Wednesday, September 28, 2011

अहंकार के अनेक रंग

क्रोध का रंग कैसा होता होगा,क्या कभीं आप इस बिषय पर सोचा है,यदि नहीं तो चलो अब सोचते हैं?गीता कहता है,मनुष्य वह है जिसकी रचना अपरा,परा प्र कृतियों एवं आत्मा के फ्यूजन से होती है/अपरा प्रकृति के आठ तत्त्वों में एक तत्त्व हैअहंकारजो अज है,जो कभीं समाप्त नहीं होता और जो सात्विक,राजस एवं तामस गुणों के तत्त्वों के साथ चिपका रहता है/आप यदि हिंदू हैं तो अपनें शास्त्रों को देखना,ध्यान से देखना जहां आप को अहंकार के एक नहीं अनेक रंग दिखेंगे/आप महाभारत एवं कृष्णा सिरिअल देखा होगा जहां अहंकार के तरह – तरह के रंगों में नमूनें आप को देखनें को मिले होंगे;कोई पहाड़ बना है तो किसी ऋषि के श्राप से,कोई सर्प बना है तो किसी ऋषि के श्राप से,कोई चट्टान बन कर जंगल में किसी पहाड़ के साथ बैठा है तो वह भी किसी ऋषि के श्राप का फल भोग रहा है और कोई पेड़ बना है तो वह भी किसी ऋषि के शाप का फल है/हमारे ऋषि क्यों श्राप देते थे?उनके अंदर इतना क्रोध क्यों था?वे क्यों अपनें नाक पर मक्खी नहीं बैठनें देते थे?आखिर कोई कारण तो होगा ही?

गीता कहता है,काम का रूपांतरण क्रोध है,क्रोध में अहंकार की ऊर्जा बहुत शक्तिशाली हो जाती है और काम राजस गुण का प्रमुख तत्त्व है औरगीता यह भी कहता है,जब कामना टूटती है तब कामना की ऊर्जा क्रोध की ऊर्जा में बदल जाती है और क्रोध की ऊर्जा एक अग्नि है/क्या हमारे ऋषियों में दबी हुई काम ऊर्जा थी जो सघन तप के बाद भी पूर्ण रूप से निर्विकार ऊर्जा में रुपानात्रित न हो सकी और समय-समय पर वह दबी हुयी ऊर्जा अपना क्रोध के रूप में रंग दिखा दिया करती थी/महाभारत में एक प्रसंग आता है,अष्टाबक्रजी के श्राप से कोई ब्यक्ति एक भयानक सर्प के रूप में अवतरित हुआ था जो कंश का मित्र भी था तथा श्री कृष्ण के साथ जब कंस का युद्ध हुआ तो उस युद्ध में वह सर्प कंश का साथ दिया था/अब आप सोचना जरा,क्या अष्टाबक्र जैसा ऋषि कभी श्राप दे सकता है?अष्टा बक्र जी बिदेह जनक को चंद पलों में स्थिर प्रज्ञ योगी बना दिया था और अष्टाबक्र जी कोई साधारण योगी न थे वे निराकार प्रभु के साकार रूप थे/गीता कहता है,ऋषि वह है जो हर पल समभाव में रहता हो,जो तीन गुणों के तत्त्वों के प्रभाव में न आता हो और जो सम्पूर्ण ब्रहमांड की सभीं सूचनाओं में प्रभु को हर पल देखत हो/क्या इस प्रकार का कोई ऋषि किसी को श्राप दे सकता है?और देगा भी क्यों?श्राप देना प्रभु के प्रसाद रूप में मिली ऊर्जा का गलत प्रयोग है और प्रभु अपनी ऊर्जा के गलत प्रयोग का मूक द्रष्टा क्यों बना रहता है?

-----अगले अंक में हम देखेंगे राजस एवं तामस गुणों के अहंकारों को-----


=====ओम=======


Sunday, September 25, 2011

गीता जीव मार्ग भाग छः

गीता सूत्र –2.62

ध्यायतः विषयान् पुंसः

संग तेषु उपजायते /

संगात् सज्जायते कामः

कामत् क्रोधः अभिजायते //

गीता में प्रभु अर्जुन को बता रहे हैं ---------

मन में इन्द्रिय बिषय की सोच का उठना यह बताता है कि मन – बुद्धि में काम – ऊर्जा का संचार शुरू हो चुका है/काम ऊर्जा राजस गुण की ऊर्जा होती है जो समय एवं परिस्थिति के अनुकूल कामना क्रोध एवं लोभ के रूप में बाहर से दिखती है/


The man dwelling on sense – objects develops attachment for them ; attachment springs up desire , and from the failure of desires anger appears .


गीता यहाँकाम , कामना , क्रोध , लोभ एवं राजस गुणके सम्बन्ध को बता रहा है / गीता सूत्र 3.37 में प्रभु कहते हैं ------

कामः एषः क्रोधः एषः रजोगुण समुद्भवः/

अर्थात

काम – क्रोध राजस गुण के तत्त्व हैं//

मनुष्य के पास मन एक ऐसा माध्यम है जो काम – राम दोनों में प्रवेश दिलाता है और मन का ध्यान काम की समझ से राम में पहुंचा कर स्वयं लुप्त हो जाता है /

गीता सूत्र –8.8 में प्रभु कहते हैं---

मन में जो मुझे बसाता है वह मुझे प्राप्त करता है/मन जबतक भोग तत्त्वों की बस्ती बना रहता है तबतक मनुष्य की यात्रा नर्क की ओर जाती रहती है और जिस घडी मन भोग तत्त्वों से खाली हो जाता है उस मन में प्रभु की धुन गूजनें लगती है//




=============ओम=============


Wednesday, September 21, 2011

गीत जीवन मार्ग भाग पांच


गीता जीवन मार्ग [भाग – 05 ]


गीता सूत्र –2.56


दुखेषु अनुद्विग्र – मना:


सुखेषु विगत स्पृहा:


वीत राग भय क्रोध:


स्थिति धी: मुनि: उच्यते//


वह जिसका मन सुख – दुःख से प्रभावित न होता हो


वह जो राग,भय एवं क्रोध से अछूता रहता हो


वह मुनि स्थिर – प्रज्ञ होता है//


Whose mind remins unperturbed midst of sorrow and pleasure


Who remains untouched by passion , fear , and rage


Such man is called a sage settled in intelligence .




आप – हम कल्पना तो कर ही सकते हैं कि-----


वह ब्यक्ति इस संसार में कैसा दिखता होगा


जो ----


तन – मन से-----


राग,भय एवं क्रोध रहित रहता हो----


और


जो सुख – दुःख के अनु भव से परे रहता हो//


// समभाव – योगी स्थिर – प्रज्ञ योगी होता है //




=====ओम======




Saturday, September 17, 2011

गीता जीवन मार्ग भाग चार

गीता सूत्र –4.10

वीत राग भय क्रोधा:

मत मया माम् उपाश्रिता:

वहव: ज्ञान तपसा

पूता: मत् भावं आगता: //

राग,भय एवं क्रोध विमुक्त ब्यक्ति ज्ञान तप से मेरे भाव को प्राप्त करता है//

My state of being is possible through austerity of wisdom . This ultimate state of purity is possible only when one is out of the attachment of passion , fear and anger .


बोलना आसान , सुनना और आसान लेकिन ----

अपनें अनुभव को बोलना कठिन , और उसे सुनना और भी कठिन //

प्रभु कह रहे हैं-----

राग , भय एवं क्रोध रहित ब्यक्ति ज्ञानी है और मेरे भाव को समझता है //

राग,भय एवं क्रोध रहित कौन हो सकत है?

प्रभु तो भावातीत हैं फिर उनके भाव को समझना क्या है ?

राग एवं क्रोध तो राजस गुण के तत्त्व हैं और भय है तामस गुण का तत्त्व अर्थात …..

प्रभु कह रहे हैं,वह जो राजस एवं तामस गुण से अप्रभावित है वह मेरे भाव को समझता है और साथ यह भी इशारा कर रहे हैं किवह ज्ञानी भी होता है/

प्रभु एवं उनका भाव अब्यक्तातीत है अतः इसे मैं ब्यक्त नहीं कर सकता लेकिन इतना जरुर कहूँगा,वह जो गुणों के सम्मोहन के बाहर हो जाता है,प्रभु एवं उनके भाव को समझता है और उस भाव में वह बस जाता है,उसे और कहीं चैन ही नहीं मिलता//


====ओम=====


Wednesday, September 14, 2011

गीता जीवन मार्ग भाग तीन

गीता सूत्र –15.10


उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुज्जानम् वा गुण – अन्वितम्/

विमूढा: न अनुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञान चक्षुष: //


गीता सूत्र –15.11


यतन्त: योगिनः च एनं पश्यन्ति आत्मनि अवस्थितम्/

यतन्त: अपि अकृत – आत्मानः न एनं पश्यन्ति अचेतसः//


ज्ञानी भोग – भगवान दोनों में होश मय रहता है;उस से जो हो रहा होता है वह उसका द्रष्टा होता है और मृत्यु के समय अपनी मृत्यु का भी द्रष्टा रहता है//अज्ञानी का जीवन – मरण सब कुछ बेहोशी से भरा हुआ होता है//


A man full of awareness understands what is lust and what is the Supreme One whereas a man of ignonance passes a deluded life .


गीता कहता है[गीत7.3 ] …....


हजारों लोग साधना में उतरते हैं , उनमें से कुछ सिद्धि को प्राप्त भी करते हैं लेकिन सिद्धि प्राप्त योगियों में कभी - कभीं कोई एकाध प्रभु को तत्त्व से जान पाता है / वह जो प्रभु को तत्त्वसे जानता है , ज्ञानी होता है / ज्ञान वह है जिस को क्षेत्रज्ञ एवं क्षेत्रका बोध होता है [ गीता 13.3 ] /

क्या है क्षेत्र ? और क्या है क्षेत्रज्ञ ? इसबात को हम आगे चल कर देखेंगे , यहाँ आप को यह सोचना है कीहोश क्या है ? और होश को पाना क्या है ?

इन्द्रियों से बुद्धि तक जो ऊर्जा बह रही होती है जब वह ऊर्जा गुण तत्त्वों के प्रभाव में नहीं आती तब वह ब्यक्ति होश मय कहलाता है और वह योगी होता है जिसके मन – दर्पण पर प्रभु प्रतिबिंबित होता है / होश ध्यान का फल है और ध्यान का अंत होश में होता है /


=====ओम======


Saturday, September 10, 2011

गीता जीवन मार्ग भाग दो


गीता जीवन मार्ग का अगला कदम


गीता सूत्र –2.65




प्रसादे सर्वदुखानाम् हानि: अस्य उपजायते/


प्रसन्न – चेतसः हि आशु बुद्धिः परि अवतिष्ठते//




प्रभु प्रसाद रूप में सभीं दुखों का अंत और स्थिर –n प्रज्ञता का आगमन होता है //




The supreame bliss is a frame of mind where there is no pain - sorrow and this placidity of mind keeps one in absolute reality .




मंदिरों में लोग प्रसाद प्राप्त करनें के लिए कतारों में खड़े दिखते हैंआखिर क्या है प्रसाद ? यहाँ गीता में प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं , प्रभु प्रसाद से दुखों का अंत होता है और मन – बुद्धि स्थिर हो


जाते हैं / उस ब्यक्त को अंदर – बाहर मैं ही मैं दिखनें लगता हूँ और जब ब्रहमांड की सभीं सूचनाओं में मैं ही मैं दिखनें लगता हूँ , समभाव से , तब वह योगी मुझे तत्त्व से समझ कर मुझमें प्रवेश कर जाता है //




प्रभु की ओर कामना के साथ कदम न बढाओ


प्रभु की ओर किसी सोच से कदम न भरो


प्रभु से कुछ लेने-देनें की बात न करो


प्रभु को सुमिरो उसे समझनें के लिए//


नरेंद्र [ स्वामी विवेकानंद ] कुछ पैसों की चिंता में थे , घर उनको पैसे भेजनें थे लेकिन कोई बंदोबस्त न हो पा रहा था , काफी चितित थे / श्री परमहंस रामकृष्ण जी नरेंद्र से बोले , जा , अंदर जा और मां से मांग ले जितना चाहिए , वह दे देगी , चिंता काहे को करता है , जा , जल्दी कर , यहाँ बैठनें से क्या होगा ? नरेंद्र गए मंदिर के अंदर और दो घंटे बाद बाहर निकले और आखें टपक रही थी / प्रभु परम हंस जी बोले , क्या बात है , क्या मां ना कह दिया या डाटा . कुछ तो जरुर घटित हुआ दिखता है ?


नरेंद्र बोले , गुरूजी मैं तो भूल ही गया अंदर जा कर कि मैं यहाँ क्या करनें आया हूँ और पता नहीं कैसे दो घंटे गुजर गए , पता तक न चल पाया , चलिए फिर कभीं मांग लूंगा //


प्रभु का परा भक्त कुछ ऐसा होता है जो प्रभु से ऐसा जुडता है कि स्वयं को घुला देता है प्रभु में और जब वह होता ही नहीं तो मांगेगा क्या?




==========ओम=======




Tuesday, September 6, 2011

गीता जीवन मार्ग भाग एक

आज से गीता जीवन – मार्ग नाम से गीता-राह की यात्रा प्रारम्भ हो रही है,देखना,यह यात्रा बेहोशी भरी न हो,इस यात्रा में हर कदम को होश के साथ उठाना और गिराना है/

गीता सूत्र –2.14

इन्द्रिय सुख – दुःख अल्पकालीन होते हैं , इनके सम्मोहन को समझना चाहिए /

pleasure – pain as axperienced by our senses do not last long and one should understant it .

गीता सूत्र –5.22

बुद्ध पुरुष जानते हैं , इन्द्रिय भोग अनादि नहीं होते और दुःख के श्रोत होते हैं /

pleasure of senses are casual and they are the source pain . A Buddha does not get delighted from senses – pleasures .

गीता सूत्र –18.38

भोग सुख भोग के समय अमृत सा लगता है लेकिन इसका परिणाम बिष की स्याही से लिखा जाता है

senses happiness is passionate happiness and it is felt as nectar in the beginning but its result has poison in it .

गीता सूत्र –3.34

सभीं पांच इन्द्रिय बिषयों में राग – द्वेष की उर्जा होती है /

all sense objects have enegy of attachment and aversion .

गीता सूत्र –2.64

जिसकी इन्द्रियाँ बिषयों में बिहरती हों और बिषयों के सम्मोहन से दूर रहती हो वह ब्यक्ति प्रभु का प्रसाद प्राप्त ब्यक्ति होता है /

he whose senses dwelling in their objects without being influenced by them , gets purity of the cosmos .


आज से प्रारम्भ करो--------

जो देखो,जो सुनो,जो छूओ,जो खाओ – पीओ और जो सूँघो,उनके भाव जो मन में उठें उनको समझनें का अभ्यास करो/यह अभ्यास – योग गीता का बिषय – इन्द्रिययोग है//



=====ओम======


Friday, September 2, 2011

गीता के दो सौ सूत्रों का समापन

गीता के 200 सूत्रों की श्रंखला का आज अंत हो रहा है , आइये देखते हैं इन कुछ सूत्रों को //

सूत्र –14.8

तामस गुण मोह , अज्ञान , आलस्य अधिक निद्रा एवं प्रमाद से पहचाना जाता है //

सूत्र –17.2

गुण आधारित श्रद्धा तीन प्रकार की होती है //

गीता के इस बिषय को समझते हैं-------

तीन गुण मनुष्य के स्वभाव का निर्माण करते हैं , स्वभाव से श्रद्धा बनती है और श्रद्धा के आधार पर मनुष्य कर्म , साधना एवं अन्य सभीं कृयाओं को करता है //

गीता में इस बात को देखनें के लिए आप गीता के सूत्र – 3.5 , 3.27 , 3.33 , 18.59 , 18.60 को एक सात देखें तब ऊपर कही गयी बात को आप समझ सकते हैं //

सूत्र –14.22

तत्त्व – वित् तीन गुणों के बाहर के आयाम में रहता है //

सूत्र –14.25

गुणातीत समभाव – योगी होता है //

सूत्र –15.10

ज्ञानी अपने तन , मन एवं बुद्धि का द्रष्टा तो रहता ही है और अंत समय आनें पर वह स्वयं के मृत्यु का भी द्रष्टा बन जाता है //

सूत्र –13.26

कोई कर्म के माध्यम से , कोई सांख्य – योग से , कोई भक्ति से तो कोई ध्यान में प्रभु को अपने ह्रदय में देखता है //


गीता कोई नयी बात नहीं कहता … ....

गीता उसे कहता है ........

जिसको हम हर दिन , हर पल देखते हैं लेकिन उसके प्रति बेहोश रहते हैं //


गीता कुछ नहीं करता मात्र हमें जगाता रहता है//


=======ओम============