~

Saturday, June 7, 2014

भागवत से - 13

<> उर्बशी <> 
*भागवत : 9.4 से * 
 ब्रह्माके पुत्र अत्रिके नयनों से चन्द्रमा पैदा हुए । चन्द्रमासे प्रभावित होकर ब्रह्मा उन्हें ब्राह्मणों , ओषधि और नक्षत्रोंका अधिपति बना दिया । चन्द्रमा देवताओं के गुरु बृहस्पति की पत्नी ताराको चुरा लिया । देवगुरु बृहस्पति पत्नी ताराकी वापिसी हेतू बार - बार चन्द्रमा से याचना करते रहे पर उनपर कोई असर न पड़ा । बृहस्पति ब्रह्मा पुत्र अंगिराके पुत्र थे ।तारा केलिए देवताओं और असुरों का घोर संग्राम हुआ । असुरों का साथ दे रहे थे शुक्राचार्य जी क्योंकि वे बृहस्पति से द्वेष करते थे ।अंगिरा महादेवके विद्या गुरु थे अतः महादेव जी भी बृहस्पतिका साथ दिया ।अंत में अंगिरा ऋषि ब्रह्मा से प्रार्थना की और ब्रह्माके दबाव में चन्द्रमा तारा को लौटाया ।तारा जब बृहस्पतिके पास वापिस आयी तब वह गर्भवती थी और एक खूबसूरत पुत्र बुध पैदा हुआ । बुध चन्द्रमाके पुत्र रूप में जाने गए । * ब्रह्माके एक और पुत्र मरीचि थे ,उनसे कश्यप ऋषि का जन्म हुआ । कश्यपसे विवश्वान् का जन्म हुआ और विवश्वान् से सातवें मनु श्राद्ध देव जी पैदा हुए । श्राद्ध देवके पुत्र थे सुद्युम्न जो कुछ समय स्त्री देह में होते थे तो कुछ समय पुरुष देह में ,ऐसा उनको शिव श्राप के कारण होना पड़ता था । जब वे स्त्री होते थे तब उनको इला नामसे जाना जाता था । इला और बुध से पुरुरवा का जन्म हुआ ।पुरुरवा चन्द्र बंश की बुनियाद रखी।
 * एक दिन पुरुरवाकी खूबसूरतीका वर्णन स्वर्ग में इंद्र के दरबार में नारद सुना रहे थे जिसे उस दरबार की सबसे अधिक खूबसूरत अप्सरा उर्बशी सुन रही थी। उर्बशी सुनते - सुनते कामातुर हो उठी और पुरुरवा को पानें की सोचमें पृथ्वी पर पुरुरवाके पास आगई ।
 * पुरुरवा और उर्बशी से 06 पुत्र हुए जिनसे चन्द्र वंश आगे 
बढ़ा । 
* उर्बशी जब पुरुरवाको त्याग कर स्वर्ग जानें लगी तब पुरुरवा उर्बशी को रोकने के लिए बहुत यत्न किये लेकिन विफल रहे । उर्बशी पुरुरवा को कहती है , " राजन ! स्त्री किसी की मित्र नहीं , उसका हृदय भेडिये के हृदय जैसा होता है । वह अपनी लालसाओं की गुलाम होती है । स्त्री अपनी लालसा की पूर्ति केलिए कुछ भी कर सकती है यहाँ तक कि वह अपनें पति ,पिता और भाई तक को मरवा सकती है । पुरुरवा और उर्बशी कुरुक्षेत्र में सरस्वती तट पर मिले थे ।
 ** इस कहानी से आप को क्या मिला ? ** 
-- हरे कृष्ण --

Tuesday, June 3, 2014

भागवत से - 12

<> भागवतमें याज्ञवल्क्य ऋषि <>
 ** भागवत सन्दर्भ ** भागवत में याज्ञवल्क्य ऋषिके सम्बन्ध में निम्न स्कंधों में कुछ बाते कही गयी हैं जिनको आप यहाँ देख सकते हैं । >> 9.1+9.12+ 9.13+ 9.22 +10.2 10.84+11.1+12.6 << 
^^ भागवत 9.12.1- 9.12.4 +10.2 > श्री रामके बंशमें 14वें बंशज हुए हिरण्यनाभ जिनकी शिष्यता प्राप्त करके कोशल देशवासी याज्ञवल्क्य ऋषि अध्यात्म - योगकी शिक्षा ग्रहण की थी । हिरण्यनाभ योगाचार्य थे और जैमिनी के शिष्य थे। जैमिनी को वेदव्यास द्वारा सामवेद की शिक्षा मिली थी ।हिरण्यनाभके अगले 6वें बंशज हुए मरू जो सिद्ध थे और आज भी सिद्धों की बस्ती कलाप गाँव में अदृश्य रूप से रह रहे हैं जो सूर्य बंश समाप्त हो जानें पर पुनः इस बंश की नीव रखेंगे । 
^^ भागवत : 9.1+ 9.13 > राजा निमि मिथिला नरपति के बंशजो पर याज्ञवल्क्य जैसे बड़े - बड़े योगेश्वरों की कृपा बनी थी ।मिथिलाके विदेह परम्पता में माँ सीताजीके पिता राजा जनक 21वें जनक हुए और भागवत में कुल 51 जनकों की बात कही गयी है ।ब्रह्मा के पुत्र थे ,मरीचि ऋषि और मरीचिके पुत्र हुए कश्यप ऋषि । कश्यपके पुत्र थे विवश्वान् ( सूर्य ) जिनके पुत्र हुए इस कल्प के सातवें मनु श्राद्धदेव । श्राद्धदेव मनुके पुत्र सुद्युम्न जब बन में तप करनें हेतु चले गए तब यमुना तट पर श्राद्धदेव 100 वर्ष तक तप करके 10 पुत्रों को प्राप्त किया । श्राद्धदेव के इन 10 पुत्रों में बिकुक्षि,निमि और दण्डक तीन प्रमुख थे । बिकुक्षि से श्री राम का बंश बना और निमि से मिथिला नरेश जनक -विदेह राजाओं की परंपरा चली इस प्रकार श्री राम और माँ सीता दोनों की जड़ एक है । 
^^ भागवत : 9.22 > परीक्षित पुत्र जनमेजय थे जिनका पुत्र शतानीक होंगे (भागवत रचना तक शतानिक पैदा नहीं हुए थे ) जो याज्ञवल्क्य ऋषि से तीन वेदों एवं कर्मकांड की शिक्षा लेंगे ।शतानिकके बाद 4थे बंशज होंगे नेमिचक्र जिनके समय गंगा हस्तिनापुर को बहा ले जायेंगी और नेमिचक्र यमुना तट पर प्रयाग के पास कौशाम्बी में जा बसेंगे । यह कौशाम्बी वही है जहां बुद्ध कई बार आये थे । यह कौशाम्बी क़स्बा बुद्ध के समय ब्यापारियों का मुख्य आकर्षण हुआ करता था । 
^^ भागवत : 10.84 > महाभारत युद्ध पूर्व कुरुक्षेत्र समन्तप पंचक तीर्थ में सर्वग्रास सूर्य ग्रहण लगा हुआ था । उस समय कुरुक्षेत्र में सभीं जनपदों से राजा -सम्राट आये हुए थे । यह ऐसा अवसर था जब यशोदा -नन्द एवं प्रभु कृष्ण की बचपन की गोपियाँ ,ग्वाल -बाल भी कुरुक्षेत्र कृष्ण से मिलनें आये हुए थे । इस पुनीत पावन पर्व पर बसुदेव जी एक यज्ञ का आयोजन किये थे जिसमें भाग लेने 29 ऋषि आये थे जिनमें एक थे याज्ञवल्क्य । (भागवत : 11.1) जब यदु कुलका अंत होना था ,प्रभु अपनें 125 साल का समय गुजार कर अपनें स्वधाम जानें ही वाले थे तब द्वारका के पिंडारक क्षेत्र में जो 11 ऋषि रुके हुए थे उनमें याज्ञवल्क्य न थे ।ये ऋषि कृष्ण से गोपनीय चर्चा करनें हेतु द्वारका में पधारे थे और इस अवसर पर ब्रह्मा प्रभु से स्वधाम वापिस जानें का निवेदन किया था ।ऋषियों और प्रभु के मध्य ठीक यदु कुल के अंत होने से पूर्व हुयी यह चर्चा अति गोपनीय थी ।
 ^^ भागवत : 12.6.48-53 > वेदव्यास जी एक वेदको चार भागों में विभक्त किया । ऋग्वेदका ज्ञान पैल ऋषिको दिया । यजुर्वेद की शिक्षा वैशम्पायन ऋषि को दिया , सामवेद का ज्ञान जैमिनी को दिया और जैमिनी के पुत्र सुमंत मुनि को अथर्वेद का ज्ञान दिया ।पेल ऋषि के शिष्य बाष्कल याज्ञवाल्क्य को ऋग्वेद का ज्ञान दिया था और वैशम्पायन से यजुर्वेद का ज्ञान भी याज्ञवल्क्य को मिला था ।याज्ञवल्क्य अपनें गुरु वैशंपायन से खुश न थे अतः उनको त्याग दिया और उनके द्वारा प्राप्त ज्ञान की उलटी कर दिया। कुछ अन्य विद्वानों ने इस उलटी को चाट लिया और उनके माध्यम से यजुर्वेद की एक नयी शाखा तैत्तिरीय यजुर्वेद बना । याज्ञवल्क्य सूर्य की उपासना की और अनेक वैज्ञानिक बातें बताई ।याज्ञवल्क्य की सूर्य आराधना से सूर्य प्रसन्न हो गए और उनको यजुर्वेद का गहरा राज बताया और याज्ञवल्क्य यजुर्वेद की 15 शाखाओं की रचना की । 
** याज्ञवल्क्य के सम्बन्ध में भागवत प्रसंग यहाँ समाप्त
 होता है ** 
~~ॐ ~~