Thursday, May 29, 2014

भागवत से - 11

● ऋषभ देव ● <> भागवत सन्दर्भ : 1.3 +3.13 + 3.21 + 5.1- 5.12 + 11.2- 11.5 +11.25 
<> ऋषभ देव को समझनें के किये कुछ निम्न सन्दर्भों को भी समझना होगा । 
## भागवत में तीन प्रमुख बंश बताये गए हैं जो इस प्रकार हैं । 1- ब्रह्मा पुत्र मरीचि और मरीचि पुत्र कश्यपका बंश। 2- ब्रह्मा पुत्र अत्रि और अत्रि पुत्र चन्द्रमा का बंश । 3- ब्रह्मा पुत्र स्वायम्भुव मनु का बंश जो इस कल्पके पहले मनु भी थे । 
## ब्रह्मा के 10 पुत्रों के नाम इस प्रकार से हैं । * मरीचि * अत्रि * अंगीरा * पुलस्त्य * पुलह * क्रतु * भृगु * वसिष्ठ * दक्ष * नारद ।। 
## एक कल्प में 14 मनु होते हैं प्रत्येक मनु 71.6/14 चतुर्युगीय का समय भोगता है ।एक चतुर्युगीय समय = 1000 ( चरों युगों का समय ) । 
°° एक चतुर्तुगीय का समय = 4320000 साल । 
°° 14 मनुओं का समय = 4.2 billion years. 
°° सत युग = 1,728,000 साल °° त्रेता युग = 1,296,000 साल
 °° द्वापरयुग = 0,864,000 साल °° कलियुग = 0,432,000 साल 
 ** स्वायम्भुव मनु इस कल्प के पहले मनु थे और द्वापर में महाभारत युद्ध के समय श्राद्धदेव मनु सातवें मनु थे जो ब्रह्मा पुत्र मरीचि ,मरीचि पुत्र कश्यप ,कश्यप पुत्र विवश्वान् ( सूर्य ) और सूर्य पुत्र श्राद्धदेव मनु थे । श्राद्धदेव से सूर्य बंश और चन्द्र बंश दोनों चले । यहाँ सोचिये कि पहले चार मनुओं के समय में चन्द्र बंश और सूर्य बंश क्या नहीं थे ? अब आगे :-- 
* श्राद्धदेव मनुका पुत्र हुआ सुद्युम्न जो कभीं स्त्री तो कभीं पुरुष होता था । स्त्री सुद्युम्न और चन्द्रमा पुत्र बुधसे क्षत्रियों का चन्द्र बंश चला और जब सुद्युम्न अपनें जीवन से ऊब गए तब बन में तप करनें हेतु चले गए ।इसके बाद बंश को आगे चलानें हेतु श्राद्धदेव मनु यमुना तट पर 100 सालका तप करके 10 पुत्रोंको प्राप्त किया जिनमें बड़े थे इक्ष्वाकु । इक्ष्वाकु से सूर्य बश की नीव पड़ी । ** स्वायम्भुव मनु ( पहले मनु ) के पुत्र थे प्रियब्रत । प्रियब्रतके पुत्र हुए आग्नीघ्र तथा आग्नीघ्रके पुत्र हुए नाभि और ऋषभदेव नाभिके पुत्र थे ।।
 <> ऋषभ देव <>
 <> भागवत के रिषभ देव जैन परम्परा के प्रथम तीर्थंकर थे जिनका सन्दर्भ ऋग्वेद में भी मिलता है ।दिगंबर शब्द ऋषभ देव जी के जीवन शैली से निकला है । 
 ** जैन शास्त्र कहते हैं की रिषभ देव कैलाश पर परम निर्वाण प्राप्त की लेकिन भागवत में इस सम्वन्ध में निम्न बातें दी गयी हैं । ऋषभ जी को 100 पुत्र हुए जिनमें भरत बड़े थे । ऋषभ भरत को राज्य देकर दिगंबर अवधूत रूपमें ब्रह्मावर्त से बाहर निकल गए और अजगर की बृति को अपना ली । अजगर जैसे पृथ्वी पर लेट कर यात्रा करते हुए कुटकाचल के जंगल में लगी आग में वे अपनें शारीर को त्याग दिया । आज का कर्नाटक कुटकाचल है । ** ऋषभ जी का ब्याह इंद्र कन्या जयंती से हुआ था। ऋषभ जी के पिता नाभि और माँ ( विश्वकर्मा पुत्री ) मेरु देवी ऋषभ जी को राज्य देकर बदरिका बन तप हेतु चले गए थे । ऋषभ जी को हिन्दू लोग 8वें अवातात रूप में देखते हैं ।भरत एक करोड़ साल तक राज्य किये थे ।
 ~~ हरे कृष्ण ~~

Sunday, May 18, 2014

भागवत से - 10

1- भागवत : 11.3 > दुःख निबृत्ति और अहंकार की तृप्ति केलिए हम कर्म करते हैं पर होता क्या है ? दुःख और। बढ़ता जाता है और अहंकार और सघन होता जाता है ।
2- भागवत : 11.21 > वेद कर्म ,उपासना और ज्ञान माध्यम से ब्रह्म -आत्मा की एकता की अनुभूति कराते हैं ।
3- भागवत : 11.21.> कामना दुःख का बीज है । 4- भागवत :11.21 > निर्वाण के तीन मार्ग हैं -कर्म योग , भक्ति योग और ज्ञान योग ।
5- भागवत : 11.21 > वेदों में तीन काण्ड हैं जो अपनें - अपनें ढंग से ब्रह्म -आत्मा की एकता को स्पष्ट करते हैं ,ये काण्ड हैं - कर्म , उपासना और ज्ञान।
6- भागवत : 11.25 > गुण का प्रभाव स्वभावका निर्माण करता है ,स्वभावतः लोग अलग -अलग प्रकार के होते हैं ।
7- भागवत : 11.25 > मनुष्य शरीर दुर्लभ है जिससे तत्त्व ज्ञान एवं विज्ञान की प्राप्ति संभव है । 8- भागवत : 11.25 > इन्द्रियों की दौड़ से परे मन यात्रा नहीं करता ।
9- भागवत : 11.28 > परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप में जो है वह आत्मा ही है ।
10- भागवत : 3.26 > प्रकृति के कार्य : 10 इन्द्रियाँ , 5 भूत , 5 तन्मात्र , मन ,बुद्धि ,अहंकार और चित्त ।
~~~ ॐ ~~~

Saturday, May 17, 2014

भागवत से - 09

1- भागवत : 7.1 > प्रभुसे बैर -भाव रखनें वाला प्रभु से जितना तन्मय हो जाता है उतनी तन्मयता भक्ति से प्राप्त करना अति कठिन है ।
2- भागवत : 1.2 > जीवन का सार है तत्त्व - जिज्ञासा ।
3 - भागवत : 7.11 > मन बिषयों का संग्रहालय है ,बिषयों का उचित ढंग से प्रयोग करनें से वैराग्य मिलता है ।
4- भागवत : 6.1 > वेद आधारित कर्म धर्म है ।
5- भागवत : 7.15 >  वैदिक कर्म दो प्रकार के हैं - निबृत्ति परक और प्रबृत्ति परक ; पहला वैरागी बनाता है और दूसरा भोग में आसक्त रखता है ।
6- गीता 18.48- 18.50 + 3.5+ 3.19-3.20 4 23, + 4.18 > कर्मकरनें से नैष्कर्म्य की सिद्धि मिलती है ,बिना कर्म यह संभव नहीं । सभी कर्म दोष युक्त हैं पर सहज कर्म तो करना ही चाहिए । आसक्ति रहित कर्म नैष्कर्म्य की सिद्धि में पहुँचाता है । नैष्कर्म्य की सिद्धि ज्ञान योग की परानिष्ठा है ।
7- भागवत : 8.5 > माया मोहित अपनें मूल स्वभाव से दूर रहता है ।
8- गीता :7.15 > माया मोहित असुर होता है ।
9- माया को भागवतके निम्न सूत्रों नें देखें :--- 9.1- भागवत : 1.7 > माया मोहित प्रभु को भी गुण अधीन समझता है ।
9.2 - भागवत : 2.9 > माया बिना आत्मा का दृश्य पदार्थों से सम्बन्ध संभव नहीं ।
9.3- भागवत : 3.5 > दृश्य - द्रष्टाका अनुसंधान करता माया है ।
9.4 - गीता :14.5 > तीन गुण ( माया ) आत्मा को देह में रोक कर रखते हैं ।
9 .5 - भागवत : 11.3 > भक्त माया का द्रष्टा होता है ।
9.6- भागवत : 6.5 > माया वह दरिया है जो सृष्टि -प्रलय के मध्य दोनों तरफ बहती है ।
9.7- भागवत : 11.3 > सभीं ब्यक्त का अब्यक्त में जाना और अब्यक्त से ब्यक्त होना माया आधारित है । 9.8- भागवत : 11.3 > तत्त्वों की प्रलय में वायु पृथ्वी के गुण गंध को खीच लेता है और गंध हीन पृथ्वी जल में बदल जाती है । जल से उसका गुण रस को वायु लेलेता है और जल अग्नि में बदल जाता है - यह सब माया से संभव है ।
9.9 - भागवत : 9.24 > जीव के जन्म ,जीवन और मृत्यु का कारण प्रभु के मायाका बिलास है ।
10 - भागवत : 9.9 > गंगा पृथ्वी पर उतरनेसे पूर्व बोली , " मैं  पृथ्वी पर नहीं उतर सकती क्योंकि लोग अपनें पाप मुझ में धोयेंगे और मैं उन पापों से कैसे निर्मल रह पाउंगी ? भगीरथ बोले ," आप चिंता न
करें ,आपके तट पर ऐसे सिद्ध योगी बसेंगे जिनके स्पर्श मात्र से आप निर्मल हो उठेंगी " ।
11- भागवत : 10.16 > 5 महाभूत , 5 तन्मात्र ,इन्द्रियाँ ,प्राण , मन ,बुद्धि इन सबका केंद्र है चित्त । 12- भगवत : 10.87 > श्रुतियाँ सगुण का ही निरूपण करती हैं और उनके द्वारा ब्यक्त भाव की गहरी सोच निर्गुण में पहुंचाती है ।
13- भागवत : 11.13 > आसन - प्राण वायु पर साधक का नियंत्रण होता है ।
14- भागवत : 11.7 > कल्पके प्रारम्भ में पहले सतयुग में एक वर्ण था -हंस ।
15- भागवत : 11.13 > बिषय बिपत्तियों के घर हैं।
~~ ॐ ~~

Wednesday, May 14, 2014

तत्त्व -प्रलय का विज्ञान

<> योगीश्वर का तत्त्व ज्ञान <> भगवत : 11.3 ( राजा निमि और योगीश्वरो का संबाद ) > योगीश्वर कौन थे ? ऋषभ जी को 100 पुत्र थे जिन में भरत बड़े थे और ऋषभ जी के उत्तराधिकारी के रूप में भारत वर्ष के सम्राट बने । ऋषभ जी के अन्य 9 पुत्र योगीश्वर ( निबृत मार्गी ) बन गए जो प्रायः दिगंबर रूप में रहते थे । राजर्षि भारत के नाम पर अजनाभ वर्ष का नाम भारत वर्ष पड़ा । > राजा निमि कौन थे ? राजा निमि सिद्ध योगी के साथ साथ मिथिला नरेश थे । निमि को संतान न थी अतः उनके देह मंथन से पुत्र हुआ और तब से विदेह राजाओं की परम्परा प्रारम्भ हुयी । सीता माँ के पिता राजा जनक 21वे जनक थे । भागवत में कुल 51 विदेह -जनक राजाओं की चर्चा है ।
 * यज्ञ के अवसर पर और नौ योगीश्वर राजा निमि को जो तत्त्व ज्ञान दिया था उस ज्ञान को नारद बासुदेव जी को दिया था उस ज्ञान को यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है । 
<> योगीश्वरका तत्त्व - ज्ञान <>
 ^^ तत्त्व - प्रलयके समय :-----
 # वायु पृथ्वी से उसके गुण गंध को छीन लेती है और पृथ्वी जल में बदल जाती है । # वायु जलसे उसका गुण रसको खीच लेती है और जल अग्नि में बदल जाता है । # अन्धकार अग्नि से उसका रूप छीन लेता है और अग्नि वायु में बदल जाती है ।
 <> सार <> 
** प्रलयके समय पहले जल ही जल होता है फिर जल अग्नि में बदल जाता है और तब सर्वत्र अन्धकार छा जाता है और सर्वत्र अँधेरे में वायु ही वायु होती है ** 
## वायुसे आकाश उसके गुण स्पर्श को छीनता है फलस्वरुप वायु आकाश में समा जाती है । 
## आकाश से काल उसके गुण शब्द को छीन लेता है और आकाश तामस अहंकारमें समाजाता है।। 
** सारांश ** 
^^ तत्त्व प्रलय में पहले जल ही जल हो जाता है ,फिर अग्नि ही अग्नि होती है फिर सर्वत्र अन्धकार होता है तथा अन्धकार में वायु ही वायु होती है ।वायु फिर आकाश में समा जाती है और सर्वत्र आकाश की शून्यता हो जाती है औरआकाश तामस अहंकार में रूपांतरित हो जाता है ^^
 >> इन्द्रियाँ ,प्राण और बुद्ध राजस अहंकार में बिलीन हो 
जाते हैं ।
 << मन और इन्द्रियों के देवतागण सात्विक अहंकार में बदल जाते हैं । 
** तीन अहंकार महतत्त्व में समा जाते हैं ।
 ** महतत्त्व प्रकृति में लीन हो जाता है ।
 ** प्रकृति ब्रह्माके सूक्ष्म रूप में समा जाती है । 
*** ॐ ***

Monday, May 12, 2014

भागवत से - 8

<> भागवत ' 6.18.42
*  कल्प के प्रारम्भ में जब कश्यप ऋषि और दिति के पुत्र हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का बध हो गया तब दिति कश्यप से कहती है कि आप से मैं ऐसे पुत्र को चाहती हूँ जो इंद्र को मार सके । कश्यप दिति से कहते हैं , " स्त्रियाँ अपनी लालासाओंकी गुलाम होती हैं । वे किसी से प्यार नहीं करती । वे अपने स्वार्थ पूर्ति केकिये भाई ,पति और पुत्र तक का भी बध करवा सकती
 हैं ।" 
<> भागवत :9.14.36+9.14.37 
* ब्रह्मा पुत्र ऋषि अत्रि एवं अनसूया से चन्द्रमाका जन्म हुआ ।चन्द्रमा बृहस्पति की पत्नी तारा को चुरा लिया और बुधका जन्म हुआ । बुधसे पुरुरवा हुए जिनसे चन्द्र बंश प्रारम्भ हुआ । त्रेता युग के प्रारम्भ में पुरुरवा और उर्बशी से 06 पुत्र हुए ।सुहाग रात के अवसर पर उर्बशी पुरुरवा से त्रेता युग के प्रारम्भ में कह 
रही है ," स्त्रियों की किसी से मित्रता नहीं होती । स्त्रियाँ निर्दय होती हैं । स्त्रियों के स्वभाव में क्रूरता छिपी होती है । वे अपनें स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकती हैं । वे प्यार से विश्वास दिला कर पति और भाई तक को भी मरवा सकती हैं ।"
 <> इस कल्प के प्रारम्भ में और त्रेता युगके प्रारम्भकी  इन दो भागवत की कथाओं से आप को क्या शिक्षा मिलती है ?
 ~~ ॐ ~~

Tuesday, May 6, 2014

भागवत से - 7

1- भागवत : 1.2 > धर्म वह जो प्रभु से जोड़ कर रखे , जिसका सम्बन्ध कामना से न हो । धर्मसे भक्ति ,भक्ति से अनन्य प्रेम , अनन्य प्रेम से वैराग्य , वैराग्य से ज्ञान तथा ज्ञान से प्रभु को तत्त्व को समझनें की उर्जा मिलती है ।
2- भागवत : 11.19 > 28 तत्त्वों ( 11 इन्द्रियाँ , 5 महाभूत ,5 तन्मात्र , 3 गुण ,महतत्त्व ,अहंकार , प्रकृति ,पुरुषका बोध ज्ञान है ।
3- भागवत : 2.1 > भोगी का दिन धन संग्रह में और रात स्त्री प्रसंग में कटती है ।
4- भागवत : 2.1 > आसन नियंत्रण , श्वास नियंत्रण , इन्द्रिय नियंत्रण , आसक्ति का न होना ,क्रोध रहित रहना और मनका प्रभु पर केन्द्रित रहना स्थिर प्रज्ञताके लक्षण हैं ।
5- भागवत : 2.1 > 5 महाभूत , महतत्त्व और प्रकृति इन 7 आवरणों से घिरे ब्रह्मांड शरीर में विराट पुरुष है ।
6- भागवत : 4.8 > मोह असंतोषका बीज है ।
7- भागवत : 4.8 > रेचक , कुम्भज और पूरक से प्राण , इन्द्रियाँ और मन को निर्मल रखा जाता है ।
8- भागवत : 2.2 > अंत समय से पूर्व मन को देश -काल के सम्मोहन से दूर रखनें का अभ्यास होना चाहिए ।
9- भागवत : 2.2 > अनन्य प्रेम परम पदका द्वार है।
10- भागवत : 2.4+3.5 > शब्द से द्रष्टा -दृश्य का बोध होता है ।
11- भागवत : 2.9 > बिना माया दृश्य पदार्थों से आत्माका सम्बन्ध होना संभव नहीं ।
12- भागवत : 2.4 +3.5 > द्रष्टा -दृश्यका अनुसंधान करता माया है ।
13-भागवत : 3.27 > प्रकृति -पुरुषको अलग करना संभव नहीं ।
14- भागवत : 3.28 > प्राण वायु पर जिसका नियंत्रण है वह शुद्ध मन वाला होता है ।
15- भागवत : 3.29 > गुण परिवर्तन मनुष्यके अन्दर भाव परिवर्तनका कारण है ।
~~ ॐ ~~

Saturday, May 3, 2014

भागवतसे - 6

1- भागवत : 1.2 > धर्म वह जो प्रभु से जोड़ कर रखे , जिसका सम्बन्ध कामना से न हो । धतं से भक्ति ,भक्ति से अनन्य प्रेम और अनन्य प्रेम से वैराग्य एवं वैराग्य से ज्ञान तथा ज्ञान से प्रभु को तत्त्व को समझनें की उर्जा मिलती है ।
2- भागवत : 11.19 > 28 तत्त्वों ( 11 इन्द्रियाँ , 5 महाभूत ,5 तन्मात्र , 3 गुण ,महतत्त्व ,अहंकार , प्रकृति ,पुरुष )का बोध ज्ञान है ।
3- भागवत : 2.1 > भोगी का दिन धन संग्रह में और रात स्त्री प्रसंग में कटती है ।
4- भागवत : 2.1 > आसन नियंत्रण , श्वास नियंत्रण , इन्द्रिय नियंत्रण , आसक्ति का न होना ,क्रोध रहित रहना और मनका प्रभु पर केन्द्रित रहना स्थिर प्रज्ञताके लक्षण हैं ।
5- भागवत : 2.1 > 5 महाभूत , महातत्त्व और प्रकृति इन 7 आवरणों से घिरे ब्रह्मांड शरीर में विराट पुरुष है ।
6- भागवत : 4.8 > मोह असंतोषका बीज है ।
7- भागवत : 4.8 > रेचक , कुम्भज और पूरक से प्राण , इन्द्रियाँ और मन को निर्मल रखा जाता है ।
8- भागवत : 2.2 > अंत समय से पूर्व मन को देश -काल के सम्मोहन से दूर रखनें का अभ्यास होना चाहिए ।
9- भागवत : 2.2 > अनन्य प्रेम परम पदका द्वार है। 10- भागवत : 2.4+3.5 > शब्द से द्रष्टा -दृश्य का बोध होता है ।
11- भागवत : 2.9 > बिना माया दृश्य पदार्थों से आत्माका सम्बन्ध होना संभव नहीं ।
12- भागवत : 2.4 +3.5 > द्रष्टा -दृश्यका अनुसंधान करता माया है ।
13-भागवत : 3.27 > प्रकृति -पुरुषको अलग करना संभव नहीं ।
14- भागवत : 3.28 > प्राण वायु पर जिसका नियंत्रण है वह शुद्ध मन वाला होता है ।
15- भागवत : 3.29 > गुण परिवर्तन मनुष्यके अन्दर भाव परिवर्तनका कारण है ।
~~ ॐ ~~

Friday, May 2, 2014

याज्ञवल्क्य

<> भागवतमें याज्ञवल्क्य ऋषि <> 
** भागवत सन्दर्भ ** भागवत में याज्ञवल्क्य ऋषिके सम्बन्ध में निम्न स्कंधों में कुछ बाते कही गयी हैं जिनको आप यहाँ देख सकते हैं । 
>> 9.1+9.12+ 9.13+ 9.22 +10.2 10.84+11.1+12.6 << 
^^ भागवत 9.12.1- 9.12.4 +10.2 > श्री रामके बंशमें 14वें बंशज हुए हिरण्यनाभ जिनकी शिष्यता प्राप्त करके कोशल देशवासी याज्ञवल्क्य ऋषि अध्यात्म - योगकी शिक्षा ग्रहण की थी । हिरण्यनाभ योगाचार्य थे और जैमिनी के शिष्य थे। जैमिनी को वेदव्यास द्वारा सामवेद की शिक्षा मिली थी ।हिरण्यनाभके अगले 6वें बंशज हुए मरू जो सिद्ध थे और आज भी सिद्धों की बस्ती कलाप गाँव में अदृश्य रूप से रह रहे हैं जो सूर्य बंश समाप्त हो जानें पर पुनः इस बंश की नीव रखेंगे । 
^^ भागवत : 9.1+ 9.13 > राजा निमि मिथिला नरपति के बंशजो पर याज्ञवल्क्य जैसे बड़े - बड़े योगेश्वरों की कृपा बनी थी ।मिथिलाके विदेह परम्पता में माँ सीताजीके पिता राजा जनक 21वें जनक हुए और भागवत में कुल 51 जनकों की बात कही गयी है ।ब्रह्मा के पुत्र मरीचि ऋषि थे । मरीचिके पुत्र हुए कश्यप ऋषि । कश्यपके पुत्र थे विवश्वान् ( सूर्य ) जिनके पुत्र हुए इस कल्प के सातवें मनु श्राद्धदेव । श्राद्धदेव मनुके पुत्र सुद्युम्न जब बन में तप करनें हेतु चले गए तब यमुना तट पर श्राद्धदेव 100 वर्ष तक तप करके 10 पुत्रों को प्राप्त किया । श्राद्धदेव के इन 10 पुत्रों में बिकुशी ,निमि और दण्डक तीन प्रमुख थे । बिकुक्षी से श्री राम का बंश बना और निमि से मिथिला नरेश जनक -विदेह राजाओं की परंपरा चली इस प्रकार श्री राम और माँ सीता दोनों की जड़ एक है । 
^^ भागवत : 9.22 > परीक्षित पुत्र जनमेजय थे जिनका पुत्र शतानीक होंगे (भागवत रचना तक शतानिक पैदा नहीं हुए थे ) जो याज्ञवल्क्य ऋषि से तीन वेदों एवं कर्मकांड की शिक्षा लेंगे ।शतानिकके बाद 4थे बंशज होंगे नेमिचक्र जिनके समय गंगा हस्तिनापुर को बहा ले जायेंगी और नेमिचक्र यमुना तट पर प्रयाग के पास कौशाम्बी में जा बसेंगे । यह कौशाम्बी वही है जहां बुद्ध कई बार आये थे । यह कौशाम्बी क़स्बा बुद्ध के समय ब्यापारियों का मुख्य आकर्षण हुआ कराता था । 
^^ भागवत : 10.84 > महाभारत युद्ध पूर्व कुरुक्षेत्र समन्तप पंचक तीर्थ में सर्वग्रास सूर्य ग्रहण लगा हुआ था । उस समय कुरुक्षेत्र में सभीं जनपदों से राजा -सम्राट आये हुए थे । यह ऐसा अवसर था जब यशोदा -नन्द एवं प्रभु कृष्ण की बचपन की गोपियाँ ,ग्वाल -बाल भी कुरुक्षेत्र कृष्ण से मिलनें आये हुए थे । इस पुनीत पावन पर्व पर बसुदेव जी एक यज्ञ का आयोजन किये थे जिसमें भाग लेने 29 ऋषि आये थे जिनमें एक थे याज्ञवल्क्य लेकिन (भागवत : 11.1) जब यदु कुलका अंत होना था ,प्रभु अपनें 125 साल का समय गुजार कर अपनें स्वधाम जानें ही वाले थे तब द्वारका के पिंडारक क्षेत्र में जो 11 ऋषि रुके हुए थे उनमें याज्ञवल्क्य न थे ।ये ऋषि कृष्ण से गोपनीय चर्चा करनें हेतु द्वारका में पधारे थे और ब्रह्मा प्रभु से स्वधाम वापिस जानें का निवेदन किया था । 
^^ भागवत : 12.6.48-53 > वेदव्यास जी एक वेदको चार भागों में विभक्त किया । ऋग्वेदका ज्ञान पैल ऋषिको दिया । यजुर्वेद की शिक्षा वैशम्पायन ऋषि को दिया , सामवेद का ज्ञान जैमिनी को दिया और जैमिनी के पुत्र सुमंत मुनि को अथर्वेद का ज्ञान दिया ।पेल ऋषि के शिष्य बाष्कल याज्ञवाल्क्य को ऋग्वेद का ज्ञान दिया था और वैशम्पायन से यजुर्वेद का ज्ञान भी याज्ञवल्क्य को मिला था ।याज्ञवल्क्य अपनें गुरु वैशंपायन से खुश न थे अतः उनको त्याग दिया और उनके द्वारा प्राप्त ज्ञान की उलटी कर दिया। कुछ अन्य विद्वानों ने इस उलटी को चाट लिया और उनके माध्यम से यजुर्वेद की एक नयी शाखा तैत्तिरीय यजुर्वेद बना । याज्ञवल्क्य सूर्य की उपासना की और अनेक वैज्ञानिक बातें बताई ।याज्ञवल्क्य की सूर्य आराधना से सूर्य प्रसन्न हो गए और उनको यजुर्वेद का गहरा राज बताया और याज्ञवल्क्य यजुर्वेद की 15 शाखाओं की रचना की । 
** याज्ञवल्क्य के सम्बन्ध में भागवत प्रसंग यहाँ समाप्त होता है।
~~ॐ ~~